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शमीमा कौसर को अपनी बेटी के लिए इंसाफ चाहिए था।
कांग्रेस नेताओं की आंखें डबडबाई थीं। बिहार के सेकुलर नेता उसे 'बिटिया' बताते हुए बिलख रहे थे। और वामपंथी? उनका हाल तो पूछिए ही मत।
कोई इनकार करेगा कि 'इशरत जहां' के नाम का इस्तेमाल पिछले एक दशक से भारत में सेकुलर राजनीति के सबसे घिनौने हथियार के तौर पर हुआ है?
पाकिस्तान मूल के अमेरिकी आतंकी डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति सिर्फ आतंकवाद का खुलासा नहीं करती। यह सेकुलर-वामपंथी शिविर में पलते राष्ट्रविरोधी जहर को उघाड़ने वाली है।
शमीमा की स्थिति एक बार को समझी जा सकती है। बेटी की जिंदगी के दबे-छिपे पहलू से संभवत: अनजान मां की प्रतिक्रया ऐसी हो सकती है। लेकिन सेकुलर बिरादरी का क्या?
इशरत की मौत के एक माह बाद 14 जुलाई 2004 को जब लश्करे तय्यबा ने उसे अपना सदस्य बनाया था तब और अब की स्थिति में क्या फर्क है? तब से अब तक, तथ्य चीख-चीखकर जिस बात की मुनादी करते रहे, मानवाधिकार की छाती पीटने वाले मातमी जत्थों ने उस सच को ही ढकने का काम किया ।
सवाल है कि आतंकियों से मुठभेड़ को पुलिस ज्यादती ठहराने पर अड़े राजनेताओं को देशद्रोह की सड़ंाध मारती साजिश में किस सत्ता की सुगंध आ रही थी?
इशरत मोहरा थी। मौत से पहले आतंकियों का और बाद में सेकुलर राजनीति का।
इस मोहरे से आतंकियों को कितना फायदा मिला, हेडली और उसके पाकिस्तानी सरपरस्त बेहतर जानते होंगे, लेकिन लाश गिरने के बाद इसका फायदा किन घटिया चेहरों ने उठाया उनकी पहचान और सजा की जिम्मेदारी किस पर है?
लश्करे तय्यबा से लेकर आईएसआई, और हाफिज सईद तक बातों के तार कब, कहां, कैसे जुड़ें, कहा नहीं जा सकता। सिर्फ एक बात दावे के साथ कही जा सकती है। एक झूठ को लाख बार दोहराकर सचाई का लबादा ओढ़ा दिया गया।
राजनीति के पतन पर, भितरघातियों पर… निगहबानी नहीं रखने के नतीजे घातक रहे हैं। क्या नहीं? राजनीति के ऐसे पतन, कि जिसकी ओर से ही आंखे मूंद ली जाएं, उसका जिम्मेदार कौन है, जिन लोगों ने लोकतंत्र को परिवारतंत्र और परिवार को वामपंथ के बौद्धिक गुलाम हो जाने के बावजूद सहन किया? यह सिर्फ परिवार का खोखलापन नहीं बल्कि भारतीय स्वभाव का भोलापन भी है जिससे देश के विरुद्ध षड्यंत्र रचने वालों को अनजाने ही सही, ताकत मिली।
शक्ति पाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसे सही तरीके से साधना। काबू में रखना। अन्यथा शक्ति घातक हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र की विडंबना रही कि मतदाताओं की दी हुई ताकत का इस्तेमाल कुछ परिवारों और जहरीले विचारों को पनपाने के लिए किया गया। लोगों की आंखों पर सुख-सौहार्द का ऐसा गंगा-जमुनी पर्दा डाला गया जिसके पार वह देख न सके।
देश के लिए क्या सही है, इस जनता के लिए क्या सही है, इस सब का फैसला कुनबों और गुटों को भाग्यविधाता मानते हुए छोड़ दिया गया। लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। सिर्फ हेडली के बयान से यह परिवर्तन नहीं हुआ। नीति-निर्माताओं की बड़ी छान-फटक का काम देशभर में चल रहा है। कई दल और दिग्गज बुहारे जा चुके हैं। यह संकेत है राजनीतिक दलों के लिए जागते भारत का। बांटने की राजनीति और कुनबावाद की दाल अब ज्यादा दिन नहीं गलने वाली।
हेडली और इशरत से परे तक सब दिखेगा, बस आप अपने आंख-कान खुले रखिए।
परिवारों की पालकी ढोने वालों के कंधे दुखने लगे हैं।
'बिटिया' की 'शहादत' पर जिनके गले रुंध जाते थे, उनके पांव कांप रहे हैं।
लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने वाले अफजल के लिए रोते जत्थे अपनी आखिरी मांदों में चीख रहे हैं। कुछ दिखा! आतंक के बौद्धिक शिविरों में बौखलाहट है, खुलासों ने सेकुलर विमर्श का झाग बैठा दिया है।
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