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हार्ट ऑफ एशिया/ अमृतसरपाकिस्तान है 'आतंकिस्तान

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Dec 12, 2016, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Dec 2016 14:49:10

 

हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में जहां अफगानिस्तान के पुनरोत्थान में भारत की बढ़ती भूमिका को सबने माना, वहीं अमृतसर घोषणा पत्र के जरिए सदस्य देशों ने पाकिस्तान को आतंक को पोसने से बाज आने को कहा। इस संदर्भ में नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की टिप्पणी सकारात्मक है

डॉ. सतीश कुमार

अमृतसर में संपन्न दो दिवसीय (3-4 दिसंबर) हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन अधिकांशत: अफगानिस्तान पर केंद्रित रहा। इस सम्मेलन को इस्तांबुल प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इसकी शुरुआत 2011 में इस्तांबुल में हुई थी। भारत में यह पहला सम्मेलन था। इसके पहले पांच सम्मेलन हो चुके हैं, यह छठा था। मंत्रीस्तरीय हार्ट ऑफ एशिया की बैठक भारत में होना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इस सम्मेलन के दौरान भारत और अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को बिना लाग-लपेट कठघरे में खड़ा कर आतंकवाद का मुख्य दोषी बताया। भारत में उरी और नगरोटा हमले इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अफगानिस्तान की भी ठीक यही स्थिति है। 2015-16 के बीच अफगानिस्तान के भीतर भीषण जिहादी आक्रमण हुए हैं। इसलिए अमृतसर घोषणा पत्र में लश्करे-तैयबा और जैशे मोहम्म्द को मुख्य रूप से चिन्हित किया गया। ये दोनों जिहादी गुट पाकिस्तान की जमीन पर सक्रिय हैं। पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंेसी आई़ एस़ आई. इसमें पूरी तरह लिप्त है।
सम्मेलन में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज को भारत ने विशेष सुविधाएं दीं और सुरक्षा का उचित प्रबंध किया। अजीज के साथ भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित लगातार बने रहे। लेकिन पाकिस्तान ने अपनी फितरत के अनुसार, अजीज के स्वदेश लौटते ही प्रेस वार्ता बुलाकर भारत की मेजबानी पर बेबुनियाद आरोप जड़ने शुरू कर दिए कि ''अजीज को उनकी मर्जी के विरुद्ध मीडिया से दूर रखा गया।'' हालांकि भारत ने तुरंत साफ कर दिया कि अजीज को एक कदम आगे जाकर खास सहूलियत दी गई थी और मीडिया से मिलने की बात पहले से तय न होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से इससे अलग रहने को कहा गया था। अजीज ने सम्मेलन के दौरान भी पाकिस्तान की तरफ उठीं उंगलियों को अनदेखा करते हुए अपने ही जिहाद से आहत होने का दुखड़ा सुनाना शुरू कर दिया।   
आतंकवाद इस दो दिवसीय सम्मेलन का मुख्य एजेंडा था। इसमें पारित घोषणा पत्र में यह बात भी जोड़ी गई कि अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया तब तक आगे नहीं बढ़ेगी, जब तक पाकिस्तान अपने यहां पल रहे इन गुटों का सफाया नहीं कर देता। पाकिस्तान पिछले 4 दशक से आतंकवादियों का गढ़ बना हुआ है। उसका सत्ता अधिष्ठान पूरी तरह से आतंकवादी संजाल से मिला हुआ है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कड़े शब्दों में कहा कि जो देश आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय और बढ़ावा देता है, उस पर भी लगाम कसनी होगी। मोदी ने कहा कि बाहरी ताकतों के कारण अफगानिस्तान की शांति छिन गई है। भारतीय प्रधानमंत्री ने अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी से अपील की कि हमें हर हाल में इस क्षेत्र से आतंकवाद को खत्म करने की मुहिम को बल देना होगा। चुप या अलग-थलग रहने से बात नहीं बनेगी। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने सीधे शब्दों में पाकिस्तान का नाम लिया। उन्होंने कहा, ''मेरे पास सबूत हैं जिसमें पाकिस्तान की भूमिका साफ अंकित है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इसमें कोई शक-शुुबहा नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद का उद्गम कहां से है।'' उन्होंने आगे कहा, ''पाकिस्तान ने 500 मिलियन डॉलर अफगानिस्तान को सहायता राशि के रूप में देने का वादा किया था। मेरा पाकिस्तान से अनुरोध है कि वह यह राशि अफगानिस्तान को देने के बजाय अपने घर के भीतर पल रहे आतंकी संगठनों को खत्म करने में खर्च करे।''
इस मंत्रीस्तरीय बैठक की अध्यक्षता वित्त मंत्री अरुण जेटली ने की। जेटली ने कहा कि अलकायदा, लश्करे-तैयबा, जैशे मोहम्मद और हक्कानी जैसे संगठन पाकिस्तान की पैदाइश हैं। भारत और अफगानिस्तान पाकिस्तान के रुख से परेशान हैं। अंतरंगता और भाईचारा इस क्षेत्र में निरंतर टूटता जा रहा है। व्यापार और आर्थिक विकास के मसले आतंकी बारूद में जल रहे हैं।

यदि अमृतसर सम्मेलन की विशेषता और उपयुक्तता पर दृष्टि डाली जाए तो एक परिवर्तन का आभास होता है। भारतीय प्रधानमंत्री ने उरी आक्रमण से पहले ही सुनियोजित ढंग से पाकिस्तान को हर क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच  से घेरने की कोशिश शुरू कर दी थी। उरी हमले के बाद उसमें और गति आ गई। सार्क सम्मेलन का बहिष्कार और मोदी की पाकिस्तान को आतंकवाद के पोषक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की मुहिम सफल होती दिखाई दे रही है। अमृतसर सम्मेलन को उस मुहिम की अगली कड़ी कहा जा सकता है। 40 देशों के प्रतिनिधियों के बीच पाकिस्तान की किरकिरी होना महत्वपूर्ण बात है।
दरअसल हमें इस बात को भी समझना होगा कि ऐसा करने से क्या पाकिस्तान के भीतर कुकुरमुत्ते की तरह पल रहे आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है? पाकिस्तान  की आर्थिक व्यवस्था दान और भिक्षा पर टिकी हुई है। सबसे मोटी रकम अमेरिका से आती है। पाकिस्तान भीख में बटोरे गए पैसों से आतंकी गतिविधियों को अंजाम देता है। यह सिलसिला चार दशकों से चल रहा है। आज दुनिया के तमाम देश इस महामारी से आहत हैं। इस संदर्भ में अमेरिका के चयनित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टिप्पणी गौर करने लायक है, ''अमेरिका की अफगानिस्तान नीति असफल रही है, इसको बदलना होगा।'' टं्रप के ये शब्द भारत और अफगानिस्तान, दोनों के लिए लाभकारी साबित होंगे।

अफगानिस्तान में महत्वपूर्ण भारतीय परियोजनाएं
सलमा बांध-इस बांध को भारत-पाकिस्तान मैत्री बांध भी कहा जाता है। 1,775 करोड़ रु. लागत से बनी इस परियोजना से 50,000 परिवारों को लाभ मिलेगा
सड़क निर्माण परियोजना-21 कि़ मी., जराज से डेलाराम तक
11 राज्यों में टेलीफोन के तार बिछाए गए
34 राज्यों में टीवी नेटवर्क का काम
खनन और कृषि शोध संस्थान की स्थापना
अमृतसर में प्रधानमंत्री मोदी ने की एक बिलियन डॉलर राशि देने की घोषणा
दोनों देशों के बीच हवाई संपर्क की व्यवस्था
अफगानिस्तानी विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति

अफगानिस्तान का सामरिक महत्व
अफगानिस्तान मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के मुहाने पर है
दो सबसे महत्वपूर्ण तेल उत्पादक देश-ईरान और तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान के पड़ोसी देश हैं
चीन और रूस की तेल पाइपलाइन अफगानिस्तान से होकर गुजरती है
अमेरिकी भूगर्मवेत्ताओं के अनुसार अफगानिस्तान में लीथियम का सबसे बड़ा भंडार है
अफगानिस्तान की स्थापना 1747 में अहमद शाह दुर्रानी ने की थी
सांस्कृतिक रूप से अफगानिस्तान काफी संपन्न रहा है
अफगानिस्तान में पूरे विश्व के 70 प्रतिशत मादक पदार्थों की खेती होती है जो मुख्यत: यूरोपीय देशों में भेजे जाते हैं
अफगानिस्तान की सीमा 6 महत्वपूर्ण देशों से मिलती है

अफगानिस्तान के विभिन्न जनजातीय गुट
पश्तून – 42 प्रतिशत
पश्तून – 42 प्रतिशत  
ताजिक  
हजारा      
अएमेक
तुर्कमेन  
बलोच  
पशी एवं गुर्ज

अफगानिस्तान में सक्रिय विभिन्न आतंकवादी संगठन
तहरीके-तालिबान (पाकिस्तान)
हक्कानी गु्रप
अल-कायदा
लश्कर-ए-झांग्वी
हिज्बुल-ए-इस्लाम (गुलबुद्दीन हिकमतयार)
इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान
इस्लामिक स्टेट
 

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने पहले भी कहा था कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और अमेरिका का मंच कारगर नहीं है। चूंकि चीन पाकिस्तान  को संबल दे रहा है, इसलिए 2011 से 2016 के बीच अफगानिस्तान में कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ बल्कि स्थिति और बदतर होती गई। यह बात सबको ज्ञात है कि अफगानिस्तान में हामिद करजई के पद से हटने और गनी के राष्ट्रपति बनने के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच दोस्ती के नए मंसूबे बांधे गए। भारत की वहां सहभागिता पर अंकुश लगाया गया। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही गनी को असलियत समझ आ गई और उन्होंने भारत के महत्व को पहचाना।  पिछले कुछ महीनों से भारत-अफगानिस्तान और अमेरिका के बीच एक नया समीकरण बनता दिख रहा है। नव चयनित अमेरिकी राष्ट्रपति का रुख भारतीय सोच के करीब है। ट्रंप ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ''जो हमारे खून के प्यासे हैं उनको हम हथियार खरीदने के लिए पैसा नहीं देंगे।'' पिछले वर्ष ही अमेरिकी कांग्रेस में एक बिल (एच़ आऱ 6069) पारित किया गया था जिसमें पाकिस्तान को आतंकवाद को शह देने का दोषी माना गया था। टं्रप पहले ही अपना रुख साफ कर चुके हैं। टं्रप के अनुसार, अफगानिस्तान में कम से कम 10,000 हजार अमेरिकी सैनिकों की जरूरत है।
राष्ट्रपति ओबामा ने 2014 से ही अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा कर दी थी। सुरक्षा का भार अफगानिस्तान सैनिकों पर डाल दिया गया। तब से स्थिति और बिगड़ गई। टं्रप ने इस नीति को बदलने की बात कही है। उनकी सोच के अनुसार, वहां अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढे़गी। जहां भारत की जरूरत होगी, वहां उसकी सहायता ली जाएगी। यह समीकरण 2015 से बिल्कुल अलग है। आज भारत की वहां भूमिका बढ़ी है। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत के अफगानिस्तान से सहयोग के और बढ़ने की उम्मीद है।  अमृतसर सम्मेलन इस बात की ताकीद करता है कि दुनिया के तकरीबन 100 से अधिक देश अफगानिस्तान में शांति-व्यवस्था बनाने की हरसंभव कोशिश को प्राथमिकता देते हैं।
अक्तूबर 2016 में यूरोपीय संघ के देशों ने ब्रुसेल्स सम्मेलन के द्वारा अफगानिस्तान में शांति और विकास के लिए हर तरह की मदद देने की बात दोहराई थी। इसी वर्ष सऊदी अरब ने भी क्षेत्रीय देशों के साथ मिलकर अफगानिस्तान की मदद की बात कही है। अगर इन दो सम्मेलनों को अमृतसर सम्मेलन के साथ जोड़कर देखें तो यह बात साफ है कि अगर ये देश पाकिस्तान को मदद देना बंद कर दें तो वह आतंकी संजाल पर लगाम कसने को बाध्य होगा। अगर ये देश सच में परिवर्तन चाहते हैं तो भारत की उद्घोषणा को समझें और आगे बढ़ें। अगर ऐसा हुआ तो यह मोदी की सोच और नीति की जीत होगी।
लेखक झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग के अध्यक्ष हैं

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