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जवाब सबको देने है

by
Nov 7, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Nov 2016 16:49:09

 

 रतन टाटा और सायरस मिस्त्री का विवाद केवल टाटा समूह का विवाद नहीं है। टाटा समूह की कंपनियों में आम निवेशकों और भारतीय जीवन बीमा निगम जैसी सरकारी कंपनियों का भी पैसा लगा हुआ है। इसलिए इस विवाद को जितनी जल्दी सुलझा लिया जाएगा, उतना ही अच्छा रहेगा

 

आलोक पुराणिक

टाटा-मिस्त्री विवाद लंबा खिंचता जा रहा है। रतन टाटा जिन सायरस मिस्त्री को कुछ साल पहले पूरे टाटा समूह की कमान संभालने के लिए सबसे काबिल बंदा समझते थे, अब उनका मानना है कि मिस्त्री को हटाए बिना टाटा समूह का भविष्य खतरे में है। घर की दुकान जैसा मसला खड़ा हो गया है, मालिक ने मुनीम को बरखास्त करने का आदेश दे दिया है। मुनीम कह रहा है-मैं नहीं जाऊंगा। कारोबार जिस भी हालत में है, उसकी जिम्मेदारी आप पर भी है। तू-तू-मैं-मैं चल रही है। टाटा का कारोबार यूं तो टाटा का ही कारोबार है, पर टाटा का कारोबार सिर्फ उनका कारोबार नहीं है। टाटा बतौर ब्रांड एक बहुत बड़ा ब्रांड है। भारतीय उद्योग जगत में किवदंती-मुहावरे के तौर पर चर्चित टाटा नाम के साथ भारतीय उद्योग जगत और अर्थव्यवस्था का इतिहास जुड़ा हुआ है। टाटा के मसले किसी घर की दुकान के मसले नहीं हैं, जिसमें मालिक जिस किसी को बरखास्त कर सकते हैं और चाहे जिसको ले सकते हैं। मिस्त्री-टाटा विवाद ने कई सवालों को जन्म दे दिया है।

मसला ये है

मसला यह है कि टाटा संस तमाम टाटा समूह की कंपनियों की होल्डिंग कंपनी है। होल्डिंग कंपनी यानी रखवाली कंपनी यानी वह कंपनी जो तमाम दूसरी टाटा कंपनियों पर मिल्कियत रखती है। तमाम टाटा कंपनियों में टाटा संस की शेयरधारिता है। यानी टाटा संस कंपनी तमाम टाटा कंपनियों की लगभग मालिक है। यानी जिसका अधिकार टाटा संस पर होगा, वही टाटा समूह की कंपनियों पर नियंत्रण करेगा, उनके कारोबार पर नियंत्रण करेगा। संक्षेप में टाटा समूह की हुकूमत की चाबी टाटा संस की तिजोरी में रहती है। इसी टाटा संस के चेयरमैन सायरस मिस्त्री को पद से हटा दिया गया। किसी कंपनी में चेयरमैन जैसे पद पर हटाने या लगाने के फैसले में कंपनी के निदेशक मंडल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निदेशक मंडल ने सायरस मिस्त्री को टाटा संस के चेयरमैन के पद से हटा दिया। अब तमाम तरह के पत्रों से, तमाम तरह के बयानों से यह ध्वनित हो रहा है कि टाटा संस के प्रबंधन ने सायरस मिस्त्री को इसलिए हटाया कि वे ठीकठाक तरीके से काम नहीं कर रहे थे। टाटा समूह के हितों के अनुरूप काम नहीं कर रहे थे। एक हालिया पत्र में तो टाटा संस के शीर्ष प्रबंधन का आशय यह है कि सायरस मिस्त्री को हटाना टाटा समूह के अस्तित्व के लिए अनिवार्य हो गया था। यानी कंपनी के चेयरमैन पर कंपनी के निदेशक मंडल का भरोसा ना रहा, यह अभूतपूर्व घटना है। क्योंकि सामने यह भी आया है कि जून 2016 यानी करीब चार महीने पहले ही टाटा संस के निदेशक मंडल ने सायरस मिस्त्री के कामकाज की तारीफ की थी और उनका वेतन-भत्ते बढ़ाने के सिफारिश की थी। चार महीनों में अचानक यह क्या हो गया, यह गहरे शोध का विषय है। किसी भी कंपनी के निदेशक मंडल को अपने चेयरमैन को हटाने का अधिकार होता है, पर इसकी ठोस वजहें होती हैं, होनी चाहिए। वरना सवाल उठते हैं।

कंपनी का स्वामित्व और प्रबंधन

समझने की बात यह है कि सायरस मिस्त्री के परिवार के पास टाटा संस के करीब 18़ 5 प्रतिशत शेयर भी हैं। शेयरधारिता का मतलब हुआ स्वामित्व यानी टाटा संस की करीब 18़ 5 प्रतिशत स्वामित्व मिस्त्री के परिवार के पास है। मिस्त्री कंपनी के आंशिक मालिक भी हुए और चेयरमैन तो थे ही। यानी मिस्त्री कंपनी में मालिकाना भूमिका में भी थे और प्रबंधकीय भूमिका में भी। ज्यादातर बड़ी कंपनियों में यही स्थिति होती है। जिसका स्वामित्व है, वही प्रबंधकीय भूमिका में होता है। अंबानी से लेकर बिड़ला समूह की कंपनियों में ऐसा होता है। बहुत कम कंपनियां ऐसी हैं, जहां स्वामित्व वाले प्रमोटर खुद को प्रबंधकीय कामकाज से दूर रखे हुए हैं। जैसे सफोला, लिवोन, पैराशूट जैसे बड़े ब्रांडों की मालिक कंजूमर सेक्टर की कंपनी मैरिको के प्रमोटर कंपनी के प्रबंधन से दूर हैं, प्रबंधन प्रोफेशनल हाथों में है। पर ऐसा भारत में अपवादस्वरूप होता है। वरना तो मालिक खुद ही प्रबंधन की भूमिका में रहता है। इस लिहाज से यह बहुत ही हैरानकुन फैसला था कि कंपनी के एक आंशिक मालिक साइरस मिस्त्री को हटा दिया गया। यानी कंपनी की मिल्कियत रखना इस बात की गारंटी नहीं है कि कंपनी के प्रबंधन में भी हिस्सेदारी मिलेगी। 18़ 5 प्रतिशत हिस्सेदारी के बावजूद मिस्त्री हटाए जा सकते हैं, इसका मतलब है कि प्रमोटर होना ही सब कुछ नहीं है। दूसरे शेयरधारक मिलकर 18़ 5 प्रतिशत वाले को हटा सकते हैं। टाटा संस के चैयरमेन के पद पर एस. रामादोराई आ सकते हैं, जो टाटा समूह की एक कंपनी टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। गौरतलब है कि रामादोराई का टाटा के प्रवर्तक समूह से कोई रिश्ता नहीं है। साइरस मिस्त्री तो रतन टाटा के दूर के रिश्तेदार हैं, पर रामादोराई की टाटा के साथ ऐसी कोई रिश्तेदारी नहीं है। विशुद्ध कामकाजी नतीजे रामादोराई के चयन का आधार बन सकते हैं। ऐसे ही एन. चंद्रशेखरन का नाम भी चर्चा में है। चंद्रशेखरन टाटा कंसल्टेंसी के अधिकारी हैं। पेप्सी की इंदिरा नूयी का नाम भी टाटा संस के मुखिया के तौर पर चर्चा में है। ये सब लोग टाटा समूह के प्रमोटर समूह से कहीं से नहीं जुड़े हैं। सिर्फ एक नाम है नोएल टाटा, जो भविष्य में टाटा संस के मुखिया हो सकते हैं। नोएल टाटा की रिश्तेदारी रतन टाटा के साथ है। नोएल टाटा के नाम भी कुछ हालिया कारोबारी सफलताएं हैं। पर कुल मिलाकर यह साफ है कि टाटा संस के मुखिया का चुनाव अब रिश्तेदारी के आधार पर नहीं, कंपनी में उसकी शेयरधारिता के आधार पर नहीं, ठोस कामकाज के रिकार्ड और संभावनाओं के आधार पर होना है।

झगड़े इस बात के हैं

अब बातें निकल कर आ रही हैं कि सायरस मिस्त्री के मुताबिक टाटा समूह की कंपनियों के खाते उतने साफ-सुथरे नहीं हैं, जितने होने चाहिए। या जिन फैसलों पर रतन टाटा सवाल उठा रहे हैं, वे सारे फैसले तो रतन टाटा से पूछकर ही लिए गए थे। यानी दोनों पक्ष एक-दूसरे को गलत और खुद को सही ठहरा रहे हैं। मोटे तौर पर झगड़े के बिंदु ये हैं— कुछ कारोबारी फैसले और खास तौर पर ,टाटा डोकोमो से जुड़ा विवाद। टाटा डोकोमो विवाद टाटा के टेलीकॉम कारोबार से जुड़ा है। इसमें टाटा समूह को सायरस मिस्त्री ने अपने एक पत्र में जो लिखा है, उसका आशय यह है कि मुझे बहुत उलझी हुई विरासत मिली, मुझसे पहले ही बहुत कारोबारी फैसले गलत हो गए थे। मिस्त्री ने लिखा कि यूरोप के स्टील कारोबार में टाटा के करीब 10 अरब डॉलर फंसे। कई होटलों को घाटे में बेचना पड़ा। टेलीकॉम बिजनेस टाटा के लिए आफत रहा। अगर टाटा के टेलीकॉम कारोबार को बेचा जाए, तो भी टाटा समूह को 4-5 अरब डॉलर की चपत लगेगी। इसके अलावा डोकोमो समूह को एक अरब डॉलर से अधिक अलग से देने पड़ेंगे। मिस्त्री ने टेलीकॉम कारोबार से जुड़े समझौतों पर सवाल उठाए हैं कि ये कारोबारी-कानूनी लिहाज से सही समझौते नहीं लगते। टाटा पावर ने कुछ कारोबारों में खुद को बेकार में झोंका, जिसके चलते टाटा समूह को भारी नुकसान हुआ। मिस्त्री के मुताबिक टाटा मोटर फाइनेंस ने बिक्री बढ़ाने के चक्कर में कई कर्ज ऐसे दिए, जो बाद में डूबत साबित हुए। करीब 4,000 करोड़ रुपए का कर्ज बाद में समस्याओं में फंसा। टाटा नैनो ने लगातार घाटा दिया मिस्त्री ने लिखा कि नैनो का घाटा 1,000 करोड़ रुपए तक पहुंचा, पर टाटा नैनो को भावनात्मक कारणों से बंद नहीं किया गया। याद किया जा सकता है कि टाटा नैनो परियोजना रतन टाटा की व्यक्तिगत तौर पर पसंदीदा परियोजना रही है। मिस्त्री ने लिखा कि एयरलाइंस में रतन टाटा की निजी दिलचस्पियों के चलते टाटा समूह को एयरलाइंस कारोबार में निवेश करना पड़ा, जिसके नतीजे अच्छे नहीं निकले। मिस्त्री ने अपनी पीठ थपथपाते हुए सबको बताया कि इन सारी परेशानियों के बावजूद टाटा समूह ने कुल मिलाकर बढि़या कारोबार किया। 2013 से 2016 के बीच टाटा समूह का मूल्यांकन सालाना 14़ 9 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ा, जबकि इस अवधि में मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक करीब 10.4 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ा।

रतन टाटा और मिस्त्री का आकलन

रतन टाटा का पक्ष इसके बरक्स दूसरा है। उनकी तरफ से सामने आए संवादों से साफ होता है कि वे कह रहे हैं कि सायरस मिस्त्री ने टाटा समूह की गरिमा और प्रतिष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया। रतन टाटा को इस मसले पर यह जवाब देना है कि आखिर वे साफ बिंदु कौन से हैं, जिन पर मिस्त्री ने टाटा समूह की गरिमा के हिसाब से काम नहीं किया। मोटे तौर पर मिस्त्री समूह के कर्ज को कम करने के लिए विरासत में मिली संपत्तियों को बेचने का काम कर रहे थे। इसमें गलतियां क्या थीं, यह बताया जाए। टाटा मोटर्स ने कुछ सफल फैसले लिए। जगुआर ब्रांड को हस्तगत करना टाटा मोटर्स का सफल फैसला रहा, पर नैनो के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। जब यह साफ है कि एयरलाइंस का कारोबार बहुत मुश्किल कारोबार है, अधिकांश एयरलाइंस मुनाफा नहीं कमा रही हैं, तब ऐसे में टाटा समूह के संसाधनों को एयरलाइंस कारोबार में सिर्फ इसलिए झोंकना कि रतन टाटा की इसमें व्यक्तिगत दिलचस्पी है, क्या ठीक माना जा सकता है? मिस्त्री को जवाब देना है कि आखिर क्यों इतने शीर्ष पद पर आने के बाद उनका संवाद शीर्ष प्रबंधन के साथ इतना खराब रहा? कहीं तो कुछ गायब है मिस्त्री के प्रबंधन में कि उनके पक्ष में टाटा संस का एक भी निदेशक नहीं है, जबकि मिस्त्री खुद प्रमोटर समूह से आते हैं 18़ 5 प्रतिशत शेयरधारिता के साथ।

घर की दुकान नहीं टाटा समूह

मसला सिर्फ टाटा समूह और साइरस मिस्त्री का नहीं है, क्योंकि टाटा समूह की तमाम कंपनियों में आम निवेशक की भी भागीदारी है। उन म्युअचल फंडों का भी निवेश है, जिनमें आम आदमी ने निवेश किया है। टाटा समूह में तमाम सरकारी संस्थानों का भारी निवेश है। सरकारी संस्थान लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन यानी एलआईसी के करीब 37,000 करोड़ रुपए टाटा समूह की तमाम कंपनियों में लगे हैं। एलआईसी की रकम मूलत: भारत के आम आदमी की ही रकम है। इसके अलावा म्युअचल फंडों की तमाम योजनाओं की करीब 27,000 करोड़ रुपए की रकम भी टाटा समूह की कंपनियों में लगी हुई है। यह पैसा भी भारत के आम निवेशकों का है। कुल मिलाकर यह मसला मिस्त्री बनाम टाटा नहीं है, जनता बनाम टाटा समूह हो गया है। टाटा समूह को समझना चाहिए कि इस मसले को शांति से निपटाया गया, तो ही सबकी भलाई है। तमाम लंबी कानूनी लड़ाइयों से कुछ व्यक्तियों के अहं की तुष्टि भले ही हो जाए, पर कारोबारी सफलताएं नहीं मिलतीं। शुभ संकेत यह है कि टाटा बनाम मिस्त्री विवाद में कुछ मध्यस्थताओं की खबरें भी आ रही हैं। इनके सफल होने में ही सबके हित हैं।

   

छोटी नैनो, बड़ी बहस

छोटी कार नैनो की परियोजना तो ऐतिहासिक परियोजना है। इसने शुरुआत में इतना ध्यान आकर्षित किया कि सबको लगने लगा कि जैसे ही यह कार बनकर बाजार में आएगी, इसके लिए कतारें लगेंगी। टाटा नैनो को जब पहली बार दिखाया गया था, तो इसे इंजीनियरिंग के जादू के तौर पर चिन्हित किया गया था। मीडिया ने भारी दिलचस्पी दिखाई, बस ग्राहक इससे दूर रहे। विडंबना तो यह कि गरीब आदमी की कार, उस मुल्क में पसंद नहीं की गई, जिसमें गरीबों की तादाद बहुत भारी है। कुल मिलाकर नैनो की मार्केटिंग रणनीतियों में समस्याएं थीं। कारोबार में ऐसी समस्याएं आती हैं। जब लगता है कि कारोबारी फैसले गलत हो गए, तब उनसे निजात पाने का रास्ता खोजा जाता है। पर नैनो परियोजना टाटा मोटर्स पर बोझ की तरह लदी रही। इसका कारण भले ही भावनात्मक हो पर इसके नतीजे यह रहे कि टाटा मोटर्स की बैलेंस शीट खराब होती गई।

 

रतन टाटा से सवाल

जून, 2016 में टाटा संस का बोर्ड मिस्त्री की तारीफ कर रहा था, लेकिन चार महीने में ही तमाम दृश्य कैसे बदल गया?

टाटा समूह की शक्ति के दो केंद्र

कैसे बने रहे-एक मिस्त्री और दूसरे रतन टाटा?

आपने खुद को कायदे से सेवानिवृत्त क्यों नहीं किया?

यदि आप टाटा मोटर्स के सफल फैसलों का श्रेय लेते हैं, तो टाटा मोटर्स की विफलताओं का जिम्मा क्यों नहीं लेते?

 

सायरस मिस्त्री से सवाल

इतने शीर्ष पद पर आने के बाद आपका संवाद शीर्ष प्रबंधन के साथ इतना खराब क्यों रहा कि आपको अपनी बरखास्तगी की खबर भी बहुत देर से मिली?

शीर्ष प्रबंधन के साथ संवाद कायम करने में सफल क्यों नहीं हो पाए?

टाटा संस के निदेशक मंडल में आपके पक्ष में बोलने वाला कोई, क्यों नहीं निकला?

अगर आप सब कुछ बढि़या ही कर रहे थे तो टाटा संस के दूसरे निदेशक आपके बढि़या कामकाज को देख क्यों नहीं पा रहे थे

 

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