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वामपंथी साहित्यकारों ने बहुत ही चालाकी से हिन्दी साहित्य पर कब्जा जमाया है। कोई रचना कितनी भी अच्छी हो, यदि उसका रचनाकार वामपंथी नहीं है, तो वह रचना बेकार करार दे दी जाती है। वहीं किसी वामपंथी रचनाकार की घटिया पंक्तियों को भी बहुत अच्छी रचना बताया जाता है और उसके रचनाकार को पुरस्कृत किया जाता है
पीयूष द्विवेदी
आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक अपनी विकास-यात्रा की सहस्राब्दी पूरी कर चुकी हिंदी कविता के भाव, भाषा और शिल्प में भिन्न-भिन्न कालखंडों की परिस्थितियों के अनुसार अनेक परिवर्तन आए हैं। इनमें से सर्वाधिक परिवर्तनों का साक्षी आधुनिक काल ही है। इस काल में हिंदी कविता में परिवर्तनों के यूं तो अनगिनत पड़ाव हैं, पर मुख्यत: भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग, छायावादोत्तर युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और नई कविता, ये सात पड़ाव ही महत्वपूर्ण रहे हैं। इन युगों में हुए परिवर्तनों से होते हुए हिंदी कविता ने आजतक की अपनी यात्रा पूरी की है। लेकिन, वर्तमान हिंदी कविता की जो भी रूप-रेखा है, उसके निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका आधुनिक काल के वामपंथी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिवादी युग और उत्तर-प्रगतिवादी युगों की रही है। नई कविता ने प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कविता के ही सम्मिश्रित और विकसित रूप का निर्वहन किया। इसके बाद हुए अकविता, युयुत्सावादी कविता, बीट कविता, विचार कविता आदि अनेक तथाकथित काव्यान्दोलनों का हिंदी कविता पर अलग ही प्रभाव पड़ा। इन सब युगों से प्रभावित होते हुए बढ़ी हिंदी कविता आज कहां पहुंची है और उसकी दशा-दिशा कैसी है, यह देखने पर अत्यंत निराशा होती है। हम देखते हैं कि हिंदी कविता की मुख्यधारा के वामपंथी विचारधारा से प्रेरित वर्तमान कर्णधारों ने कैसे इसकी छंद, बिंब, तुक, बिम्ब, अलंकार जैसी कसौटियों, जो इसे सहज रूप से संप्रेषणीय बनाती हैं, को मुख्यधारा के काव्य से बाहर कर इसे इस कदर कमजोर और हल्का कर दिया है कि अब इसमंे से 'साधना' का वह तत्व जो कभी इसका प्राण हुआ करता था, विलुप्तप्राय हो गया है।
काव्य-कसौटियों का यह क्षरण एक दिन में नहीं हुआ है, बल्कि इसकी शुरुआत प्रगतिवादी युग (1936) से ही हो गई थी। इस युग में हिंदी कविता को छायावाद के कल्पना संसार से हकीकत की जमीन पर उतार सामाजिक यथार्थ से जोड़ने के नाम पर वामपंथी रचनाकारों द्वारा जिस तरह से इसकी शिल्पगत कसौटियों को एक-एक कर भंग करने की कु-परम्परा का सूत्रपात किया गया, उसी ने हिंदी कविता की वर्तमान दुर्दशा की पृष्ठभूमि का निर्माण किया। इसके बाद तो प्रयोगों के नाम पर हिंदी काव्य-विधानों की चीर-फाड़ का ऐसा दौर चला जो हिंदी काव्य को शिल्प और भाव-सौन्दर्य से एकदम हीन करता गया। प्रश्न यह है कि जिस युगीन सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए प्रगतिवादी यानी वामपंथी कवियों ने हिंदी कविता की पारंपरिक शिल्पगत कसौटियों का निरंकुश विनाश किया, उसकी अभिव्यक्ति क्या शिल्पगत मर्यादाओं में रहते हुए संभव नहीं थी? बिल्कुल संभव थी, बल्कि प्रगतिवादी कविता के लगभग समानान्तर ही ऐसी कविता हो रची जा रही थी, जिसे छायावादोत्तर कविता से परिभाषित किया जाता है। राष्ट्रकवि दिनकर से लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंश राय बच्चन नरेन्द्र शर्मा और भगवती चरण वर्मा तक हिंदी साहित्य के अनेक महान हस्ताक्षर इसी छायावादोत्तर युग की थाती हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन कवियों ने प्रयोग नहीं किए। इन्होंने भी खूब प्रयोग किए, मगर वे प्रयोग प्रगतिवादियों की तरह निरंकुश और विनाशकारी नहीं, मर्यादित और रचनात्मक थे। अगर प्रगतिवादी और छायावादोत्तर कविता में तत्कालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति के स्वरों की मुखरता का दोनों धाराओं की कविताओं के द्वारा तुलनात्मक मूल्यांकन करें तो प्रगतिवादी धारा के धुर वामपंथी कवि केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता 'जन-क्रांति' में लिखते हैं, ''राख की मुर्दा तहों के बहुत नीचे, नींद की काली गुफाओं के अंधेरे में तिरोहित, मृत्यु के भुज-बंधनों में चेता नाहत, जो अंगारे खो गए थे पूर्वी जन-क्रांति के, भूकंप ने उनको उबारा और वह दहके सबल शस्त्रास्त्र लेकर, रक्त के शोषक विदेशी शासकों पर, और देशी भेडि़यों पर।''
अब लगभग इसी तरहकी जन-क्रांति की हुंकार भरती छायावादोत्तर युग के कवि दिनकर की कुछ पंक्तियां भी देखें, ''सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, उठो, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।'' इन दोनों कविताओं के कथ्य का मूल-भाव लगभग एक है, लेकिन पहली कविता जहां हिंदी काव्य के पारंपरिक शिल्प-विधान को ध्वस्त करते हुए लिखी गई है तो वहीं दूसरी उस विधान का सम्मान करते हुए। दोनों कविताओं में श्रेष्ठ कौन है, इसका प्रमाण यही है कि दिनकर की ये पंक्तियां जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन का नारा ही बन गई थी। जबकि केदारनाथ अग्रवाल की इस पंक्तियों का काव्य प्रेमियों को भी शायद ही आज स्मरण हो। निष्कर्ष यही कि अगर कवि में साधने की योग्यता हो और वह वाद के खूंटे से न बंधा हो तो हिंदी कविता के पारंपरिक शिल्प-विधान में वह सब कुछ कहने की सामर्थ्य निहित है, जिसके लिए प्रगतिवादी कवियों ने उसमें तोड़-फोड़ करके उसका विनाश कर दिया। वस्तुत: वामपंथी विचारधारा से पूर्णत: प्रभावित प्रगतिवादी कवि जब हमारी कविता के पारंपरिक शिल्प को साध न सके तो अपनी विफलता को छुपाने के लिए उन्होंने साध्य ही बदल दिया। आज काव्य-कसौटियों की रिक्तता के फलस्वरूप स्थिति यह है कि कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ भानुमती के कुनबे जैसी आठ-दस पंक्तियां लिख कोई भी कवि या कवयित्री हो जाता है और फिर हिंदी कविता के वामी कर्णधारों द्वारा ऐसी ही 100-50 कविताओं में से देर-सवेर किसी एक रचना को पुरस्कृत कर उसे श्रेष्ठ समकालीन कविता के रूप में स्थापित भी कर दिया जाता है। इसके पीछे अनेक कारण होते हैं,जैसे कि पुरस्कृत कवि, कवयित्री पर निर्णायकांे का कोई विशेष और गुप्त स्नेह, वाम विचारधारा के रचनाकारों को स्थापित करवाना आदि। तिस पर सम्बंधित रचनाकार की कविताओं में अगर कुछ हिन्दू विरोधी तत्व हों तब तो वामी निर्णायक मंडल द्वारा उसे पुरस्कृत किए जाने की संभावना प्रबलतम हो जाती है। हिंदी काव्य सम्मान और पुरस्कारों का हालिया इतिहास टटोलने पर ही इन बातों के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।
उदाहरण के रूप में देखें तो विगत दिनों भारत भूषण अग्रवाल सम्मान की घोषणा हुई। इस बार यह सम्मान कथित युवा कवयित्री शुभमश्री को उनकी कविता 'पोएट्री मैनेजमेंट' के लिए देने का ऐलान किया गया। इसके बाद से सोशल मीडिया पर लेखकों-कवियों और विचारकों के बीच इस पर काफी विवाद छिड़ा। बहुधा वरिष्ठ कवि और लेखक इस कविता को बकवास करार देते हुए इस पुरस्कार के विरोध में रहे तो इस पुरस्कार को देने वाली निर्णायक मंडली से प्रभावित कई कवि-लेखक इसे सही सिद्ध करने में संकल्पित नजर आए। शुभमश्री की जिस कविता को यह सम्मान देने की घोषणा हुई, उसकी बात करें तो उसकी पंक्तियों को अगर क्रमबद्ध ढंग से रख दिया जाए तो यह पुरस्कृत कविता तुरंत गद्य का रूप ले लेगी।
मतलब यह कि उसमें कविता जैसा कुछ नहीं है, सिवाय टूटी-फूटी पंक्तियों के। लेकिन, प्रयोगों के नाम पर हिंदी कविता का विनाश करते आए वामपंथी कवियों को इसमें भी एक नए तरह का काव्य-प्रयोग नजर आ रहा है। संभवत: इसीलिए इसे उनके वैचारिक आधिपत्य वाले निर्णायक मंडल द्वारा भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से नवाजा गया है। कारण वही कि शुभमश्री उसी विचारधारा की हैं, जैसा कि उनकी कविताओं से जाहिर होता है, जिस विचारधारा का इस सम्मान का निर्णय करने वाला निर्णायक मंडल था। तिस पर शुभमश्री ने 'वीणावादिनी, सुनो बेबी' जैसी हिन्दू आस्था पर कुठाराघात करने वाली एक कथित कविता भी लिखी है। इस कारण वामी निर्णायकों द्वारा उन्हें सम्मानित करना अनिवार्य ही हो गया था। बहरहाल, इस तरह की कथित कविताओं को खारिज करने पर इनके पक्षधर दो-तीन पुराने और बड़े कवियों के रटे हुए नामों का उदाहरण देने लगते हैं। वे कहते हैं कि निराला और मुक्तिबोध को भी उनके समकालीनों ने खारिज किया था, पर आज उनका काव्य स्वीकृत और स्थापित है। उनके ऐसा कहने से यही प्रतीत होता है कि शायद उन्होंने निराला को पढ़ा और समझा ही नहीं है, वरन् आज के इस 'पोएट्री मैनेजमेंट' के बचाव में वे उन्हें खर्च करने का साहस तो कम से कम नहीं करते।
निराला का काव्य बहुधा छंद-मुक्त अवश्य है, किन्तु उसमें भी अन्तर्निहित लय है, जिससे उसकी छंद-मुक्तता का कहीं आभास नहीं होता। निराला ने छंद-मुक्तता को काव्य-साधना से बचने के लिए नहीं अपनाया था, बल्कि उन्होंने एक अलग प्रकार की काव्य-साधना का मानक स्थापित किया। रहे मुक्तिबोध तो जरा गौर कीजिए कि आज कितने काव्य-प्रेमियों को मुक्तिबोध की आधा दर्जन कविताओं की कुछ पंक्तियां भी कंठस्थ होंगी? जिसकी कविता सहज ही जनमानस को संप्रेषित भाव से विभोर न कर सके, वह किस बात का कवि!
मुक्तिबोध की कविता का कथ्य तो शानदार है, प्रतीक भी अनूठे हैं, लेकिन केवल एक लय और संगीत को छोड़ने की वजह से वे तब भी स्वीकृत नहीं हो पाए थे और आज भी सिर्फ उस विचारधारा, जिसके वे वाहक थे, की बौद्धिक चारदीवारी तक ही स्वीकृत और सीमित हैं। अब बिना लय और संगीत के कोई रचना और कुछ तो हो सकती है, पर कविता नहीं। किन्तु दुयार्ेग कि स्वनामधन्य वामपंथी रचनाकारों की बौद्धिक चौकड़ी से घिरी मुख्यधारा की हिंदी कविता आज अतुकांत और छंद-मुक्ति के नाम पर दिन-प्रतिदिन शुष्क और नीरस रूप लेती जा रही है। इस स्थिति को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर इस बौद्धिक चौकड़ी से समय रहते हिंदी कविता को आजाद नहीं किया गया तो आने वाले दशकों में कविता के नाम पर हिंदी के पास सिर्फ और सिर्फ गद्य का भण्डार ही
रह जाएगा।
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