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7 नवंबर से मोरक्को में पर्यावरण पर शिखर सम्मेलन शुरू हुआ। दुनिया भर के विकसित और विकासशील देश वातावरण में बढ़ते कार्बन के जहर पर मात्र चिंता जताकर रह जाते हैं। ऐसे में भारत की धारणक्षम जीवनशैली अपनाने की सलाह वक्त की जरूरत है, जिसके लिए कई देशों की सहमति बनी है
भगवती प्रकाश
र्यावरण की रक्षार्थ 4 नवंबर, 2016 से पेरिस समझौते के प्रभाव में आने व लगभग 100 देशों द्वारा इसके अनुमोदन के बाद 7-18 नवंबर तक जलवायु परिवर्तन पर मोरक्को के मर्राकेश नगर में यह 22वां पक्षकार सम्मेलन हो रहा है। इस सम्मेलन में लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा 2015 के पेरिस समझौते की क्रियान्विति सहित जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए कई अहम निर्णय लिये जाने हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु परिवर्तन पर प्रतिवर्ष आयोजित किये जाने वाले इस सम्मेलन में इस बार सन् 2020 से पेरिस समझौते के क्रियान्वयन की रूपरेखा के साथ ही उसके पूर्व भी, अभी से 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के नियंत्रण के उपायों पर बल दिया जायेगा। भारत सहित लगभग 100 देशों द्वारा अपेक्षा से पहले इस समझौते के अनुमोदन से जलवायु परिवर्तंन पर नियंत्रण के प्रति विश्व अब अत्यंत आशावान है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विशेष प्रयासों से पिछले वर्ष पेरिस समझौते में 'धारणक्षम जीवनशैली' के मुद्दे को स्थान मिलने से इस बार भारत द्वारा धारणक्षम जीवनशैली अपनाने पर समुचित बल दिया जा सकेगा।
पर्यावरण संरक्षण पाश्चात्य उपभोग केन्द्रित व ऊर्जा भक्षी जीवनशैली के स्थान पर मितभोगी जीवनशैली अपनाने से ही संभव है। आज जहां भारत में प्रति व्यक्ति विद्युत उपयोग 1000 किलोवाट हावर वार्षिक से बहुत कम है, वहीं अमेरिका व यूरोप में विद्युत उपयोग 12-13000 किलोवाट हावर है। धारणक्षम जीवनशैली के मुद्दे के अतिरिक्त भारत मर्राकेश में स्वच्छ पर्यावरण कोष और विकासशील देशों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के मुद्दों पर विशेष बल देगा।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन के रूप में होने वाले पक्षकारों के इस 22वें वार्षिक सम्मेलन (सी़ ओ़ पी़ 22) के साथ-साथ मर्राकेश में इस वर्ष यह क्योटो प्रोटोकाल के पक्षकारों की बैठक का बारहवां सत्र भी होगा और पेरिस समझौते के अनुमोदनकर्त्ता लगभग 100 पक्षकारों का भी प्रथम सत्र (सी़ एम़ ए़ -1) अलग से संपन्न होगा।
हिमालय में बढ़ता तापमान
वस्तुत: अक्तूबर 5 तक न्यूनतम आवश्यक संख्या (55 प्रतिशत) में राष्ट्रों द्वारा पेरिस समझौते का अनुमोदन हो जाने से पेरिस समझौता 4 नवंबर से प्रभावी हो गया है। भारत द्वारा भी 2 अक्तूबर को इसे अनुमोदित कर देने से वह भी इस पेरिस समझौते के अनुमोदनकर्त्ता राष्ट्रों के प्रथम सम्मेलन सी़ एम़ ए़ -1 से ही सक्रिय भूमिका वाला देश होगा। विकासशील राष्ट्रों की सशक्त आवाज होने के साथ ही भारत इस बार हिमालय के जलवायु परिवर्तन पर विश्व का ध्यान केन्द्रित करवाने के लिये इस मुद्दे पर एक अलग सत्र आहूत करेगा। हिमालय की जलवायु, वैश्विक जलवायु परिवर्तन से भी द्रुत गति से बदल रही है। यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है। हिमालय से प्राप्त 10 नदियों का जल विश्व के 11 देशों की जनसंख्या के लिये जीवन का आधार है। विश्व का तापमान यदि इसी प्रकार बढ़ता रहा तो हिमालय के सभी हिमनद पिघल सकते हैं। तब गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र व सिंधु जैसी नदियां मौसमी हो जाएंगी। तब 12 माह इन हिमनदों से प्राप्त होने वाला जल समाप्त हो जायेगा और इनमें पानी केवल वर्षा ऋतु में ही बह सकेगा।
इसलिये जलवायु परिवर्तन पर हो रहे इस सम्मेलन व इसके पूर्ववर्ती पेरिस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य, जो विश्व के औसत तापमान को औद्योगिक युग के पहले के तापमान से 2 डिग्री की सीमा में रखने का है, अत्यंत महत्वपूर्ण है। विश्व के जलवायु विशेषज्ञों व सभी वैज्ञानिकों का एक मत से कहना है कि सम्पूर्ण विश्व को जबरदस्त तूफानों, सूखे और समुद्र के स्तर में बढ़ोत्तरी जैसे खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाने और अनेक सामुद्रिक द्वीपों व समुद्र तटीय देशों को जलमग्न होने से बचाने के लिए तापमान का नियंत्रण अनिवार्य है।
उत्सर्जन में कटौती जरूरी
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार कार्बन युक्त ईंधन यथा कोयला, पेट्रोल व डीजल का उपभोग परिवहन, खेती-बाड़ी और रिहाइश के लिए जंगल काटने से जो ग्रीन हाउस गैसें बनती व बढ़ती हैं, वे ही इस तापमान वृद्धि की वजह हैं। ये गैसें, जिनमें कार्बन डाई ऑक्साइड प्रमुख है, सूर्य की गर्मी को सोख लेती हैं और इस तरह वातावरण को तापमान को बढ़ाती हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि ये गैसें ही जलवायु परिवर्तन की मुख्य वजह हैं इसलिए जरूरी है कि करार पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देश अपने यहां कार्बन डाई ऑक्साइड व अन्य गैसों के उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कटौती करें।
इस अनुबंध को लागू कर इन गैसों के उत्सर्जन में कटौती करना विश्व के लिये बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि कोयला, पेट्रोल, गैस जैसे जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती करने का सीधा असर देश के उत्पादन, अन्तरराष्ट्रीय व्यापार, उपभोग व अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। लेकिन विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि पारंपरिक ईंधन के स्थान पर साफ व नए ईंधन के उपयोग की ओर बढ़ना दीर्घ काल में काफी सस्ता, लाभप्रद और टिकाऊ होगा। अल्पकाल में इस पर अनुसंधान व ऐसी प्रौद्योगिकी के विकास में भारी लागत आयेगी, लेकिन सम्पूर्ण मानवता व जीव सृष्टि को बचाने के लिये यह अति आवश्यक है। तथापि पेरिस जलवायु समझौते के अब अंतरराष्ट्रीय कानून बन जाने से जिन देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं, उन्हें कार्बन डाई ऑक्साइड में कटौती करने के अपने-अपने वायदे के अनुरूप इसे कम करना ही होगा। पेरिस समझौते पर 197 देशों ने दिसंबर 2015 में हस्ताक्षर किये थे। उनमें से 100 देशों ने इसका अनुमोदन कर दिया है। इन देशों ने जहां आवश्यक था, इसे अपनी विधायिका से पारित करवा लिया है।
चिंता सबकी साझी
लेकिन यह समझौता स्वयमेव ही कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं है। यह हस्ताक्षर करने वाले देशों की इच्छा पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन सचिवालय ने 1990 के दशक के शुरू से ही कई दौर की बातचीत आयोजित की है। उसके अधिकारी हर देश के कामकाज की समीक्षा भी करेंगे। लेकिन यह कैसे किया जाएगा, यह अभी भी तय नहीं है। मोरक्को में चल रहे जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इस पर बातचीत की जाएगी और नियम-कानून तय किए जाएंगे। सम्मेलन की कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया एसपीनोजा और मोरक्को के विदेश मंत्री सलाहेदीन मजूआर की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि वर्ष 2018 तक यह काम पूरा हो जाना चाहिए। इन सारे प्रयासों के बाद भी पेरिस समझौते के अन्तर्गत राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों से पूर्ण प्रतिबद्धता के बाद औद्योगिकीकरण के प्रारम्भ के तापमान से 1़5 डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य की सीमा में तापमान को नियंत्रित करना असंभव है। इसके लिये सभी देशों को नयी वचनबद्धतायें देनी होंगी, जो आसान नहीं है।
3 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि स्वेच्छा से कटौती करने के अब तक प्राप्त प्रस्तावों से तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस नीचे रखने में मदद नहीं मिलेगी। यह भी कहा गया है कि इन योजनाओं से साल 2030 में सुरक्षित स्तर से 25 प्रतिशत अधिक गैस उत्सर्जन होगा। इससे तापमान 3.4 डिग्री बढ़ जाएगा। इसीलिये संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सभी देशों से कहा गया है कि वे कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य बढ़ाएं।
भयावह स्थिति
गत दिनों ही विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने भी चेतावनी दी है कि वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर 400 पीपीएम से ज्यादा हो चुका है जो कई पीढि़यों तक कम नहीं हो सकेगा। उसने यह भी कहा कि 2016 में पहली बार पूरे साल यह स्तर से ऊपर रहेगा। 4 नवंबर से पेरिस समझौता लागू होने के एक दिन पहले ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि ग्रीन हाउस गैसों का स्तर सीमा से एक चौथाई ज्यादा होने ही वाला है। यह भी कहा गया है कि औद्योगिक युग के पहले के तापमान से 2 डिग्री कम का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये जितनी कम ग्रीन हाउस गैस छोड़ी जानी चाहिए, उससे 2030 तक 12 से 14 गीगाटन अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होगा।
औद्योगिकीकरण के पूर्व के स्तर से विश्व का तापमान 1 डिग्री सेण्टीग्रेड तो बढ़ ही चुका है। केवल आधा डिग्री तापमान वृद्धि से ही विश्व के कुछ भागों में अति भयावह परिणाम प्रकट होंगे। वैज्ञानिकों का स्पष्ट कथन है कि पेरिस संधि में तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के जो लक्ष्य घोषित किए गए हैं उनकी ठीक क्रियान्विति हो जाने के बाद भी विश्व तापमान में 2 डिग्री वृद्धि तो हो ही जायेगी। इसीलिये पेरिस समझौते में इन लक्ष्यों की दृढ़तापूर्वक समीक्षा करनी होगी।
चीन समझे जिम्मेदारी
वस्तुत: विश्व को सारी घातक ग्रीन हाउस गैसों से मुक्त कराने के लिये खरबों डॉलर व्यय करने पड़ेंगे। इसके लिये 2009 के कोपेनहेगेन सम्मेलन में औद्योगिक देशों ने 100 अरब डालर वार्षिक जुटाने की बात भी की थी। इसके लिये कोष भी बना है। लेेकिन उसमें धनी देशों ने नाम मात्र का योगदान दिया है। चूंकि अब तक अधिकांश कार्बन उत्सर्जन औद्योगिक देशों व चीन ने ही किया है।
भारत का प्रति व्यक्ति सालाना उत्सर्जन आधे से एक टन के बीच रहा है जबकि औद्योगिक देशों का उत्सर्जन 12-17 टन प्रति व्यक्ति रहा है। आज चीन सर्वाधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। चीन अमेरिका के सकल कार्बन उत्सर्जन का ढाई गुना पैदा करता है। इसलिये जलवायु न्याय के सिद्धांत पर इन सभी देशों द्वारा फैलाये प्रदूषण की मौद्रिक क्षतिपूर्ति के रूप में स्वच्छ पर्यावरण कोष व अनुसंधान की लागत भी वहन करनी चाहिये। इस दृष्टि से भारत को मोरक्को के जलवायु सम्मेलन में कोष निर्माण व प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण के मुद्दों पर दृढ़ रुख दिखाना होगा।
हमें गांधी जी की तरह साधारण जीवन जीना चाहिए। यानी धारणक्षम जीवनशैली अपनानी चाहिए। यही समय की मांग है। आज दुनिया एक वैश्विक समाज ही है। इसलिए पर्यावरण के संरक्षण के लिए साझी आवाज उठनी चाहिए। भारत पर्यावरण परिवर्तन से होने वाले नुकसान को लेकर सचेत है और इसके विरुद्ध पर्याप्त कदम उठा रहा है।
-अनिल माधव दवे
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री, भारत
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