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महाराष्ट्र में मंदिरों में महिलाओं को पूजा-अर्चना करने का अधिकार दिलाने के अभियान का नेतृत्व कर रहीं तृप्ति देसाई ने कुछ समय पहले मांग की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महिलाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, भारतीय जनता पार्टी को महिलाओं के वोटों के कारण ही सत्ता मिली है। महिलाओं को संघ का सदस्य बनने की अनुमति मिलनी चाहिए। तृप्ति ने कहा कि नर-नारी समानता के अपने अभियान के तहत वे सरसंघचालक मोहनराव भागवत को इस मुद्दे पर पत्र लिखेंगी। तृप्ति ने जब यह बयान जारी किया तो बहुत-से लोगों को उनके इस बयान को पढ़कर उनके सामान्य ज्ञान पर हंसी आई होगी, क्योंकि सभी को यह ज्ञात है कि कि संघ के मार्गदर्शन में राष्ट्र सेविका समिति पिछले 80 वर्ष से महिलाओं को संगठित करने के लिए कार्य कर रही है। वह न केवल राष्ट्रव्यापी वरन् देश का सबसे बड़ा महिला संगठन है और उसकी अपनी अलग पहचान है। अचरज की बात यह है कि महिला आंदोलन की नेता होने के बावजूद तृप्ति को या तो इस बात की जानकारी ही नहीं थी या फिर सस्ती लोकप्रियता के लिए उन्होंने यह मांग उछाल दी। तृप्ति की मांग को पूरी तरह खारिज करते हुए भाजपा की महाराष्ट्र इकाई की उपाध्यक्ष कांता नलावडे ने कहा कि उन्हें अपनी ऊर्जा महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर खर्च करनी चाहिए न कि 'हास्यास्पद' मांगों पर।
पिछले लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सवाल उठाया कि आर.एस.एस. में महिलाओं के लिए कोई जगह क्यों नहीं है? राहुल ने भाजपा पर आरोप लगाया कि विपक्ष महिलाओं की इज्जत नहीं करता। राहुल के बाद समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल ने भी कहा कि भाजपा वाले यही बता दें कि आर.एस.एस. में महिलाएं क्यों नहीं हैं?
दरअसल, हमारे नेता वोट के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहां तक कि तथ्यों को भी वे तोड़-मरोड़ सकते हैं। ये लोग रा़ स्व़ संघ को महिला विरोधी करार देने के लिए इस तथ्य की भी अनदेखी कर देते हैं कि संघ परिवार से जुड़ा महिला संगठन राष्ट्र सेविका समिति पिछले 80 साल से कार्यरत है जब ये नेता पैदा भी नहीं हुए थे। लेकिन इन लोगों को केवल वही संगठन याद रहते हैं जो रोजाना अखबारों और टीवी की सुर्खियों में रहते हों या बात-बेबात बयानबाजी करते हों।
जो लोग संघ के चिंतन से परिचित हैं, भले ही वे विरोधी क्यों न हों, इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते कि सारे हिन्दू समाज को संगठित करने के उद्देश्य के लिए समाज के दूरदराज तक के वगार्ें को साथ लेकर चलने वाला संघ अपने 91 वर्ष के जीवन में हिन्दू समाज की आधी आबादी यानी महिलाओं को भूल गया होगा। शायद कम लोग इस बात को जानते होंगे कि संघ के तमाम सहयोगी संगठनों की जो लंबी शृंखला है। उसमें पहला नाम राष्ट्र सेविका समिति का है। इसकी स्थापना 1936 में हुई थी और जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही तरह हिन्दू संगठन और चारित्र्य निर्माण का कार्य करती है। मगर दोनों के क्षेत्र अलग-अलग हैं। संघ पुरुषों के बीच यह कार्य करता है, तो राष्ट्र सेविका समिति महिलाओं के बीच। दोनों का काम भले ही एक हो मगर महिलाओं में काम करना हमारे समाज में कुछ ज्यादा ही कठिन है। महिलाओं का बहुत बड़ा तबका है जो घर की चारदीवारी और चौका-चूल्हा करने को ही अपना सर्वस्व मानकर चलता है। युवतियों पर भी कई पारिवारिक बंदिशें होती हैं। इन सीमाओं के बीच काम करना आसान नहीं है। इसलिए समिति का काम करना कांटों भरे रास्ते पर चलना है। मगर यह कार्य करते हुए समिति इस वर्ष 80 साल पूरे कर रही है। हिन्दू धर्म के मुताबिक जिस व्यक्ति के 80 वर्ष पूरे हो जाते हैं, वह पूर्णिमा के 1000 चंद्र देख लेता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सहस्र चंद्र दर्शन का उत्सव किया जाता है। यह वर्ष समिति के सहस्र चंद्र दर्शन के उत्सव का वर्ष है। जिस तरह पूर्णिमा का चंद्रमा संसार को शीतल प्रकाश देता है, उसी तरह राष्ट्र सेविका समिति अपने समाज जागरण और सेवा कायार्ें से हिन्दू समाज को शीतल प्रकाश दे रही है।
राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की कहानी कम दिलचस्प नहीं है। कुछ लोग सोचते होंगे रा.स्व. संघ के पुरुष अधिकारियों ने तय किया और समिति की शाखा लगने लगी,दक्ष आरम होने लगा। लेकिन हकीकत कुछ और है। समिति की संस्थापिका श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर, जो मौसीजी के नाम से जानी जाती हैं, विवाह के बाद वर्धा में महात्मा गांधी के आंदोलन से बहुत प्रभावित हुईं। गांधी जी के आश्रम में प्रार्थना सभा में सम्मिलित होना तथा चरखा कातना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। किन्तु इससे भी उनकी जिज्ञासा और समस्या का समाधन नहीं हो पा रहा था। वे सोचती रहीं कि राष्ट्र-निर्माण में महिलाओं की भूमिका पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? गांधी जी का यह कथन कि 'सीता के जीवन से राम का निर्माण होता है', स्वामी विवेकानन्द के विचार कि, 'स्त्री-पुरुष पक्षी के दो पंखों के समान हैं', भगिनी निवेदिता का यह वाक्य कि, 'जिनके मन में भारत माता के प्रति श्रद्धा है, वे लोग निर्धारित समय, निर्धारित स्थान पर एकत्रित होकर भारत माता की प्रार्थना करते हैं, तो वहां से शक्ति का स्रोत फूटता है'- ये उद्गार उनके मन में गूंजते रहते थे। इन सभी ने उनके मन में संगठन की प्रेरणा जगाई, किन्तु रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए? इसी दौरान वर्धा में संघ का कार्य शुरू हो चुका था। लक्ष्मीबाई के बेटे संघ की शाखा में जाने लगे। संघ शाखा में जाना शुरू करने के बाद लक्ष्मीबाई की समझ में आ गया कि उनके पुत्रों में बहुत बड़े बदलाव आए हैं।
उनके बच्चे अधिक विवेकशील एवं प्रगल्भ बने हैं, उनमें अच्छे संस्कार आ रहे हैं। यह देखकर लक्ष्मीबाई के मन को बहुत ही सन्तोष हुआ। उन्होंने संघ की शाखा में निश्चित रूप से क्या काम होता है, यह जानने के लिए शाखा में आने की इच्छा जताई। वे अपने पुत्रों के साथ शाखा में आईं और यहां का कार्य देखकर बहुत अधिक प्रभावित हुईं। उसके बाद उन्होंने नागपुर जाकर सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार से मुलाकात की। संघ की स्थापना के पीछे रहने वाली प्रेरणा और संघ के ध्येय एवं नीतियों के बारे में लक्ष्मीबाई ने जानकारी ली। यह अद्भुत कार्य है- ऐसा लक्ष्मीबाई ने कहा। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने डॉ. हेडगेवार से कह दिया कि इस कार्य में मैं भी शामिल होना चाहती हूं। डॉक्टर जी के मार्गदर्शन से उन्हें राह मिल गई। उस समय महिलाओं में संघ कार्य का प्रसार करने की जरूरत थी। इसलिए डॉक्टर हेडगेवार ने उन्हें सलाह दी कि इसके लिए आप स्वतंत्र संगठन का निर्माण कीजिए।
यह सन् 1936 की घटना है। उस समय महिलाओं के विकास और प्रगति के लिए बहुत बड़े कार्य की जरूरत थी। इसलिए डॉक्टर साहब ने उन्हें महिलाओं के बीच काम करने के लिए कहा और सलाह दी कि इसके लिए आप स्वतंत्र संगठन का निर्माण कीजिए, उस कार्य के लिए मेरा संपूर्ण सहयोग रहेगा।
समिति के काम करने की विशेषता यह रही कि उसने कई बातें संघ की अपनाईं तो कई अपनी तरफ से जोड़ीं। समिति ने संघ की शाखा की कार्यपद्धति अपनाई। आज सारे भारत में समिति की 2781 नियमित शाखाएं चलती हैं। उसमें कार्यरत महिला कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 3,00000 है। कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता बढ़ाने के लिए समय-समय पर सम्मेलन, शिविर, वर्ग इत्यादि कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
समिति की नागपुर शाखा की संचालिका काकू परांजपे ने सेविकाओं को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया, ''राष्ट्र की रक्षा करने से पहले हमें अपने स्त्रीत्व की रक्षा करना बहुत ही आवश्यक है। इसीलिए समिति की शाखाओं में महिलाओं को शारीरिक दृष्टि से सक्षम बनाने पर विशेष रूप में जोर दिया जाता है।''
महिलाओं को मैदानी खेल और योगचाप, दंड, छुरी, खड्ग आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। इससे शारीरिक क्षमता का विकास होता है और महिलाओं का आत्मविश्वास भी बढ़ता है। समिति की कुछ सेविकाएं तो विजयादशमी के दिन, घोड़े पर सवार होकर, हाथ में भगवा ध्वज लेकर संचलन का नेतृत्व करती हैं। ये सारी बातें सेविकाएं दैनिक और साप्ताहिक शाखाओं में सीखती हैं।
समिति की आराध्य अष्टभुजा देवी हैं। 1953 में समिति ने 'स्त्री जीवन विकास परिषद' का आयोजन किया था। उसमें समिति की संस्थापिका मौसी जी ने कहा था, ''इस जगत्जननी में प्रेरणा देने की, संरक्षण, संवर्धन करने और संहार करने की भी शक्ति है। इस बात को हमें कभी भी नहीं भूलना चाहिए। हमें भी हर महिला में निहित इन सद्गुणों की रक्षा करनी होगी।'' सम्मेलन में महिलाओं की शिक्षा के लिए जीवन समर्पित करने वाले महर्षि धोंडो केशव कर्वे और स्त्री-शरीरशास्त्र के डॉक्टर मुस्कर उपस्थित थे। इसमें महिलाओं के सर्वांगीण विकास के बारे में मार्गदर्शन किया गया। डॉक्टर मुस्कर ने बताया कि महिलाओं का शारीरिक दृष्टि से मजबूत होना क्यों आवश्यक है। और उन्हें किस तरह के व्यायाम करने चाहिए, इस बारे में मार्गदर्शन किया था। समिति आज भी उस पर अमल करती है।
इसके अलावा राष्ट्र सेविका समिति अपने सेवा कायार्ें के जरिए आदशार्ें को मूर्तरूप देने की कोशिश करती है। आज समिति द्वारा 751 सेवा प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। इनमें छात्रावास, शिक्षा, आरोग्य संस्कार केंद्र, स्वयंसहायता, पुस्तकालय, झूलाघर, स्वदेशी वस्तु भंडार इत्यादि उपक्रम शामिल हैं। ये सेवा योजनाएं सारे देशभर में यहां तक कि उत्तर-पूर्व के सुदूर क्षेत्रों तक भी फैली हुई हैं।
राष्ट्र सेविका समिति के नाम में ही सेवा अंतर्निहित है। सेवा करने वाली वह सेविका। समिति की कार्ययोजना में भी सेवा का विशेष महत्व है। राष्ट्र सेविका समिति अपने सेवा कायार्ें के जरिए आदशार्ें को मूर्तरूप देने की कोशिश करती है। राष्ट्र की सेवा, राष्ट्र की देहरूपी भूमि, वहां रहने वाले लोगों की सेवा। इसके अलावा समिति का उद्देश्य और कार्य समाज तक तेजी से पहुंचाने के लिए सेविका प्रकाशन, अनेक विषयों पर आधारित चित्र प्रदर्शनी, दिनदर्शिका, ऑडियो/व्हीसीडी, पावर प्वाइंर्ट प्रेजेन्टेशन इत्यादि का निर्माण किया जाता है। अध्येता नम्रता रविचंद्र गन्नेरी अपने शोधपत्र 'सिस्टरहुड ऑफ सेफ्रन' में कहती हैं, ''सेवा और संगठनात्मक कायार्ें का समन्वय उनकी गतिविधियों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। लचीलापन और विभिन्न क्षेत्रों में काम करने की क्षमता इस संगठन की शक्ति है। रा़ स्व़ संघ के सहयोगी संगठन के कारण इसके सदस्य विभिन्न वगार्ें और समुदायों से जुड़े हुए हैं।''
समिति की विचारधारा और अनोखी कार्यपद्धति उसे आज के बाकी महिला संगठनों से अलग बनाती है। उसकी संस्थापिका लक्ष्मीताई केलकर ने अपनी इस दृष्टि को बार-बार स्पष्ट किया था ताकि किसी दुविधा की गुंजाइश ही न रह जाए। उनका कहना था, ''समाज का एक महत्वपूर्ण घटक होने के नाते स्त्री का परिवार-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान है। एक महिला के संस्कारित होने से पूरा परिवार संस्कारित होता है।'' जहां अन्य महिला संगठन अपने अधिकार के बारे में, अपनी प्रतिष्ठा के बारे में महिलाओं को जागरूक बनाते हैं, वहीं राष्ट्र सेविका समिति बताती है कि राष्ट्र का एक घटक होने के नाते एक मां का क्या कर्तव्य है? समिति उन्हें जागृत कर उनके अंदर छिपी राष्ट्र निर्माण की क्षमता का साक्षात्कार कराती है। साथ ही अपनी परंपरा के अनुसार परिवार-व्यवस्था का ध्यान रखते हुए उन्हें राष्ट्र निर्माण की भूमिका के प्रति जागृत करती है। समिति का ध्येय है कि महिला का सवार्ेपरि विकास हो किन्तु उसे इस बात का भी एहसास होना चाहिए कि उसका यह विकास, गुणवत्ता और क्षमता देश की उन्नति में कैसे काम आ सकती है।
इस तरह मौसी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति से प्रेरणा लेकर राष्ट्र सेविका समिति का कार्य प्रारंभ किया। आज भले ही मौसी जी नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा लगाया गया पौधा विशाल वृक्ष बन चुका है। पहले राष्ट्र सेविका समिति की केवल शाखाएं लगती थीं किन्तु आज समिति द्वारा बहुमुखी कार्य किए जा रहे हैं। समिति के अनेक सेवा प्रकल्प हैं, जैसे-छात्रावास, चिकित्सालय, उद्योग-मन्दिर, भजन मंडल, पुरोहित वर्ग आदि। राष्ट्र सेविका समिति का कार्य केवल भारत में ही नहीं, बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका, मलेशिया, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका सहित 10 देशों में फैला हुआ है। इन देशों में समिति की अनेक सेविकाएं सक्रिय हैं और वहां कई तरह की सेवा योजनाएं चलाती हैं। समिति की सोच है प्रत्येक स्त्री दुर्गा का रूप है। उसे अपनी शक्ति पहचानने की आवश्यकता है। उसके इन गुणों को विकसित करने के लिए उचित वातावरण की आवश्यकता है। समिति अपनी शाखाओं में यह वातावरण देने की कोशिश करती है। समिति की शाखा ऐसी दृढ़निश्चयी कार्यकर्ताओं के निर्माण की कार्यशाला है।
समय के साथ समिति के कार्यों का बहुत तेजी से फैलाव हुआ। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई। उसमें राष्ट्र सेविका समिति की सेविकाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। लेकिन इस समय तक समिति का कार्य भारत के सभी प्रांतों में शुरू हो चुका था। गांधी जी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाई गई। दरअसल, संघ का इस हत्या से कुछ भी ताल्लुक नहीं था, फिर भी समिति के कार्य में कई बाधाएं पैदा की गईं। इसलिए कुछ समय तक समिति के काम को रोकना पड़ा।
1949 में संघ पर लगा प्रतिबंध हटा। इसके बाद समिति का काम भी शुरू हो गया। 1950 में समिति ने अष्टभुजा देवी का उत्सव मनाया। इसमें बड़ी संख्या में सेविकाएं तथा अन्य महिलाएं भी सम्मिलित हुई थीं। समिति ने केवल रोजाना शाखा लगाकर, गीत और प्रार्थना गाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझी। जब-जब देश पर प्राकृतिक संकट आया, तब-तब समिति की सेविकाओं ने संघ के स्वयंसेवकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेवा कार्य किया। चाहे लातूर का भूकंप हो या मोरबी की बाढ़, कांडला का समुद्री तूफान, भोपाल में हुई गैस त्रासदी इन सारी आपदाओं के समय समिति की सेविकाएं भी सेवा करने दौड़ी थीं। जम्मू-कश्मीर के विस्थापित हिन्दुओं की मदद के लिए भी समिति ने कार्य किया। इन हिन्दुओं की बेटियों को ब्याहने की पारिवारिक जिम्मेदारी भी समिति ने उठाई थी। 1965 और 1971 के युद्ध के समय भी समिति की सेविकाएं सीमावर्ती क्षेत्रों तक पहुंचीं और उन्होंने वहां पर भी सेवा कार्य किया। यही नहीं, सीमा पर तैनात सैनिकों को सेविकाओं ने 200 ट्रांजिस्टर दिए थे।
मौसी जी कहती थीं, ''स्त्री और पुरुष ये संसाररूपी रथ के दो पहिए हैं। पुरुष गृहस्थी के रथ का रथी है, वहीं महिला सारथी है। पुरुषों को दुर्व्यसनों से दूर रखने का काम स्त्री करती है। पुरुषों को सफलता की मंजिल तक पहुंचाने की जिम्मेदारी महिलाएं निभाती हैं।'' इस तरह मौसी जी ने समाज जीवन में महिलाओं की महत्ता को रेखांकित किया था। दूसरी तरफ उन्होंने महिलाओं को उनकी क्षमता तथा कर्तव्य का भी एहसास करा दिया था।
नारी के बारे में सैद्धांतिक मुद्दों पर बल देने के साथ समिति महिलाओं से जुड़े आज के मुद्दों पर भी अपनी बात बेबाकी से रखती है। कुछ दिन पहले ही समिति ने समान नागरिक संहिता को लेकर अपनी कार्यकारिणी की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया।
प्रस्ताव में कहा गया है, 'दुनिया के सभी देशों में हर नागरिक के लिए एक जैसे कानून होते हैं तो भारत में भी सभी नागरिकों के लिए एक जैसे कानून होने चाहिए। भारत के आजाद होते ही यहां का प्रबुद्ध वर्ग समान नागरिक संहिता की मांग करता रहा है।'1947 में समिति ने भारत की एकता को चुनौती देने वाले इस फैसले पर अपना असहमति पत्र सरकार को सौंपा था। समान नागरिक संहिता का विषय सदैव उसके चिंतन में रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से कट्टरवादियों के दुराग्रह और मुस्लिम वोट बैंक के चलते सभी सरकारें संविधान और न्यायपालिका की अवहेलना करती रही हैं।
संघ की तरह समिति का कार्य भी व्यक्ति केन्द्रित नहीं है। इसलिए मौसी जी के निधन के बाद भी समिति का कार्य न केवल निरंतर जारी रहा, वरन् बढ़ता रहा। मौसी जी के बाद सरस्वती ताई आपटे समिति की द्वितीय प्रमुख संचालिका बनीं।
लोकमान्य तिलक उनके पिताजी के मामा थे। गोवा मुक्ति संग्राम में उन्होंने अपना संपूर्ण योगदान दिया। उनके बाद उषाताई चाटी ने तृतीय प्रमुख संचालिका का दायित्व संभाला। प्रमिला ताई मेढ़े चतुर्थ प्रमुख संचालिका थीं। इन दिनों शांता कुमारी उर्फ शांताक्का प्रमुख संचालिका हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि समिति देश और नारी समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण काम कर रही है। लेकिन संगठन के बड़े व्याप और बदलते सामाजिक परिदृश्य में महिलाओं की अतिव्यस्तता ने नई चुनौतियां सामने रखी है। असीता कहती हैं हम हर चुनौती के पार जाएंगे। चुनौती को इस सहजता से लेना ही 'शक्तिरूपा' की विशेषता है। -सतीश पेडणेकर
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