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मैं पिछले 6 साल से हर साल कम से कम 1 लाख गांव-देहातों के छात्र-छात्राओं से मिलती रही हूं। मैं चाहती हूं कि हर लड़की पढ़े-लिखे और जीवन में आगे बढ़े। परिवार की महिला अगर पढ़ी-लिखी होगी तो परिवार आगे बढ़ेगा।
ज्योति रेड्डी का जीवन किसी परीकथा जैसा लग सकता है, फर्क बस इतना है कि परीकथा में महल-दोमहले ख्वाब देखते ही सामने आ जाया करते हैं, पर खेत में 5 रु. दिहाड़ी की मजदूरी से लेकर अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कंपनी की सीईओ की कुर्सी तक के अपने सफर में ज्योति को कांटों भरी राह पर चलना पड़ा। प्रस्तुत हैं अमेरिका की केईवाईएसएस कंपनी की स्वामी ज्योति रेड्डी से सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी की बातचीत के प्रमुख अंश-
' जन्म के बाद से ही आपकी जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आए। आज पलटकर देखती हैं तो क्या लगता है?
सच में, काफी कुछ देखा, काफी कुछ सहा मैंने। अनाथालय में पली-बढ़ी। 16 साल की थी तब शादी हो गई। 17 साल की थी तो जीवन में एक बेटी आ गई, 18 में दूसरी बेटी हो गई। जिस घर में मेरी शादी हुई, वह गरीबी रेखा से नीचे का परिवार था, सिर्फ 2 एकड़ जमीन थी हमारे पास। आंध्र प्रदेश में वारंगल के एक छोटे से गांव मैलारम में रहती थी।
' आपने खेत में मजदूरी की। ऐसा वक्त कैसे आया?
गरीबी तो थी ही, उस पर दो बच्चों को पालने की जिम्मेदारी भी आ गई थी। तो मैं खेत में मजदूरी करती थी, रोज के 5 रु. मिलते थे मुझे। बच्चों के लिए दो वक्त का खाना और ढंग के कपड़े तक नहीं हो पाते थे।
' आप खुद अनाथालय में पली-बढ़ी थीं। उस वक्त के हालात कैसे थे?
मैं इतने गरीब परिवार में जन्मी थी कि माता-पिता के पास हमें पालने को पैसा नहीं था। इसलिए मुझे बिन मां की बच्ची के तौर पर अनाथालय में ही रहना पड़ा था। मैं वहीं से एक सरकारी स्कूल में भर्ती हुई थी। वहां मैं 5वीं से 10वीं तक कैसे पढ़ी, वह मैं ही जानती हूं। काफी कुछ जाना जिंदगी के बारे में मैंने तब। 10वीं के बाद मेरी शादी हो गई।
' आगे की जिंदगी के बारे में क्या कुछ सोचती थीं तब आप?
मैं बिल्कुल निराश हो चुकी थी, जब देखती थी कि मैं अपनी बच्चियों को एक ग्लास दूध तक नहीं पिला पा रही। ऐसे में मैंने दो बार दोनों बेटियों के साथ खेत में ही मौजूद कुंए में कूदकर आत्महत्या करने का फैसला किया। कदम उठाने ही वाली थी कि एक बेटी रो पड़ी। तब मैंने कदम वापस खींचे और तय किया कि मुझे इन बच्चियों के लिए, इन्हें बेहतर जिंदगी देने के लिए जीना होगा। यह 1988 की बात है।
' फिर जिंदगी में क्या नया मोड़ आया?
वह मोड़ था वयस्क शिक्षण अध्यापिका ट्रेनिंग का, नेहरू युवा केन्द्र के तहत। यह एक साल का सरकारी अनुबंध था, 120 रु. महीना मिलते थे। मैंने फिर नेशनल सर्विस वालंटियर का काम किया, 195 रु. महीने पर। इसके बाद लाइबे्ररियन रही, 120 रु. की पगार पर।
' उच्च शिक्षा लेने के बारे में कब सोचा?
जब 10वीं क्लास में थी तब टाइपराइटर सीखते हुए एक अखबार में मैंने विज्ञापन देखा था एक ओपन यूनिवर्सिटी डिग्री का। इतवार को क्लासें होनी थीं, फीस थी 320 रु. सालाना। मैंने बेहतर शिक्षा के लिए कॉलेज में दाखिला लेने का फैसला किया। साथ ही मैंने वोकेशनल कोर्स भी किया था। इसीलिए मैंने एक सरकारी स्कूल में क्राफ्ट शिक्षक के लिए अर्जी दी। एक साल मैंने ये काम किया, 398 रु. महीना मिलते थे मुझे। दो साल बाद स्थायी नियुक्ति मिल गई। यह 1992 की बात है, मेरी तनख्वाह 2700 रु. महीना थी।
' एमए के लिए पढ़ाई जारी रखी या नौकरी ही करती रहीं?
सरकारी नौकरी करते हुए ही मैंने अंग्रेजी में एमए करने के लिए काकाती विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। बदकिस्मती से अंग्रेजी में फेल हो गई। मैंने फिर समाजविज्ञान में एमए किया। सरकारी शिक्षक के नाते '96 में पदोन्नति मिली, मंडल कन्या शिशु विकास अधिकारी बन गई।
' अमेरिका की तरफ आपका झुकाव कब और कैसे हुआ?
मेरी चचेरी बहन आई थी अमेरिका से, तो उसके हाव-भाव, पैसा और रहन-सहन देखकर मेरा भी मन ललचाया। मैंने उससे पूछा, ''क्या मैं भी अमेरिका आ सकती हूं? क्या मैं वहां जिंदगी बसर कर पाऊंगी?'' तो वो बोली, ''हां-हां, आ सकती हो। तुम गांव की हो, कठोर जिंदगी जी है, समझदार हो।'' मैंने फौरन पूछा, ''तो क्या तुम मेरे वहां आने में मदद कर दोगी?''उसने कहा कि वो मेरी कोई मदद नहीं कर सकती। फिर मैंने दूसरे तरीके तलाशे। सॉफ्टवेयर कोर्स किया। पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन कम्प्युटर एप्लिकेशन किया। मैंने '99 में अमेरिका के 'वर्क वीसा' की कोशिश की, पर नहीं मिला। एक सहेली से पता चला कि 'विजिटर वीसा' भी होता है। उस सहेली के जरिए ही मैंने विजिटर वीसा की अर्जी दी। 2000 में उस वीसा पर मैं अमेरिका आ गई।
' वहां पैसा कमाने के लिए क्या किया, क्योंकि आपके पास ज्यादा पैसे नहीं थे?
मैंने कड़ी मेहनत की यहां आकर। पेट्रोल पंप पर काम किया, न्यू जर्सी में वीडियो कैसेट की दुकान पर काम किया। फीनिक्स में बच्चों की आया का काम किया। साउथ कैरोलिना में साफ्टवेयर रिक्रूटर का काम किया। वर्जीनिया की एक बड़ी कंपनी में भी यही काम संभाला।
' बेटियां तो भारत में ही होंगी। उनसे मिलने भारत नहीं लौटीं?
दो साल बाद लौटी थी मैं। वे हैदराबाद में हॉस्टल में रहकर इंटर में पढ़ रही थीं। मैं उनसे मिलने गई। इस बीच मैंने अपने विजिटर वीसा की अवधि बढ़वा ली थी। मैंने एच1 वीसा के लिए भी अर्जी दी थी जो मुझे मिला और मैं पहले मैक्सिको गई। वहां की स्टाम्प लगने के बाद मैं भारत लौटी। ये सितम्बर 2001 की बात है।
' अपना काम शुरू करने का कैसे सोचा?
मैं जब भी भारत आती हूं तो धार्मिक आयोजनों में जरूर शामिल होती हूं। मैं भगवान में विश्वास करती हूं, पूजा-पाठी हूं, रीति-रस्में मानती हूं। अमेरिका में रहते हुए भी हर इतवार फीनिक्स के इस्कॉन मंदिर में दर्शन करने जाती हूं। 2001 में जब मैं आई थी तो शिव मंदिर में पूजा कर रही थी। होम करते हुए पंडित जी ने कहा कि नौकरी नहीं, अगर तुम अपना काम शुरू करो तो तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा। मैंने कहा, मुझे कोई बिजनेस करना नहीं आता, मैं कैसे कर सकती हूं ये। लेकिन पंडित जी अड़ गए, कि नहीं, तुम बिजनेस ही करो। उस वक्त मुझे बस सॉफ्टवेयर की थोड़ी-बहुत जानकारी थी। और देखिए, 2002 के दशहरे के दिन ही मैंने फीनिक्स में 'की साफ्टवेयर सॉल्यूशन्स' की नींव रखी, जिसकी मैं अभी सीईओ हूं।
स्टाफ पहले कितना था, अब कितना है?
शुरुआत में स्टाफ में बस एक गुजराती नौजवान थे जो आज भी मेरे यहां काम कर रहे हैं। इस वक्त 63 कर्मचारी हैं कंपनी में, जिनमें से ज्यादातर भारतीय हैं। 25 प्रतिशत अमेरिकी हैं। कुछ कर्मचारी अनुबंध पर हैं जो डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट वगैरह पर काम कर रहे हैं। मैं रीटेल बिजनेस में भी हूं, मेरी फीनिक्स और एरीजोना में दुकानें हैं। वहां भी कुछ लोग काम करते हैं। कुल 100 के करीब कर्मचारी हैं हमारे यहां।
' आपने घर बनाया है अमेरिका में?
तीन घर हैं मेरे। मेरी दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है और वे यहां अमेरिका में ही काम करती हैं। मैं, मेरे पति, मेरी दोनों बेटियां और दोनों दामाद, हम सब एक ही घर में रहते हैं। संयुक्त परिवार है हमारा।
' कंपनी की सालाना कमाई क्या है?
कंपनी की सालाना कमाई 14 से 15 मिलियन डालर के बीच है।
' किसी इंसान की जिंदगी में शिक्षा को कितना महत्वपूर्ण मानती हैं?
शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। अगर मैं 10वीं पास ही होती, खेत में मजदूरी ही कर रही होती तो जो मैं कर पाई हूं वो न कर पाती। बेटियों की अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की। अमेरिका आकर काम किया, कंपनी खड़ी की।
'…और पैसा? ये कितना जरूरी है?
अगर आपके पास पैसा है तो ही लोग आपकी इज्जत करते हैं। मैं अगर अपने गांव में ही रहती और अपने पति के साथ कोई काम करके घर चलाती, पर दौलत न बना पाती तो हमें कौन पूछता, लेकिन अगर आप खूब पैसा कमाएं तो इज्जत भी बढ़ जाती है।
'आप अनाथों और लड़कियों की शिक्षा के लिए भी कुछ प्रयास करती हैं क्या?
जी, मैं भारत में अनाथ बच्चों के अधिकारों के लिए काम करती हूं। ऐसे बच्चों के साथ तमाम मंत्रियों, सांसदों और तेलंगाना के मुख्यमंत्री से मिलती रही हूं। मैं फिक्की जैसी बड़ी महिला संस्थाओं में मेरे भाषण होते हैं। मैं 92 देशों में फैली इंटरनेशनल यूथ फैलाशिप ऑर्गनाइजेशन की राजदूत हूं। वारंगल के 60 एनजीओ की सलाहकार समितियों का हिस्सा हूं। मलिकंबा गृह में रह रहे 240 मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों के देखभाल की जिम्मेदारी ली है। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं लीड इंडिया 2020 के लिए काम करते हुए डॉ. कलाम के साथ मिली, वे मुझे प्यार से ज्योतम्मा बुलाते थे। उनकी प्रेरणा से ही मैं पिछले 6 साल से हर साल गांव-देहातों के कम से कम 1 लाख छात्र-छात्राओं से मिलती रही हूं। मैं चाहती हूं कि हर लड़की पढ़े-लिखे और जीवन में आगे बढ़े। परिवार की महिला अगर पढ़ी-लिखी होगी तो परिवार आगे बढ़ेगा। टाइम्स नाउ चैनल ने मुझे ग्लोबल इंडियन अवार्ड दिया है।
' भविष्य की आपकी क्या योजना है?
आज मैं 47 की हूं। अगले 10 साल में मेरा एक ही मकसद रहेगा कि मैं भारत के हर बच्चे तक अपनी बात पहंुचाऊं और बताऊं कि इच्छाशक्ति मजबूत हो तो कुछ भी संभव है। कोई भी बदलाव लाया जा सकता है जिंदगी में। मैं यह संदेश खासतौर पर समाज के बेहद गरीब वर्ग को देना चाहती हूं, क्योंकि मैं उन्हीं में से आती हूं। शायद आप न जानते हों, पर 6 से 10वीं क्लास तक मेरे पैरों में जूते नहीं थे। मुझे याद है, दोपहर में स्कूल से घर जाते हुए मैं तपती सड़क से बचने के लिए पेड़ों की छाया वाली जगहों से होकर जाती थी। एक वो वक्त था, और एक आज का वक्त है जब मैं हजारों बच्चों के लिए जूते खरीद कर दे सकती हूं।
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