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दुनिया में चमक रहा है भारतीय मेधा का सितारा

by
Jan 4, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2016 15:00:19

 

भारत की विदेश नीति में अनिवासी भारतीयों की एक बड़ी भूमिका है, ठीक वैसे ही जैसी चीन में आधुनिक औद्योगिक समाज बनाने में अनिवासी चीनियों की, इस्रायल के संदर्भ में अमरीका और पश्चिमी यूरोपीय नीतियों में अनिवासी यहूदियों की भूमिका है। आज संगठित अनिवासी समूहों की नीति प्रक्रिया में प्रमुख भागीदारों के नाते भूमिका एकाएक बढ़ गई है। पश्चिम में इस प्रकिया से एकदम विपरीत, एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में अनिवासी भारतीयों का दखल सांस्कृतिक संवाद और सामाजिक-व्यावसायिक आदान-प्रदान के नाते रहा है। अनिवासियों में नस्लीय, राष्ट्रीय, पांथिक और जातीय समूह शामिल हो सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि अनिवासी भारतीय समाज अब खुद को अपने मूल देश यानी भारत में घटने वाली घटनाओं से जुड़ा महसूस करता है। इस देश में किसी वक्त जरूरत पड़ने पर यह समूह राजनीतिक रूप से सक्रिय हो सकता है।

बीते कुछ वर्षों के दौरान अनिवासी समाज पूरी दुनिया में एक ताकतवर आर्थिक और राजनीतिक समूह के नाते उभरा है। चीनी और भारतीय अनिवासी समुदाय अनिवासियों के आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। हाल के कुछ वर्षों में अनिवासियों के अध्ययन में बौद्धिक पलायन का एक नया आयाम शामिल हुआ है, खासकर भारत जैसे देशों के संदर्भ में। अमरीका में स्नातक शिक्षा ले रहे विदेशी छात्रों में आधे से ज्यादा अपने मूल देश लौट कर नहीं जाते जिससे उनके देशों में कुशल और शिक्षित नागरिकों की कमी हो जाती है। इसीलिए इनमें से कई देशों ने दोहरी नागरिकता, शिक्षा और आंतरिक मामलों से जुड़ी नीतियों में बदलाव लाना शुरू कर दिया है। भारत सरकार बड़ी संख्या में भारतीय इंजीनियरों और उद्यमियों को अपने वतन वापस लौटकर काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। लौटने वाले ये लोग अपने साथ प्रौद्योगिकी, धन, प्रबंधकीय और संस्थागत दक्षता लेकर आते हैं। उदाहरण के लिए भारत ने सागरपारीय भारतीय मामलों का मंत्रालय स्थापित किया और अनिवासी भारतीयों को अनिवासी भारतीय या एनआरआई के साथ ही पी.आई.ओ. (पर्संस आॅफ इंडियन ओरिजिन) का विशेष दर्जा दिया है। अभी हाल तक पी.आई.ओ. और एनआरआई ने सामाजिक, सांस्कृतिक, पांथिक और आर्थिक जुड़ावों के जरिए भारत से अपने संबंध बनाए रखे हैं। लेकिन अब भारत अनिवासी समाज के सदस्यों के बीच सूत्र जोड़े रखने के लिए वार्षिक सम्मेलन प्रायोजित करता है और उन-उन देशों में उनके सामने आ रहे मुद्दों पर चर्चा करता है, जिनमें आज वे रह रहे हैं।

यूके में वहां के आम चुनावों पर शायद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का कुछ ज्यादा दखल दिखा है जो आज के भारत में बढ़ते आत्मविश्वास को काफी हद तक दर्शाता है। 2010 के यूके चुनावों में कुल उम्मीदवारों में 89 एशियाई मूल के थे जो कि एक रिकार्ड था। पिछले चुनावों में एशिया मूल के 15 उम्मीदवार सांसद चुने गए और ये भी अनिवासी भारतीय समाज की चुनावी उपलब्धियों में मील का पत्थर साबित होता है। दो बहनें, कीथ वाज और वेलेरी वाज भारतीय मूल की महिला सांसद चुनी गर्इं। प्रीति पटेल विल्हम चुनाव क्षेत्र से जीतीं। भारतीय मूल की दो महिलाएं पहली बार हाउस आॅफ कॉमन्स में चुनी गर्इं। यूके संसद के निचले सदन के इतिहास में पहली बार वाज और पटेल एशियाई मूल की पहली महिला सांसद बनीं। जीतने वालों में वीरेन्द्र शर्मा और मारशा सिंह भारतीय मूल के ही हैं। कन्जर्वेटिव उम्मीदवार पॉल उप्पा वोल्वरहेम्प्टन दक्षिण पश्चिम चुनाव क्षेत्र से जीते। रीडिंग वेस्ट से आलोक शर्मा जीते तो कैंब्रिजशायर नार्थ वेस्ट से शैलेश वारा जीते।

लघु भारत कहे जाने वाले मॉरीशस को यह नाम वहां बड़ी तादाद में अनिवासी भारतीयों के बसे होने की वजह से नहीं दिया गया है बल्कि यह उन कुछ विदेशी हिस्सों में से है, जहां अनिवासी भारतीय समाज की जबरदस्त राजनीतिक ताकत है। इस देश के राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए अनिवासी भारतीय समाज की राजनीतिक प्रभुता कोई बड़ी खबर नहीं बनती। भारत से इसका सांस्कृतिक जुड़ाव एक नहीं अनेक क्षेत्रों में है। यह नि:संदेह अनिवासी भारतीय समाज की राजनीतिक यात्रा का एक और पहलू है।

इधर अटलांटिक के पार कैरीबियाई देशों में अनिवासी भारतीय समाज ने एक अनूठी राजनीति विजय हासिल की है। भारतीय मूल की श्रीमती कमला प्रसाद बिसेसर त्रिनिदाद और टोबैगो की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी हैं। आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने पार्टी के संस्थापक बासुदेव पाण्डे को हराया था, जो खुद इस देश के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री रहे थे। अटलांटिक के और पश्चिम में जाएं तो वहां भी भारतीय अमरीकी, अमरीकी राजनीतिक परिदृश्य में एक ताकतवर शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। इसमें उनकी निर्विवाद आर्थिक सफलता, उद्यमशीलता, कड़ी मेहनत और पारिवारिक मूल्यों तथा परंपराओं और संस्कृति से जुड़े रहने का बड़ा हाथ है। दूसरी पीढ़ी के भारतीय अमरीकियों ने तो अपनी राजनीतिक सूझबूझ और दमदारी के साथ प्रस्तुत की है।

भारतीय अमरीकी नागरिकों ने अब अपने देश के सार्वजनिक जीवन में और अधिक भागीदारी लेनी शुरू कर दी है, जिसके पीछे प्रेरणा है भारत की बढ़ती वैश्विक की साख की और नई दिल्ली तथा वाशिंगटन के बीच वैश्विक भू राजनीतिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि में बढ़ते मेलमिलाप की। इस समाज का अमरीका की सरकार और राजनीतिक शक्ति केन्द्रों पर अपना आर्थिक असर दिखाने का माद्दा है। यह चचा सैम की नीतियों पर खासतौर पर भारत के दीर्घकालीन हितों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। जहां बराक ओबामा प्रशासन ने एक तरह का रिकार्ड बनाते हुए कई कामयाब भारतीय अमरीकी व्यवसायियों को प्रशासनिक जिम्मेदारियों के ओहदों पर बैठाया है वहीं भारतीय मूल के लोगों ने राजनीतिक वातावरण में भी अपनी पैठ बढ़ाई है।

जैसा हमने चीन के संदर्भ में देखा, अनिवासी समाज आर्थिक विकास में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर किसी देश को आधुनिक औद्योगिक समाज में बदल सकता है। चीन में 80 और 90 के दशकों में कुल विदेशी निवेश का 68 प्रतिशत सागरपारीय चीनियों से आया था। अनिवासी समाज राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। 2011 में भारत को 56 अरब से ज्यादा अमरीकी डालर प्राप्त हुए थे। केरल के सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत से कुछ ज्यादा हिस्सा इसी से आता है। पंजाबी अनिवासियों ने खेती के उपकरण खरीदकर हरित क्रान्ति में योगदान दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार की मेक इन इंडिया तथा अन्य आर्थिक योजनाओं के चलते कौशल पलायन, पूंजी बहिर्गमन और प्रौद्योगिकी घाटा कम होना चाहिए ताकि उन्नति की नई कहानी में अनिवासी भारतीयों की भागीदारी और बढ़े।

इसमें संदेह नहीं है कि अनिवासी भारतीय समाज की कामयाबी, खासकर राजनीतिक क्षेत्र में अपने मूल देश यानी भारत पर कोई प्रभाव नहीं डालती। विभिन्न देशों में चुनावी सफलताएं तो अनिवासी भारतीयों के लिए एक ताजा घटा घटनाक्रम है, ऐसा जिसमें अभी उनको काफी माहिर होने की जरूरत है। पहले भी भारतीयों ने पूर्वी अफ्रीका में गजब की कामयाबी दर्ज कराई है, हालांकि उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और भौगोलिक राजनीतिक धारा ने उनके कुल प्रभाव को सीमित कर दिया था। इसके बाद यूके में और भी सफलताएं हासिल हुर्इं, पहले उद्योगों में, और अब हाल ही में राजनीतिक क्षेत्र में शानदार कामयाबी मिली है। कैरेबियाई देशों, पूर्व (उदाहरण के लिए फिजी) और मारीशस में कहानी कुछ अलग है, क्योंकि यहां प्रमुख रूप से अनिवासी भारतीय समाज की बसाहट, उपस्थिति और प्रयासों ने ही उन देशों को आकार दिया है। अमरीका में तो अनिवासी भारतीय समाज का असर निश्चित तौर पर बहुत ज्यादा है। एक बात साफ तौर उभरती है कि अगर भारत अपनी राजनीति समग्र राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाते हुए वैश्विक शक्ति का दर्जा हासिल करना चाहता है तो, देश को भविष्य में अपने अनिवासी समाज के रणनीतिक प्रभाव के लिए स्थान बनाना होगा। सागर पार हमारी ताकत को मजबूत करना है तो अपने देश में राजनीतिक रूप से कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव अपनाने ही पड़ेंगे।              

शेषाद्रि चारी (लेखक आर्गेनाइजर साप्ताहिक के पूर्व संपादक और भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं।)  

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