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आजकल यूरोप में एशियाई तथा यूरोपीय भाषा समूह पर बड़ी चर्चा चल रही है। वैसे तो इंडो-यूरोपीय भाषा समूह, इंडो-उरूल भाषा समूह तथा इंडो-जर्मन भाषा समूह महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनमें से हर भाषा समूह की विशेषता यह रही है कि सबमें संस्कृत भाषा के शब्द भरे पड़े हैं। फिर भी यूरोप की इन सब भाषाओं तथा भाषा समूहों की यह बात उतनी मान्य नहीं होती कि इनमें संस्कृत भाषा का उन पर बड़ा प्रभाव रहा है। अनेक भाषाविदों का तो यहां तक कहना है कि संस्कृत ही उन भाषाओं की आदि भाषा रही है। यूरोपीय देशों में आज इस बात को मानने वाले खूब हैं। दुनिया पर तीन-चार सौ सालों तक राज करने के कारण यूरोपीय देशों का ने अपने फायदे का ही इतिहास भी लिखवाया। यूरोपीय वर्चस्व का यह तीखा आग्रह सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं रहा है। अर्थनीति से विज्ञान-तंत्रज्ञान तक, हर क्षेत्र पर यूरोपीय देश हावी रहे हैं। पिछले सप्ताह चेन्नै आईआईटी में एक इंडो-जर्मन सम्मेलन हुआ। वह केवल भाषा या तंत्रज्ञान से जुड़ा नहीं था। अन्य बहुत से पहलू थे। लेकिन सब का आशय एक ही था कि संस्कृत तथा भारतीय संस्कृति की परंपरा बहुत बड़ी है, जर्मनी तथा यूरोप का उस पर प्रभाव है। लेकिन हर भाषा को अलग से देखा जाय तो एक बात स्पष्ट है कि संस्कृत का दुनिया की हर भाषा पर बड़ा गहरा प्रभाव रहा है। यह बात लातीनी अमरीका के देशों पर भी लागू है। छह महीने पहले बाल्टिक देशों में कांफ्रेंस ऑफ वर्ल्ड एथनिक कल्चर्स तथा यूरोपियन कांग्रेस ऑफ एथनिक रिलिजन नामक संगठनों का एक सम्मेलन संपन्न हुआ। विभिन्न देशों के पंचांगों में समाहित विज्ञान और जनजीवन उस सम्मेलन का विषय था। उस सम्मेलन में जो तथ्य सामने आए हैं वे न केवल चौंकाने वाले हैं बल्कि उनका भारत पर भी प्रभाव हो सकता है।
बाल्टिक देशों के समूह में कोई बहुत नामी-गिरामी देश नहीं हैं। उसमें हैं लात्विया, लिथुवानिया तथा एस्टोनिया। यह क्षेत्र रूस की राजधानी मास्को से पांच सौ किमी़ दूर है। यूरोप के जो स्केंडिनेवियाई देश हैं, उनसे पूरब की ओर ये देश बसे हैं। इन तीनों देशों की आबादी साठ लाख के आस-पास है। छह महीने पहले जो सम्मेलन हुआ था उसमें भारत से वाशिंग्टन गये डॉ़ राधेश्याम द्विवेदी, डॉ. जयश्री भोले, नागपुर के डॉ़ पेशवे, पुणे के डॉ़ अविनाश लेले तथा डॉ़ भारती लेले उपस्थित थे। यह सम्मेलन कांफ्रेंस ऑफ वर्ल्ड एथनिक कल्चर्स संस्था ने आयोजित किया था।
सम्मेलन में बाल्टिक देशों से जो तथ्य सामने आये वे काफी चौंकाने वाले थे। उन देशों में कुछ साल पहले 'वेद' नामक एक पत्रिका निकलती थी। उसके कुछ संस्करण इस सम्मेलन में रखे गये। पत्रिका का दावा था कि हम न केवल भारतीय संस्कृति से जुडे़ हैं बल्कि भारत की जो संस्कृती सब से प्राचीन मानी जाती है उस वेद संस्कृती से हम जुडे़ हैं। दुनिया के बहुत से देशों पर संस्कृत का प्रभाव रहा है और हर जगह उस प्रभाव की एक विशेषता रही है। वह विशेषता यह है कि जिस काल में उन देशों का भारत से संबंध आया उस काल की संस्कृत का वहां की भाषाओं पर प्रभाव अधिक है। बाल्टिक देशों का भारत से संबंध था, यह बात रामायण काल में दिखाई देती है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने दुनिया के अनेक क्षेत्रों में विद्वान प्रचारक भेजे और उन क्षेत्रों मे वैदिक संस्कृति का प्रसार किया। यूरोप के जिस क्षेत्र में बाल्टिक देश आते हैं तथा बाल्टिक समुद्र आता है उस क्षेत्र में गए भारतीय विद्वानों के समूह का नाम 'बाल्हिक' था। वेद पत्रिका पर ज्यादा खोज करने से 'बाल्हिक' संदर्भ सामने आया था। आज दुनिया में सिर्फ बाल्टिक देशों में वेद काल के कुछ शब्दों का अस्तित्व होना तथा रामायण काल में उस क्षेत्र में भेजे गये समूह का 'बाल्हिक' होना, इतने प्राथमिक आधार पर दुनिया का आज का इतिहास शास्त्र भारत के प्रभाव को मान्यता नहीं देता। सम्मेलन में वेद पत्रिका के अनेक संदभार्ें के अलावा दैनंदिन जीवन से संबंधित तीन सौ शब्दों की सूची दी गई थी। उस पत्रिका के संपादक का कहना था कि यह तीन सौ शब्दों की सूची तो बहुत छोटी है। यदि और अध्ययन किया जाय तो यह बहुत बड़ी हो सकती है। लेकिन यह सच है कि इस सूची के बहुत से शब्द भारत के सामान्य जीवन से ही जुड़े हैं।
इन शब्दों में हैं अग्र यानी पहला, अश्रु यानी आंसू, अस्ति यानी अस्तित्व, भंग यानी बड़ी लहर, मदु यानी शहद। इसमें बाल्टिक या लात्वियाई शब्दों के कुछ उच्चारण अलग हैं। मुक्ति यानी छुटकारा, दिन तथा देअना यानी दिन। ऐसे ही कुछ शब्द और हैं जैसे, नाभी-नभ, प्रश्न-प्रस्न, तव-तेरा, देव-देवा आदि। इस छोटी सूची में पहला शब्द संस्कृत, दूसरा लात्विक और तीसरा भारतीय है। मधु को मदु बोलते हैं या मद भी बोलते हैं। बाल्टिक भाषा की यह सूची पहली बार देखने को मिल रही है। वैसे हर यूरोपीय भाषा के चार-पांच हजार शब्दों के मूल संस्कृत शब्दों की सूची इससे पहले प्रकाशित हो चुकी है। इतना ही नहीं, लातीनी अमरीका के माचूपिचू क्षेत्र की भाषा के दो हजार शब्द संस्कृत तथा भारतीय भाषा से जुडे़ हैं। इस विषय में एक बात पर गौर करना जरूरी है कि भाषा की समानता के आधार पर ही यूरोपीय लोग दुनिया में जा पाए थे। ऐसा यूरोपीय लोगों का कहना है, इसलिए इस पर बहुत शोध होना चाहिए। उस सम्मेलन में डॉ़ लेले ने जो बात बताई, वह काफी अचरज की थी।
बाल्टिक देशों में पुरातन काल से लोकगीतों का खूब प्रचलन रहा है। आज भी लोकगीतों की लंबी परंपरा है। लोकगीतों पर आधारित राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं यहां काफी मायने रखती हैं। डॉ़ लेले तथा उनकी पत्नी डॉ़ भारती उस क्षेत्र काफी रहे हैं। वे आयुर्वेद के जाने-माने विद्वान हैं। दुनिया के पूर्वी तथा पश्चिमी देशों में जाकर विश्वविद्यालयों तथा आयुर्वेद की संस्थाओं मे प्रगत आयुर्वेद सिखाते हैं। भारत से आयुर्वेद की विश्वविद्यालयीन शिक्षा लेकर जो युवा अन्य देशों में आयुर्वेद चिकित्सा करते हैं, उनका प्रशिक्षण तथा वहां नये-नये विभाग खोलना, यही उनके अध्ययन का विषय है। उनका कहना था कि बाल्टिक जीवनशैली में भारतीय आयुर्वेद की अनेक पद्धतियां मौजूद हैं। उनकी जीवनशैली भारतीय जीवनशैली से मिलती-जुलती है।
बाल्टिक देश यूरोप के चोटी के देश नहीं माने जाते। उन देशों पर लंबे समय तक जर्मन लोगों का शासन रहा। पिछली सदी में दूसरे विश्व युद्घ के बाद बाल्टिक देशों पर तत्कालीन सोवियत संघ का नियंत्रण रहा। भारत पर भी विदेशियों का शासन रहा है; इस तरह बाल्टिक और भारत की समस्याएं इस दृष्टि से लगभग समान ही हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने संस्कृत परंपरा की खोज करने के लिए कुछ नहीं किया हो। उन देशों पर जैसे-जैसे विदेशियों का वर्चस्व बढ़ता गया वैसे-वैसे वहां से भी संस्कृत की छुट्टी कर दी गई। विद्यमान साधनों के आधार पर लगता है कि सन् 1621 से सन् 1668 तक वहां की शिक्षण संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों में संस्कृत का स्थान बड़ा था। उस विषय में काम भी खूब हुआ था। हेनरी रोथ तथा जोहान अर्नेस्ट जैसे अध्ययनकर्ताओं का उल्लेख बार-बार आता है। कलकत्ता की एशिय् ााटिक सोसायटी में विलियम जोन्स नामक भाषाविद द्वारा 'इंडो यूरोपियन फैमिली' पर एक भाषण हुआ था जिसमें बाल्टिक देशों तथा भाषाओं मे संस्कृत की संस्कृति ही प्रमुख विषय था। बीसवीं तथा इक्कीसवीं सदी के दृष्टिकोण से देखा जाय तो संस्कृत भाषा कोई उस देश की पड़ोसी भाषा नहीं है। फिर भी इतना प्रभाव होने का कारण उन्होंने ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन भारत सरकार से उन्हें जितना सहयोग मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिला। इसलिये आज फिर से सभी बाल्टिक देशों द्वारा भारत से मित्रता करने के प्रयास जारी हैं।
भारत का उन देशों से पुराना रिश्ता रहा है। लेकिन उन देशों में भी ज्यादा संदर्भ नहीं प्राप्त होते और भारत में भी ये नहीं मिलते। पिछले एक हजार साल यहां विदेशी शासन रहा, जिसमें पहले आठ सौ साल तो मजहबी उन्मादियों का राज रहा था। उस समय इस संस्कृति का कितना नुकसान हुआ, इसका आकलन एक बड़ा विषय है, लेकिन अंग्रेजों ने भी जिस ढंग से भारत का पक्ष रखा वह भारत की मूल छवि को हानि पहुंचाने वाला ही था। अंग्रेजों तथा ईसाई मिशनरियों का भारत के बारे में कहना था कि तीन-चार हजार साल पहले यहां सिर्फ घना जंगल था। कुछ नदियों के किनारे थोड़ी पूजा-पाठ की संस्कृति थी। लेकिन उसमें भी भेदभाव का प्रभाव बहुत था। भारत में पहली सदी में सेंट थामस आये, फिर हूण आये, शक आये, जिहादियों ने तो यहां खूब राज किया। इस ढंग से यहां सभ्यता समृद्ध होती गई। 16वीं-17वीं शताब्दि में यहां यूरोपीय देशों के लोगों का आगमन हुआ और उसके बाद इस देश में विकास ने गति पकड़ी।
भारत दुनिया से परिचित हुआ तथा विश्व को भी भारत का परिचय मिला। लेकिन आज की तारीख में भी विश्व में अद्यतन माने जा सकने वाले चरक, सुश्रुत का आयुर्वेद यहां खोजा गया। पाराशर ऋषि का कृषिशास्त्र बना, नागार्जुन का रसायन शास्त्र, भास्कराचार्य का गणित, वराहमिहिर तथा आर्यभट्ट का खगोलशास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कणाद ऋषि का भौतिक शास्त्र, शारंगधर का संगीत, भरतमुनी का नाट्यशास्त्र, पतंजलि का योगशास्त्र, मानसशास्त्र तथा व्याकरणशास्त्र, पाणिनी का व्याकरणसूत्र आदि ग्रंथ इस भूमि के परिचायक हैं। इनमें से हर शास्त्र की बड़ी परंपरा है। भारद्वाज मुनि का समरांगण सूत्रधार ग्रंथ आज के विज्ञान और तंत्रज्ञान को भी अनेक पहलू दे सकता है। भारतीय शास्त्रों तथा उन पर आधारित भारतीय जीवनशैली के प्रतिनिधि विदेशों में कब गये, उसकी तिथि आज उपलब्ध नहीं है। लेकिन गए जरूर थे, यह बात तो निश्चित है। जिस विषय का इतिहास बड़ा होता है, उस विषय की समस्या भी बड़ी होती है।
एक बात तो पिछली सदी मे जर्मन विद्वानों ने भी स्वीकारी थी कि दुनिया का पहला ज्ञान भण्डार वेद हैं। लेकिन यूरोप ने अपना दबदबा दिखाने वाला दुनिया का इतिहास तैयार कराया। पिछले एक हजार साल में से पहले आठ सौ सालों में हमारे यहां बार-बार न केवल ग्रंथालय नष्ट किए गए, बल्कि इस देश में कहीं हजारों तो कहीं लाखों की संख्या में नरसंहार हुए। अंग्रेजों के जमाने में तो उन्होंने इतिहास ही बदल डाला था। उसके बाद 'काले अंग्रेजों' का जमाना आया। उस दौरान भी बड़ी क्षति पहुंची। लेकिन इस सबके बाद भी बहुत कुछ बचा है जो दुनिया में सबसे श्रेष्ठ है, जिसका प्रचार-प्रसार करना जरूरी है।
-मोरेश्वर जोशी
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