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अभी तीन महीने पहले ही श्री मुफ्ती मोहम्मद सईद से बातचीत का अवसर मिला था। कश्मीरी विस्थापितों की घर वापसी के रास्ते खोजने के लिए वे कश्मीरी पंडित समाज के प्रतिनिधियों के साथ बात करना चाहते थे। चर्चा में उन्होंने एक दिलचस्प बात कही-'मुझे नहीं मालूम कि पंडित नेहरू ने ऐसा कैसे होने दिया। लेकिन यह सच है कि महाराजा के प्रति विरोध को शेख साहब ने जम्मू के लोगों के विरुद्ध विरोध में बदलकर कश्मीर के लेागों का इतना बड़ा अहित कर दिया जिसकी भरपाई आज तक नही हो पाई है। दोनों क्षेत्रों के लोगों के बीच अविश्वास की ऐसी खाई पैदा हो गई जो लगातार बढ़ती जा रही है। मुफ्ती ने कहा था, ''जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के बीच इस मनोवैज्ञानिक दुराव को दूर कर खाई को पाटना ही मैंने जीवन का एक मिशन बना लिया है।''
मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था। ये मुफ्ती उस मुफ्ती से बहुत आगे आ गए थे जिन्हें मैं छह दशक पहले जानता था, जब वे भी उसी राजनीति का हिस्सा थे जिसमें कश्मीरी होने का मतलब कश्मीरी सुन्नी मुसलमान ही होता था और जहां शिया सम्प्रदाय को दशकों तक ताजिया निकालने की अनुमति नहीं मिली थी। पर उस दिन तो वे एक राजनेता की तरह बोल रहे थे। उनके व्यक्तित्व में मतांधता, क्षेत्रीयता और राजनैतिक दुराग्रह से हटकर चलने की यह प्रवृत्ति ही उन्हें अन्य कश्मीरी नेताओं से अलग करती है। हालांकि आज भी मुफ्ती की पार्टी कश्मीर घाटी में दक्षिण कश्मीर की ही पार्टी मानी जाती है। जम्मू में तो उनकी जडें़ जमीं ही नहीं और कश्मीर घाटी में भी नेशनल कांफ्रेंस एक बडे़ क्षेत्र पर अपना वर्चस्व बनाए हुए है। लेकिन अलग-अलग सामाजिक, धार्मिक और वैचारिक भिन्नता में ही समन्वय और निरंतरता का तारतम्य खोजने की आवश्यकता को महसूस करना भी एक महत्वपूर्ण गुण है। मुफ्ती सईद ने राजनीति में कदम रखते ही जान लिया था कि जिस प्रकार की राजनीति कश्मीर घाटी में हो रही है उस में वे नितांत अजनबी ही हैं। उन दिनों कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेंस के अतिरिक्त किसी वैकल्पिक राजनैतिक दल या गुट को सहन नहीं किया जाता था। कांगे्रस नाममात्र के लिए थी और उसी का सहारा लेना मुफ्ती की मजबूूरी थी। संयोग से शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच टकराव की राजनीति आरम्भ हो गई थी। इसलिए मुफ्ती के लिए विरोधी नेता की भूमिका स्वत: ही तैयार हो गई थी। मुद्दा भी मिल गया। राजनैतिक भ्रष्टाचार। उन दिनों एक 'लाल किताब' कश्मीर में प्रचलित थी जिसमें शेख अब्दुल्ला और उनकी सरकारी अमले द्वारा जुटाई गई अकूत संपति का लेखा-जोखा होता था। यही मुफ्ती के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का आधार बना। इसलिए मुफ्ती को आरम्भ से ही कश्मीर के प्रमुख दल नेशनल कांफ्रेंस और अब्दुल्ला को चुनौती देते हुए एक वैकल्पिक राजनैतिक धारा के नेता की भूमिका मिल गई थी।
प्राय: इसे उनकी एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है कि वे देश के गृहमंत्री बने। लेकिन यह उपलब्धि उनकी राजनीति के लिए एक बड़ा अवरोध भी साबित हुई। उनकी बेटी रुबाइया के अपहरण ने उनके सामने जो राजनैतिक उलझन पैदा कर दी थी उससे उबरने में उन्हें काफी समय लगा। वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अखिल भारतीय स्तर पर राजनीति करना उनके हित में नहीं। लेकिन कश्मीर में भी उनके लिए कोई राजनैतिक मंच बचा नहीं था। कांग्रेस से अलग मुफ्ती कोई नया रास्ता खोजने लगे थे। कश्मीर घाटी में आतंकवाद ने राजनैतिक दलों में बिखराव पैदा कर दिया था। नेशनल कांफे्रेंस का कोई विकल्प नहीं था। ऐसा लगने लगा था कि सारे विरोधी गुटों को अलगाववादी अपने पाले में मिला चुके थे। असहमति का एकमात्र तरीका अलगाववादी बनना था। लेकिन ऐसे दौर में भी समाज का एक बड़ा तबका था जो बिना हथियार के ही विरोध के रास्ते खोजना चाहता था। मुफ्ती ने एक खतरनाक प्रयोग किया, उन्होंने ऐसे गुटों को आश्वासन दिया कि वे उनके विरोधी बने रहने के अधिकार को स्वीकार करेंगे अगर वे लोकतांत्रिक ढंग से उसे व्यक्त करें तो। मुफ्ती ने आरम्भ से ही अपनी साख नेशनल कांफ्रेंस विरोधी नेता के रूप में बना ली थी। यह छवि उनके काम आई। एक नरम अलगाववादी वर्ग के नेता का आरोप लगने के बावजूद मुफ्ती धीर-धीरे नौैजवानों के एक बड़े वर्ग को राजनीति की मुख्यधारा में लाने की कोशिश करते रहे।
भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाना एक जोखिमभरा कदम था, जिसे उठाने का साहस कोई मंजा हुआ नेता ही कर सकता था। भाजपा से हाथ मिलाने के पीछे दो महत्वपूर्र्ण बातें हैं। वे जानते थे कि जिस प्रकार का जनादेश मतदाता ने दिया था उसमें और कोई गठबंधन टिकाऊ नहीं हो सकता है। राजनैतिक अस्थिरता न कश्मीर के लिए ठीक थी, न ही पीडीपी के लिए। कश्मीर घाटी में भी नेशनल कांफ्रेंस बहुत पीछे नहीं थी। मुफ्ती को अपनी पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए समय की आवश्यकता थी। वे जानते थे उनकी पार्टी उनके और उनकी बेटी महबूबा के ईद-गिर्द ही टिकी है। दूसरे, वे समझ गए थे कि जो बदलाव देश में आया था वह दूरगामी और चिरस्थायी है। इसलिए मुफ्ती मोहम्मद का 7 जनवरी की सुबह यूं अचानक चले जाना एक बड़े नेता का जाना ही नहीं है, उनके जाने से उनकी बेटी महबूबा और भाजपा के लिए एक कठिन परीक्षा आ खड़ी हुई है, क्योंकि जिस क्षेत्रीय सहमति को स्थापित करने की बात मुफ्ती कर रहे थे उसमेें अड़चनें बाहर से नहीं, भीतर भी डाली जाएंगी। -जवाहरलाल कौल
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