नेहरू-नून समझौता भारतीय संविधान के प्रतिकूल
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नेहरू-नून समझौता भारतीय संविधान के प्रतिकूल

by
Aug 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Aug 2015 11:20:42

पं. नेहरू को राष्ट्र की भूमि विदेशियों को सौंपने का कोई अधिकार नहीं
श्री उपाध्याय द्वारा पाक तुष्टीकरण का विरोध
दिल्ली। ''भारतीय जनसंघ का मत है कि प्रधानमंत्री का वक्तव्य, जिसका अर्थ भारत की भूमि के एक भाग को दूसरे देश की सरकार को देना है, भारतीय संविधान का उल्लंघन है। संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री तो क्या, संसद भी देश के किसी भाग को देने का अधिकार नहीं रखती''
इन शब्दों में एक प्रेस वक्तव्य द्वारा भारतीय जनसंघ के महामंत्री श्री दीनदयाल जी उपाध्याय ने हाल के नेहरू-नून समझौते की कटु अलोचना करते हुए कहा: अत्यन्त खेद का विषय तो यह है कि  प्रधानमंत्री ने संसद की सलाह के बिना और वह भी तब जबकि उसका सत्र चल रहा है, यह सब किया है।''
श्री उपाध्याय जी ने कहा कि भारत पाक प्रधानमंत्री सम्मेलन होने से पूर्व ही यद्यपि भारत के अनुकूल कुछ फल निकलने के बारे में पर्याप्त शंका थी, परन्तु पहले इस कारण सार्वजनिक रूप से इस शंका को प्रकट करना उचित नहीं समझा गया कि कहीं उसका अर्थ यह न लगा लिया जाए कि वार्ता द्वारा सीमा सम्बन्धी झगड़ों को निपटाने के प्रधानमंत्री के प्रयासों में अड़ंगा डाला जा रहा है।
आपने आगे कहा कि दोनों प्रधानमंत्रियों के संयुक्त वक्तव्य को भली प्रकार पढ़ने पश्चात् यह धारणा बनती है कि तुष्टीकरण की पुरानी नीति के अनुसार एक बार भारत फिर दबा है। यह ठीक है कि वार्ता के समय कुछ आदान-प्रदान  होता है, परन्तु अपने उचित अधिकारों को और वह भी ऐसे अधिकार का, जो एक स्वतंत्र राष्ट्र की प्रभुता और भारी जनसंख्या के भविष्य को प्रभावित करने वाले हों, प्रदान समझ में नहीं आता।  इस समझौते में पाकिस्तान ने हमारी एक भी बात मान्य नहीं की है, प्रश्न बिल्कुल सुलझा नहीं है। परन्तु हम लोगों ने पाकिस्तान के द्वारा जबरदस्ती दबाया गया भूभाग समर्पित करने के साथ अपनी भूमि के वह हिस्से भी दे दिए हैं, जिन्हें बहादुरी के साथ हमारी सशस्त्र पुलिस ने इतने दिनों तक बचाए रखा था।
तथाकथित समझौते का सबसे खराब भाग वह है, जहां हस्तान्तरित किए गए भू-भाग में बसे लोगों को अपनी राष्ट्रीयता बदलने के लिए मजबूर किया गया है।
नेपाल नरेश से गोवंश निर्यात बन्द करने की की मांग  
दार्जिलिंग में गोवध का हृदय-विदारक दृश्य
असम में गोहत्याबन्दी के जोरदार प्रयत्न आरम्भ
गोहत्या निरोध समिति, दार्जिलिंग के एक प्रतिनिधि मण्डल ने दार्जिलिंग की गोभक्त जनता की ओर से निम्न स्मृतिपत्र नेपाल नरेश श्री 5 महाराजाधिराज महेन्द्रवीर विक्रमसाह देव को भेंट किया है:
राजन!
हिन्दूधर्म के अनुसार गोमाता की हत्या करना महापाप है, आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी राष्ट्र को बहुत बड़ी हानि है। इसलिए प्रत्येक हिन्दू के लिए गोहत्या बन्द कराना अति आवश्यक है। हिन्दू धर्मरक्षक नेपाल नरेश श्री 5 महाराजधिराज के सहयोग के बिना यह काम होना कठिन है। भारत के अन्य जिलों की अपेक्षा  दार्जिलिंग में ज्यादा गोहत्या होती है। महान दु:ख की बात है कि दार्जिलिंग व अन्य आसपास के गांवों के बूचड़खानों में (85) पचासी प्रतिशत गोवंश दक्षिणी-पूर्वी नेपाल के मार्ग से भारत में कत्ल के लिए आता है।
गो-निकास के स्थान- पुलबजार, किजनवारी, बुधवारे, सीमाना, भाने भज्यांग,कलियुगं, पोखरे, बुगं, गीगं, बदामताम आदि स्थानों से गो निकासी होती है।
नबशलबाड़ी, मतीगढ़ा, माईधार, बृगधारा, खुतनाबारी, मदनपुर, चुलाबारी, बाहुनडांगी, कालीखुटा, जानार मतिविरता, भद्रपुर आदि स्थानों के हाट बजारों में उपरोक्त स्थानों से गोवंश लाकर क्रय विक्रय किया जाता है।
गोवध के लिए विभिन्न स्थानों में जाने वाली गायों के पीठ पर लाल या सफेद रंग से संकेत अंक लिखे रहते हैं, जैसे कालिंगंपुंग का (का), खरसांग का (खा) गान्तोक का (गा) घूमकाका (घू) इत्यादि।
इन गायों के मांस, हड्डी व चमड़े द्वारा हिन्दुस्थान के देश द्रोही कसाइयों को वर्ष में लाखों रुपए प्राप्त होते हैं। इतना बड़ा गोधन का विनाश नेपाल में गोवध बन्द होने पर भी दिन और दिन होता है। इस गोधन के विनाश के कारण हिन्दुस्थान के देशद्रोही कसाई व भारत सरकार है। यही कारण है कि भारत सरकार सम्पूर्ण रूप से गोहत्या बंद नहीं कर रही है।
अतएव हम नेपाल के महाराज से नम्र निवेदन करते हैं कि नेपाल का गोधन नेपाल नेपाल में सुरक्षित रहे व मुगलान (भारत) में गोनिर्यात पर कड़ा प्रतिबंध लगावे।  दार्जिलिंग में सिर्फ नगरपालिका का क्षेत्रान्तर्गत प्रतिवर्ष 2300 से 2400 तक गोहत्या होती है। इस कुकर्म की जानकारी के लिए उपर्युक्त सत्य अंक दिए हैं। इस कुकर्म के द्वारा दार्जिलिंग नगरपालिका व भारत सरकार को तथा देशद्रोही गोमांस भक्षकों को लाभ होता है। परन्तु जनसाधारण के धर्म, अर्थ व स्वास्थ्य पर सीधा कुठाराघात किया जा रहा है।
चीन—पाकिस्तान गठबन्धन
कम्यूनिस्ट चीन और पाकिस्तान दोनों के प्रति हमारी नीति वही होनी चाहिए जो आक्रमणकारी शत्रु देश के प्रति किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र की होती है। आश्चर्य का विषय है कि हमने फारमोसा कि सरकार को अभी तक मान्यता नहीं दी। तिब्बत की स्वतन्त्रता के लिए हमारा सक्रिय योगदान होना चाहिए। दलाई लामा के प्रति हमारी नीति इस उद्देश्य कि पूर्ति में साधक न होकर बाधक ही सिद्ध हो रही है। पाकिस्तान द्वारा ताशकन्द घोषणा कि रद्दी की टोकरे में डालने के बाद हमारे नेताओं द्वारा उसकी रट लगाए जाना हास्यास्पद है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोवियत रूस की पाकिस्तान के प्रति नीति में परिवर्तन आने के कारण हम भी रूसी नेताओं को खुश करने के लिए पाकिस्तान के साथ दोस्ती का राग अलापते रहते हैं।
—पंडित दीनदयाल उपाध्याय: विचार दर्शन, खंड-7 पृष्ठ संख्या-86

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