आवरण कथा/ शिक्षा- नाम की शिक्षा और भाषाई दुष्चक्र
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आवरण कथा/ शिक्षा- नाम की शिक्षा और भाषाई दुष्चक्र

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Aug 10, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Aug 2015 14:51:08

हाल में कर्नाटक ने प्रदेश के बारह स्थानों का नाम सुधारा। अब बैंगलोर, हुबली, शिमोगा आदि स्थान क्रमश:  बैंगलूरू, हुब्बाली, शिवमोग्गा कहलाते हैं।  इससे पहले पश्चिम बंगाल ने अपना नाम बदल कर 'पश्चिम बंग' तथा उड़ीसा ने अपना नाम 'ओडिशा' कर लिया। मद्रास तो कब से 'तमिलनाडु' हो चुका है। इस प्रकार स्वतंत्रता-पूर्व भारत के सभी क्षेत्र अंग्रेजों वाले समय के बिगड़े नामों को सुधार चुके हैं। अत: अब सर्वथा उचित है कि हमारे देश का नाम भी सुधार लिया जाए। कवि अज्ञेय ने बहुत पहले हमें इसके लिए प्रेरित किया था।
विदेशी शासकों, आक्रमणकारियों द्वारा बिगाड़े या जबरन थोपे नामों को हटाने की चेतना सारी दुनिया में रही है। कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, उक्रेन, मध्य एशिया और संपूर्ण पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राड को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पड़ोस में सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका कर लिया। इन नाम-परिवर्तनों के पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक चेतना रही है। अत: जिन लोगों ने 'त्रिवेन्द्रम' को तिरुअनंतपुरम्, 'मद्रास' को तमिलनाडु, 'बांबे' को मुंबई, 'कैलकटा' को कोलकाता, 'बैंगलोर' को बैंगलूरू आदि पुन:स्थापित करना जरूरी समझा, उन्हीं से आशा और प्रार्थना है कि वे मिल-जुल कर अब 'इंडिया' शब्द को हटा भारतवर्ष कर देने की पहल करें।
यह केवल भावना की बात बिल्कुल नहीं है। दक्षिण अफ्रीका में विगत पंद्रह वर्ष में एक हजार से भी अधिक स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं! इनमें शहरों और हवाई अड्डों के ही नहीं, वहां की नदियों, पहाड़ों, बांधों तक के नाम शामिल हैं। वहां यह विषय इतना गंभीर है कि 'दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफिकल नेम काउंसिल' नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। इसका सिद्धांत यह है कि जो नाम जनमानस को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
अतएव, 'इंडिया' को सुधार कर भारतवर्ष, भारत, हिन्दुस्थान करना एक जरूरी कर्तव्य है। हमारी संस्कृति में तो नामकरण एक संस्कार, अनुष्ठान रहा है। जो बात व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है, वह सामाजिक-राजनीतिक जीवन के लिए कमतर नहीं है। नाम और शब्द हर कहीं सांस्कृतिक अस्मिता या बौद्धिक प्रभुत्व के प्रतीक एवं उपकरण होते हैं। यहां पिछले आठ सौ वर्ष से विदेशी आक्रांताओं ने हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक केन्द्रों को नष्ट कर उसे नया रूप और नाम देने का अनवरत प्रयास किया। वह अनायास नहीं था, बल्कि भारतवासियों को मानसिक रूप से भी अधीन करने का उपक्रम था।
यहां नाम और शब्द बदलने का महत्व केवल अंग्रेज ही नहीं समझते थे। जब 1940 में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की और अंतत: उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा।  वे चाहते तो नए देश का नाम 'वेस्ट इंडिया' या 'मगरिबी हिन्दुस्तान' रख सकते थे। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि देशों के विभाजनों में हुआ था। किन्तु मुस्लिम लीग ने एकदम अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाह थी। अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलमान नेताओं ने मुगलिया शब्द 'हिन्दुस्तान' भी नहीं अपनाया। क्योंकि नाम, शब्द और भाषा कोई निर्जीव वस्तु नहीं होते। वह किसी संस्कृति के संरक्षक और पहचान होते हैं। उनमें किसी समाज की सहस्रों वर्ष पुरानी परम्परा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा अथवा उसके शब्दों को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी चेतना और ज्ञान-भंडार भी छोड़ता है। अत: यह संयोग नहीं कि अंग्रेजी माध्यम शिक्षित भारतीय बच्चों, युवाओं में बड़ी संख्या में ऐसे मिल जाएंगे जो सांस्कृतिक रूप से काला-अक्षर-भैंस बराबर हैं।
वस्तुत:, सन् 1947 के बाद हमारे कर्णधारों से जो सबसे बड़ी भूलें हुईं, उनमें से एक यह थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम 'इंडिया' रह गया।  'टाइम्स ऑफ इंडिया' के विद्वान संपादक गिरिलाल जैन के अनुसार 'इस एक शब्द ने भारी तबाही की।' यदि स्वतंत्र देश का नाम भारत रहा होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहां किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! जैन के अनुसार, 'इंडिया' शब्द ने पहले 'इंडियन' और 'हिन्दू' को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने 'इंडियन' को हिन्दू से बड़ा बना दिया। यदि यह न हुआ होता तो आज सेक्युलरिज्म, डाइवर्सिटी, और मल्टी-कल्टी (बहुसांस्कृतिक) का हिन्दू-विरोधी शब्द-जाल व बौद्धिक फंदा रचने वालों का काम सरल न रहा होता।
यदि देश का नाम भारत रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अभी भी 'हिन्दवी' या 'हिन्दी / हिन्दू मुसलमान' ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को 'हिन्दू' ही कहते रहे और आज भी कहते हैं। यदि देश का नाम ठीक कर लिया जाता, तो आज भी मुसलमान स्वयं को भारतीय या हिन्दवी कहते जो एक ही बात है।
'इंडिया' को बदलकर भारत करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि यह किसी विशेष समूह से जुड़ा हुआ नहीं है। भारत शब्द इस देश की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। अत: जिस कारण मद्रास, बांबे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को सुधारा गया, वह देश का नाम सुधारने, बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। 'इंडिया' शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। कुछ समय पहले गोवा के सांसद शांताराम नाईक ने इस संबंध में राज्यसभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया भी था कि संविधान की प्रस्तावना तथा अनुच्छेद एक में 'इंडिया' शब्द को हटाकर भारत कर लिया जाए। भारत अधिक व्यापक और अर्थवान शब्द है, जबकि 'इंडिया' मात्र एक भौगोलिक उक्ति। श्री नाईक एक बहुत बड़े दोष को दूर करने के लिए आगे बढ़े। पर इसके पक्ष में किसी जागरूक अभियान का अभाव रहा है। तभी तो नाईक के प्रस्ताव का कुछ नहीं हुआ।
देश का नाम भारत करने में हमारे अंग्रेजीदां लोग, विशेषकर 'रेडिकल', 'सेकुलर', 'ग्लोबल' कहलाने वाले बुद्धिजीवियों की कोई रुचि नहीं है। उनमें अनेक को 'भारतीयता' से वितृष्णा है। इसीलिए चाहे वे मद्रास, कैलकटा, बांबे आदि पर निर्विकार रहें, पर 'इंडिया' नाम बदलने पर वे चुप नहीं रहेंगे। इससे इस बिन्दु की परीक्षा भी हो जाएगी कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं! फिर भी, नरेंद्र मोदी और दक्षिण भारत चाहें, तो यह महान कार्य कर सकते हैं!
यह केवल एक शब्द की बात नहीं है, बल्कि हमारी भाषा, संस्कृति और शिक्षा से जुड़ी बात है। लेकिन भाषा के प्रश्न पर कभी गंभीरता से विचार होने नहीं दिया जाता। आंग्ल-भाषी बुद्धिजीवी उपहास, क्रोध, आदि लटकों से बात शुरू होने से पहले ही उसे जबरन दबा देते हैं। अंग्रेजी की जोर-जबरदस्ती इस चतुराई से थोप दी गई है, मानो इसी में जनता की भलाई निर्विवाद हो!  जबकि ऐसा कुछ नहीं है। यहां जन-हित की दृष्टि से तथ्य, तर्क और व्यावहारिकता, सभी कुछ अंग्रेजी के विरुद्ध जाते हैं। ठीक इसीलिए इस पर कभी संजीदा विमर्श होने नहीं दिया जाता। सदैव उपहास का स्वांग रचकर बात को रफा-दफा करने की सफल कोशिश होती है।
किन्तु यदि गंभीरता से विचार करना चाहें, तो इधर एक महत्वपूर्ण पुस्तक आई है: 'भाषा-नीति: द इंग्लिश मीडियम मिथ, डिसमैंटलिंग बैरियर्स टु इंडियाज ग्रोथ' (2014)।  इसके लेखकों सर्वश्री संक्रान्त सानू, राजीव मल्होत्रा और कार्ल क्लेमेन्स ने दिखाया है कि अंग्रेजी माध्यम का वर्चस्व भारत के विकास में बाधा है।
इस प्रसंग में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी माध्यम में अंतर रखना जरूरी है। अंग्रेजी भाषा, साहित्य का अध्ययन करना ठीक है। किन्तु भारत में शिक्षा, शासन, न्यायालयों का, विज्ञापन, उद्योग, आदि सब कुछ का माध्यम अंग्रेजी को बनाए रखना, यह हानिकारक है।  यही हमारी उन्नति के लिए बाधक है। इस पुस्तक में दुनिया के बीस सबसे अग्रणी और बीस सबसे पिछड़े देशों का आकलन है। वे अग्रणी देश अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा, शोध, शासन, कानून, विज्ञान-तकनीक और उद्योग चलाते हैं,  जबकि सबसे पिछड़े देशों में अधिकांश किसी न किसी विदेशी भाषा को अपनी शिक्षा, सत्ता की भाषा बनाए हुए हैं। अत: देश की सर्वतोमुखी उन्नति  यानी संपूर्ण जनता की समान भागीदारी  के लिए विदेशी भाषा का जुआ उतारना जरूरी है। अन्यथा यह लोगों को बांध, उलझा कर उसकी संपूर्ण क्षमता का उपयोग करने ही नहीं देता।
रोचक बात यह है कि इस बुनियादी तथ्य को स्वयं लार्ड मैकाले के प्रस्ताव के विरोधी अंग्रेज सदस्यों ने उसी ब्रिटिश संसद समिति में रखा था जो भारत में शिक्षा माध्यम पर विचार कर रही थी। मैकाले का तर्क था कि यूरोपीय ज्ञान ही मूल्यवान है, और भारतीय भाषाओं में कोई ज्ञान है ही नहीं। (यद्यपि मैकाले ने स्वयं यह भी कहा था कि वे संस्कृत में उपलब्ध ज्ञान से पूर्णत: अपरिचित हैं)। इसलिए भारतीयों को शिक्षित बनाने के लिए उन्हें अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाना ठीक है। इसके विरुद्ध दूसरे अंग्रेजों का तर्क इस प्रकार था, देसी साहित्य का विनाश कर, अपनी मानसिक क्षमता के उपयोग से होने वाले आनन्द और अभिमान को हटा कर, एक संपूर्ण जनता को शब्दों  और विचारों के लिए किसी दूर, अनजान देश पर पूरी तरह निर्भर बनाकर, हम उनका चरित्र गिरा देंगे, उनकी ऊर्जा मंद कर देंगे और उन्हें किसी भी बौद्धिक उपलब्धि की चाह रखने तक में असमर्थ बना देंगे। सन् 1835 में कही गई यह बात पूरी तरह चरितार्थ हुई। ऐसा कहने वाले अंग्रेज सदस्य समिति में मैकाले के सामने हार गए थे। मगर स्वतंत्र भारत के नेतागण आज तक उस मोटी बात को नहीं समझ पाए, यह आश्चर्य है!
या कि कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम पर निर्भरता ने हमारे लोगों को विश्व के समक्ष किसी बौद्धिक उपलब्धि की चाह से ही हीन बना दिया है। वे अमरीकी-यूरोपीय विज्ञान-तकनीक के दूसरे दर्जे के सहयोगी और कॉल-सेंटरों की 'क्लर्की' करने को ही परम उपलब्धि मान कर संतुष्ट हैं। अन्यथा यदि जनमत-संग्रह हो तो देश के हर भाग में प्रचंड बहुसंख्या अंग्रेजी के जबर्दस्ती बोझ से मुक्ति चाहेगी। लेकिन चतुराई पूर्वक भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ाकर, सबको तैयार किया गया है कि लोग स्वत: अंग्रेजी-अंग्रेजी की मांग करें। चतुराई यह है कि अंग्रेजी को पहले से ही विशेषाधिकारी स्थिति में रखकर सारी बात होती है। यह संभावना रखने ही नहीं दी जाती कि अंग्रेजी को हटाकर शासन, उच्च-शिक्षा, शोध आदि के लिए कोई भारतीय भाषा भी हो सकती है!
सारी समस्या, धूर्तता और मूलभूत बिन्दु यही है। सदियों से गुलाम रहे भारतीयों की अधीन मानसिकता के सहारे यह स्थिति बनाए रखी गई है कि वे किसी भारतीय भाषा में काम करने की बजाए एक विदेशी भाषा स्वीकार करें, ताकि सभी भारतीयों को 'एक जैसी कठिनाई' हो।  इसमें छिपा, किंतु झूठा संकेत यह रहता है कि किसी भारतीय भाषा को स्थान देने से कुछ भारतीयों को आसानी होगी, दूसरों को कठिनाई।
इस में सबसे महत्वपूर्ण बात छिप जाती है कि कोई भी भारतीय भाषा किसी भी भारतीय को अंग्रेजी की तुलना में कई गुना सरल, सहज होगी। उस पर अधिकार करना किसी के लिए दो-चार वर्ष की ही बात होगी, जो अंग्रेजी के लिए पूरा जीवन लगाकर भी किसी के लिए कभी संभव नहीं होता। हर भारतीय भाषा हरेक भारतीय के लिए अंग्रेजी की तुलना में अपनी है और इसलिए कई गुनी सरल है! मगर इस तथ्य को छिपा कर, कपटपूर्वक अंग्रेजी को एक स्थायी उच्चाधिकारी स्थिति में रखकर, लोगों को 'चुनने' के लिए कहा जाता है। यह चुनाव है ही नहीं! एकदलीय राजनीतिक प्रणाली की तरह लोगों के समक्ष चुनाव का नाटक है, जिसमें पहले से तयशुदा व्यक्ति को वोट देने की विवशता बनाई जाती है। यहां 'लोगों द्वारा ही' अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की मांग ऐसी ही है। जब पहले से तय हो कि बड़ी नौकरी, उच्च-शिक्षा अंग्रेजी में ही मिलेगी, तब अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ने को कौन नहीं लालायित होगा? लोगों की इच्छा की वास्तविकता तो तब तय होगी जब अंग्रेजी माध्यम को विशेषाधिकारी स्थिति से हटाने का विकल्प भी रखा जाए। यह असंभव नहीं है। हाल में, इस्रायल नामक नए देश ने, पूरी तरह विस्मृत प्राचीन हिब्रू भाषा को अपनी शिक्षा और शासन का माध्यम बना कर वह सब उपलब्ध किया जो दुनिया के किसी भी देश में है। सवार्ेच्च विज्ञान, तकनीक और शोध इस्रायल में हिब्रू में होता है। वही स्थिति जर्मनी, जापान, रूस, फ्रांस, चीन, कोरिया, आदि सभी अग्रणी देशों में है जहां अपनी भाषाओं में ही सारा काम होता है।
वस्तुत: उन देशों की सर्वतोमुखी और विश्व-स्तरीय उन्नति का रहस्य ही इसी में है कि स्व-भाषा में शिक्षा-शासन होने से पूरी आबादी अपनी सवार्ेच्च क्षमता का प्रयोग कर सकने में समर्थ है। इसके विपरीत, जिन देशों में किसी विदेशी भाषा का राज है, वहां एक अल्प-संख्या को छोड़कर शेष आबादी भाषाई जंजीर से बंधकर बौद्धिक, मानसिक रूप से घिसटने के लिए अभिशप्त रहती है। भारत की स्थिति यही है।
हमें अंग्रेजी माध्यम शिक्षा से लाभ हुआ है, यह कोरा राजनीतिक प्रचार या घोर अज्ञान है। सूचना-तकनीक में भारत की उन्नति को अंग्रेजी से गलत जोड़ा जाता है। यदि कारण वह होता तो केन्या या पाकिस्तान में भी वही अंग्रेजी माध्यम है। उन देशों में वही उन्नति क्यों न हुई? यानी कोई अन्य बातें हैं, जिनसे अंग्रेजी के बावजूद भारत में कुछ उन्नति हुई है। वैसे भारत के विकास का दावा भी एकांगी है। यह सही मानकों पर होता ही नहीं। हम किस चीज में जापान, जर्मनी या चीन से अपनी तुलना कर सकते हैं? जबकि ये तीनों देश भारत की स्वतंत्रता के समय मिट्टी में मिले हुए थे। तब उनकी चौतरफा उपलब्धियों में से किस बिन्दु पर हम तुलनीय हैं? हमारी उन्नति और इसमें अंग्रेजी के योगदान की सारी बात कृत्रिम और अनेक तथ्यों को दबा-छिपा कर होती है। परतंत्रता को स्वाभाविक स्थिति मानकर 'स्वतंत्र' विमर्श के दावे जैसी यह नकली है।
शिक्षा का उदाहरण लें, पचास वर्ष पहले जिन सरकारी हाई स्कूलों की इलाके में धाक थी, वहां अब उल्लू बोलते हैं। अंग्रेजी या हिन्दी, किसी भी भाषा में स्तरीय लिख सकने वाले विद्यार्थी क्या, शिक्षक भी ढूंढना पड़ता है। यह साफ अवनति है। इसका भी एक बड़ा कारण अंग्रेजी का बढ़ता दबाव है। स्वयं औपनिवेशिक अंग्रेज सत्ताधारियों ने डेढ़ सौ वर्ष पहले भी अपने आकलन में पाया था कि यहां देसी माध्यम विद्यालयों में शिक्षक अधिक कर्मठ, समर्पित थे। वातावरण अधिक स्वच्छ और विद्यार्थियों की उपस्थिति उत्साहपूर्ण थी। मगर आज हमारे छोटे शहर का वही स्कूल, जो हिन्दी माध्यम रहने तक उत्कृष्ट था, बाद में अंग्रेजी माध्यम में बदला और आज चौपट हो चुका है। शिक्षक स्वयं रो रहे हैं कि क्या करें?  इस अंग्रेजी के कांटे में सब-कुछ उलझ जाता है।  क्या इसे उन्नति कहना चाहिए?
याद रहे, उन्नति का अर्थ केवल आर्थिक नहीं होता। सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक पक्ष को दरकिनार कर उन्नति की बात करना मूर्खता है।
हमारे करोड़ों शिक्षित लोग कोई भाषा अधिकारपूर्वक नहीं जानते। न अंग्रेजी, न मातृभाषा। हमारे बेहतरीन भी विश्व-स्तर पर औसतता (मीडियॉकर) से ऊपर नहीं जाते। यूरोप, अमरीका में रह रहे भारतीय बताते हैं कि भारतीय इंजीनियर परिश्रमी हैं, मात्रा में अधिक काम करते हैं। किंतु गुणवत्ता-पूर्ण कार्य, नई खोज, आदि प्राय: अमरीकी, यूरोपीय इंजीनियर करते हैं, जो समय से अधिक एक मिनट भी काम नहीं करते।  हमारी औसतता की जड़ उस मानसिक बंधन में भी है, जो विदेशी भाषा के जाल में फंस कर बौद्धिक उन्मुक्तता से अपरिचित रह गई है।
यदि अंग्रेजी से भारत की उन्नति हुई है, तो भारत में कौन सा विश्वविद्यालय है जिसे विश्व में किसी लायक गिना जाता हो? हमारे देश में प्रतिभा है, मगर वह एक सीमा से अधिक ऊपर नहीं जा पाती। ऐसा पहले नहीं था। अठारहवीं शताब्दी तक भारत दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश था, जो स्पष्टत: वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमता का भी द्योतक था। तब त्  ाक हमारी शिक्षा देसी थी – क्या इस तथ्य को महत्व नहीं मिलना चाहिए? उसी शिक्षा के बल पर सौ वर्ष पहले तक भारत ने अनेक विश्व-स्तरीय वैज्ञानिक, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, अन्वेषणकर्ता तथा महान चिन्तक, दार्शनिक दिए थे। इसके विपरीत स्वतंत्र भारत में कौन से वैज्ञानिक या चिन्तक, मनीषी हुए?
इसकी तुलना विगत साठ वर्ष में इस्रायल से कर लें। भारत के एक बड़े जिले जैसे इस नन्हें देश ने हिब्रू भाषा में ही विश्व-स्तरीय वैज्ञानिक सफलताएं हासिल की हैं। लगभग जैसलमेर जितना क्षेत्र और एक करोड़ से भी कम आबादी के इस्रायल ने उस भाषा को अपने संपूर्ण कार्य का आधार बनाया, जिसे सदियों से मृत मान लिया गया था! स्वभावत: उसमें आधुनिक चीजों, अवधारणाओं, आदि के लिए शब्द न थे। किंतु 1948 में अपनी स्थापना से इस्रायल ने हिब्रू भाषा द्वारा ही सब कुछ करना तय किया। उसी से वहां विज्ञान-तकनीक में श्रेष्ठतम आविष्कार होते रहे हैं। वही स्थिति रूस, जापान, चीन की है, जहां तनिक भी अंग्रेजी न जानने वाले वैज्ञानिक भी नोबेल-पुरस्कार स्तर के कार्य करते रहे हैं।
इसका संबंध उस खुलेपन और आत्मविश्वास से अवश्य है, जो हरेक प्रतिभावान को उसकी अपनी भाषा देती है। भाषा कोई यांत्रिक उपयोग की निर्जीव वस्तु नहीं, बल्कि एक जीवंत वातावरण है जिसमें कोई व्यक्ति 'होता' है। भाषा मनुष्य की अस्मिता से जुड़ी है, इसलिए उसका होना उसकी अस्मिता की भाषा से अनिवार्यत: संबंधित है। इस बिन्दु पर एक आम भारतीय प्रतिभा घड़े में बंद जीव जैसी फंसी रहती है। इसकी परख हो, तब लगेगा कि जो भारतीय कॉल-सेंटर कर्मचारी बन कर संतुष्ट हैं, वही और भी ऊंचे जा सकते थे, यदि अपनी भाषा में सवार्ेत्तम शिक्षा पाते। जिस तरह राजनीतिक उपनिवेशवाद भारतीयों को एक निम्न सीमा में रखता था, उसी प्रकार भाषाई औपनिवेशिकता भी हमें मानसिक, वैचारिक, बौद्धिक सीमा में बांधे हुए है।  इस देश की लाखों प्रतिभाएं बौनी बनी रहने के लिए अभिशप्त हैं। हमारे तकनीकी-इंजीनियर ही नहीं, लेखक, विचारक, संस्कृतिकर्मी, आदि भी विश्व-मंच पर हाशिए पर ही कहीं दिख सकते हैं।
वस्तुत: मैकाले की सदिच्छा अज्ञानजन्य थी और हमारे अंग्रेजी-समर्थक बौद्धिक वर्ग की भी। परिणाम भी समरूप रहा है। यहां अंग्रेजी समाज को जोड़ती नहीं, विलग करती रही है, सबको, सब से। यह अंग्रेजी भाषा का दोष नहीं, बल्कि उसकी विजातीय भूमिका के कारण है। तद्नुरूप हम संकर-विकृत-संस्कृति, विजातीय शिक्षा व कुशिक्षा के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं। ऊपर मैकाले-विरोधी अंग्रेज का तर्क पुन: पढ़ें, तो आम विद्यालयों की शिक्षा की दुर्गति और उससे होने वाले भयावह परिणाम का सूत्र समझा जा सकेगा। स्वतंत्र भारत में मैकाले तर्क को ही स्थाई मान्यता दे दी गई। इसी कारण भारत विश्व में बौद्धिक क्षेत्र में नीचे रहने के लिए अभिशप्त है।
साथ ही, करोड़ों भारतीय अपने ही देश में किसी भी विमर्श में बराबरी से भाग लेने से वंचित हैं। अंग्रेजी के कारण बौद्धिक, नीतिगत, गतिविधियां मुट्ठी भर लोगों तक सीमित हैं। यह हीनता, विषमता तब तक रहेगी जब तक सभी भारतीय अंग्रेजी-कुशल नहीं हो जाते। सच्चा लोकतंत्र तभी होगा यानी भारतीय भाषाओं की सामूहिक आत्महत्या कर लेने के बाद! क्या वह 'उन्नति' होगी और क्या वही हमें अपेक्षित है?देश स्वार्थ और अज्ञान के एक दुष्चक्र में फंसा हुआ है। संयोगवश मोदी-चुनाव ने इसे अनायास एक बार तोड़ दिया है। अत: अभी एक अवसर है कि इसके पुन: जुड़ जाने की संभावना खत्म की जाए। विशेषाधिकारी स्वार्थ और अज्ञान को समाप्त किया जाए। इसके लिए पूरे देश में शिक्षा और भाषा को स्वदेशी आधार देना आवश्यक है।      ल्ल

महापुरुषों की वर्णमाला
सामान्यत: बच्चों को अंग्रेजी वर्णमाला (ए,बी,सी,डी…) का ज्ञान  'ए' से 'एप्पल', 'बी' से 'बॉल', 'सी' से 'कैट' आदि के जरिए दिया जाता है।  लेकिन कर्नाटक के सेवानिवृत्त शिक्षक कल्याण मरली ने बच्चों को अंग्रेजी वर्णमाला सिखाने के साथ-साथ उन्हें अपने महापुरुषों की जानकारी देने के लिए एक पुस्तिका तैयार की है।  इसका नाम है 'नेशनाइलिजेशन ऑफ ए.बी.सी.डी. अल्फाबेट्स'। इसमें अंग्रेजी वर्णमाला के 26 अक्षरों में देश के प्राचीन एवं आधुनिक सन्तों, वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, समाज सुधारकों, क्रांतिकारियों आदि की संक्षिप्त जानकारी कन्नड़, अंग्रेजी और हिन्दी में दी गई है। इनमें प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट, कर्नाटक के क्रांतिकारी बसवेश्वर, चाणक्य, स्वामी दयानन्द सरस्वती, एकनाथ रानाडे, गुरु गोबिन्द सिंह के पुत्र फतेह सिंह, गुरुजी गोलवलकर, वैज्ञानिक होमी भाभा, चालुक्य वंश के राजा इम्मडि पुलिकेशी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, कित्तूर रानी चेन्नम्मा, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, ओनके ओब्व्वा, पंडित मदनमोहन मालवीय, क्वीन अब्बका, रामकृष्ण परमहंस, सरदार बल्लभ भाई पटेल, तात्या टोपे, ऊधम सिंह, स्वामी विवेकानन्द, वाघा जतीन, क्षुदिराम (खुदीराम) बोस, यादवराव जोशी और सन्त झूलेलाल शामिल हैं। घरों और कक्षाओं में टांगने के लिए अंग्रेजी वर्णमाला पर आधारित एक कैलेंडर भी इन दिनों बांटा जा रहा है। अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें- मातृगंगा, गुलेदगुड्ड, बदमी, बागलकोट-587203 (कर्नाटक)।

सुगम और सहज स्वभाषा
'भाषा-नीति: द इंग्लिश मीडियम मिथ, डिसमैंटलिंग बैरियर्स टु इंडियाज ग्रोथ' तीन लेखकों की संयुक्त रचना है। ये लेखक हैं- संक्रान्त सानू, राजीव मल्होत्रा और कार्ल क्लेमेन्स। इन विद्वान लेखकों ने इस पुस्तक में साफ-साफ लिखा है कि यह विचार खरीदा हुआ है कि भारत केवल अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से ही प्रगति कर सकता है। इसलिए चिकित्सा विज्ञान, विधि, न्यायालय, अभियंत्रण आदि में अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि कई अमीर देशों के लोग अपनी मातृभाषा में ही विज्ञान की पढ़ाई कर अच्छी उपलब्धि हासिल कर रहे हैं। अपनी भाषा से जितनी समझ बढ़ सकती है उतनी पराई भाषा में नहीं। भारत को विकास में आगे बढ़ना है तो उसे सभी भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा देनी होगी।
यह पुस्तक सिन्नमोन्टिल पब्लिशिंग (डोगेयर्स प्रिंट मीडिया प्रा. लि., प्लाट न.-16, गोगल हाउसिंग बोर्ड कालोनी, मारगओ, गोवा-403601) से प्रकाशित हुई है।  240 पृष्ठ की इस पुस्तक की कीमत है 550 रुपए।

मुशर्रफ भी 'महापुरुष'
आशा क्राइस्ट स्कूल, ग्वारीघाट, जबलपुर (म.प्र.) में कक्षा-7 के बच्चों को नैतिक शिक्षा के नाम पर  पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ  को महापुरुष के रूप में पढ़ाया जा रहा है। जबकि उन्हीं मुशर्रफ के कार्यकाल में  कारगिल युद्ध हुआ था। उस समय पाकिस्तानी सेना के जवानों ने छद्म रूप धारण कर भारत पर हमला किया था। जबकि मुशर्रफ बार-बार कहते रहे थे कि कारगिल में पाकिस्तानी सेना नहीं है।  उस लड़ाई में हमारे सैकड़ों वीरों ने शहादत थी। इन दिनों पाकिस्तान में भी मुशर्रफ पर हत्या और देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है।  जिन मुशर्रफ के कारण भारत में आतंकवाद को बल मिला, उन मुशर्रफ को भारत में महापुरुष के रूप में पढ़ाना कितना उचित है?  इस पुस्तक से विवादित अंश को हटाने के लिए अनेक संगठनों ने विरोध किया है। इस किताब को गायत्री पब्लिकेशन,दिल्ली ने प्रकाशित किया है। 

-शंकर शरण
लेखक महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं

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