चर्च और वेटिकन के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र में दस्तक
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चर्च और वेटिकन के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र में दस्तक

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Aug 1, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Aug 2015 14:53:22

 

 वंचित ईसाइयों ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की कि वह चर्च को जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोकें और अगर चर्च ऐसा नहीं करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई वंचितों के 'आब्जर्व' के दजेंर् को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
भारत के चर्च ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस अंतरराष्ट्रीय संगठन के सामने वह कई दशकों से देश के वंचितों, आदिवासियों और उत्पीडि़त समूहों के अधिकारों के रक्षक के रूप में खड़ा है एक दिन उसके अपने अनुयायी ही उसे एक अपराधी की तरह प्रस्तुत कर देंगे। पिछले दिनों वंचित ईसाइयों (कन्वर्टेड ईसाइयों) के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन वंचित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में वंचित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार-बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है।
भारत में कुल ईसाई संख्या का सत्तर प्रतिशत वंचित ईसाई हैं जिनकी चर्च संस्थानों में कोई भागीदारी नहीं है। वंचित ईसाइयों ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की कि वह चर्च को जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नही करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई आब्जर्वर के दजेंर् को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
ईसा के शिष्य संत थॉमस के साथ ही ईसाइयत ने भारत में प्रवेश किया था। दक्षिण भारत के मालावार और पूर्वी समुद्र तट पर उन्होंने प्रचार किया और बहुतों को बपतिस्मा दिया। जब उपनिवेशवादी ताकतें भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में लगी थीं उस समय ईसाई मिशनरियों ने उसे सत्ताधीशों के लिए सत्ता माध्यम बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक भारत में ईसाइयत को आगे बढ़ने के वे सभी अवसर प्राप्त हुए जिनकी उसे जरूरत थी। धर्मप्रचार के कार्य में लगे मिशनरी ईसाइयत को सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में ले जाना चाहते थे। उनकी इस भावना का सम्मान करते हुए ब्रिटिश सरकार ने मिशनरियों के शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य कायार्े के लिए जमीन अनुदान में देने एवं अन्य सहूलियतें प्रदान कीं। सेवा के कार्योर्ं के साथ-साथ उन्होंने कन्वर्जन का कार्य भी शुरू कर दिया।
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की शुरुआत कर मिशनरियों ने ब्रिटिश सरकार के कामकाज के लिए स्थानीय लोग तैयार किये जिसका ब्रिटिश सरकार को भारी फायदा हुआ। स्वयं ईसाई पंथ प्रचारकों का मत है कि भारत में कन्वर्जन बड़ी संख्या में निम्नवर्गों के बीच हुए लेकिन सत्ता और कन्वर्ट होने का लाभ उच्चवगार्े को मिला। सदियों से हिन्दू समाज के वंचितों को ईसाइयत में दीक्षित किया जाता रहा है इस वायदे के साथ कि ईसाई समाज में जाति भेदभाव नहीं है और ईसाइयत में उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। यह सच है कि हिन्दू समाज में वंचित भेदभाव का शिकार थे, लेकिन ईसाई होकर भी वह भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। लोगों ने इस उम्मीद के साथ ईसाइयत का दामन पकड़ा था कि उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान मिलेगा, लेकिन आज चर्च के ढांचे में वह उत्पीडि़त हो रहे हैं। ईसाइयत में दीक्षित करने के लिये मिशनरियों का आसान टारगेट भारत के वंचित वर्ग ही रहे। आंध्र प्रदेश में माला तथा मडिगा, केरल में पुलाया, महाराष्ट्र में महार तथा मांग, मध्य प्रदेश में भिलाई, गुजरात में ढेड़, पंजाब में लालबेगी तथा उतर प्रदेश और बिहार में पिछड़ा समुदाय को बड़े पैमाने पर कन्वर्ट किया। यह सारी जातिया ईसाइयत में आने के तीन सौ वषार्ें बाद भी पीडि़त हैं क्योंकि चर्च नेतृत्व ने उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कोई खास प्रयास ही नही किये।
हालांकि ईसाई मिशनरियों के पास संसाधनों का विशाल भंडार है और भारत सरकार के बाद उसे दूसरा संयुक्त ढांचा कहने में संकोच नही होगा। भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने वाली सवैंधानिक धाराओं का दुरुपयोग करते हुए चर्च ने भारत में कितनी संपति इकट्ठी की है इसकी निगरानी करने का कोई नियम ही नहीं है। जबकि हिदुओं के लिए देवआश्रम अधिनियम, मुस्लिम समाज के लिए वक्फ बोर्ड अधिनियम और सिख समाज के लिए गुरु द्वारा प्रबंधक अधिनियम है। ईसाई संगठन 'पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट' ने सरकार से चचार्े और उसके संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए एक कानून लाए जाने की मांग की है। भारतीय चर्च के इस विशाल साम्राज्यवाद में दलित ईसाइयों की कितनी हिस्सेदारी है। ईसाई संगठन पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने पिछले डेड दशक में कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया, पोप जन पॉल, पोप बेनडिक्ट सोलहवें और वर्तमान पोप फ्रांसिस को पत्र लिखकर चर्च के अंदर वंचित ईसाइयों को सामाजिक, आर्थिक और अध्यात्मिक समानता देने और उन्हें मुआवजा देने की मांग की है। वंचित ईसाइयों को उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज सुनी जाएगी।
    आर. एल. फ्रांसिस -लेखक पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष हैं ।    

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