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दानवों का कैसा मानवाधिकार

by
Aug 1, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Aug 2015 14:46:29

आर. के. सिन्हा
 देश में गांधीजी की हत्या के समय भी आज की तरह से कथित मानवाधिकारवादी बिरादरी होती तो वह नाथूराम गोडसे तथा नारायण आप्टे को फांसी की सजा से बचाने के लिए हरसंभव कोशिश करती। मुंबई धमाकों के गुनाहगार याकूब मेमन को फांसी से बचाने के लिए जिस तरह से ये कथित सेकुलर और मानवाधिकारवादी सक्रिय हुए उसने पंजाब में आंतकवाद के काले दिनों की यादें ताजा कर दीं। याकूब मेमन की फांसी रुकवाने के लिए जिस तरह की कोशिशें हुईं, उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। पंजाब में भी आतंकवाद के दौर में कथित मानवाधिकारवादी आतंक फैलाने वालों के ही हकों की बात करते थे। वे उन अभागे लोगों के बारे में कभी बात नहीं करते थे जो आतंकियों की गोलियों के शिकार होते थे। तब पंजाब के पुलिस महानिदेशक के. पी. एस. गिल ने तो कहा भी था कि 'क्या सारे अधिकार मारने वाले के ही होते हैं, मरने वाले का या उसके सगे-संबंधी का कोई अधिकार नहीं होता।' बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय ने मेमन की फांसी रुकवाने की कोशिश करने वालों को भी निराश नहीं किया। उन्हें अंत तक अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया। देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ 30 जुलाई तड़के तक सर्वोच्च न्यायालय ने बारीकी से याकूब के पैरोकारों की दलीलें सुनीं।  भारत की मजबूत न्याय व्यवस्था की इससे बड़ी मिसाल शायद ही मिले। बेशक, कोई माने, या न माने, पर मानवाधिकार संगठनों के मापदंड हमेशा दोहरे ही रहते हैं। वे  राज्य के व्यवहार की बातें  तो करते हैं, लेकिन, आतंकियों के व्यवहार को जानबूझ कर भुला देते हैं। इस तरह वे कई बार आतंकियों के हकों के रक्षक बन जाते हैं। मानवाधिकार की बात करने वाले संगठन आतंकियों की ओर से की जाने वाली गैर मानवीय गतिविधियों को भूल जाते हैं। इन आतंकियों के लिए मानवाधिकारों की मांग करना, उन निर्दोष लोगों के मानवाधिकार का हनन है, जो उनकी आतंकी गतिविधियों का शिकार हुए हैं। ये संगठन मुंबई धमाकों के आरोपियों सहित कई आतंकियों की इस आधार पर सजा माफी मांगते रहे  हैं, कि वह मानसिक संतुलन खो चुके हैं, या बीमार हैं। मानवाधिकार का तर्क देने वाले कई बार पक्षपाती हो जाते हैं।  
ऐसा याद नहीं पड़ता कि बड़े शहरों में ठाठ से  रहने वाले मानवाधिकारवादियों ने एक बार भी उन लोगों से मुलाकात करके उनके आंसू पोंछने की कोशिश की हो जिनके अपने लोग मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में मारे गए थे। कुछ समय पहले ही मुंबई धमाकों के कुछ पीडि़तों के परिजनों ने याकूब मेमन को फांसी देने की मांग की थी। इस बाबत उन्होंने एक सामूहिक याचिका महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस को दी थी। उस ज्ञापन में तुषार देशमुख ने लिखा, 'याकूब को तत्काल फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना चाहिए। मुंबई बम धमाकों में तुषार ने  ने अपनी मां को खो दिया था। तुषार ने कहा,  'मैंने अपनी मां को खोया है उन धमाकों में। कोई मेरा दर्द भी सुन ले। हम मांग करते हैं कि याकूब की मौत की सजा पर तत्काल प्रभाव से अमल किया जाए।
बेशक लोकतंत्र में मतभिन्नता के लिए जगह होनी चाहिए। अलग राय और विचार का स्वागत होना चाहिए। पर, राष्ट्रद्रोहियों, आतंकवादियों और किसी भी हत्यारे का ही पक्ष भी नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन मानवाधिकार का ढोल पीटने वाले कथित सेकुलरों ने याकूब मेमन के मामले में राष्ट्रपति को पत्र लिखकर ऐसा किया। इन्होंने उसे फांसी की सजा से बचाने की हर संभव कोशिश की। इनमें सीपीएम के सीताराम येचुरी, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर, सीपीआई के डी राजा, वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी, फिल्मकार महेश भट्ट, अभिनेता नसीरुद्दीन शाह,अरुणा रॉय समेत कई क्षेत्रों और राजनैतिक दलों के लोग शामिल हैं। यह राष्ट्रद्रोह का खुल्लम खुल्ला समर्थन नहीं है तो और क्या है? हालांकि ये बात समझ से परे है कि मेमन के लिए तो इन खासमखास लोगों के मन में सहानुभूति का भाव पैदा हो गया, पर इन्होंने कभी उन तमाम लोगों के बारे में बात नहीं की जो बेवजह बम धमाकों में मारे गए थे। आखिर उनका कसूर क्या था? इस सवाल का जवाब इन कथित खास लोगों के पास शायद नहीं है। पंजाब में आतंकवाद के दौर को जिन लोगों ने करीब से देखा है, उन्हें याद होगा कि तब भी स्वयंभू मानवाधिकारवादी बिरादरी पुलिस वालों के मारे जाने पर तो शांत रहती थी, पर मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकियों को लेकर स्यापा करने से पीछे नहीं हटती थी। इनको कभी पीडि़त के अधिकार नहीं दिखाई देते। इन्हें हमेशा मारने वाला ही अपना लगता है।
सवाल बहुत साफ है कि किन मानवाधिकारों की बात करते हैं ये मानवाधिकारवादी ? क्या मानवाधिकारों पर उन्मादियों एवं चरमपंथियों का ही 'कॉपीराइट' अधिकार है? क्या आतंकी घटना अथवा नक्सली हिंसा में मारे गए जवानों और निर्दोष एवं निरीह जनता के मानवाधिकार नहीं होते? सैन्य कार्रवाई पर प्रश्नचिह्न लगाना क्या सेना का मनोबल गिराने वाला कुकृत्य नहीं है? क्या आतंकी घटनाओं में मृत आम आदमी के मानवाधिकार नहीं होते? यदि होते हैं तो इन माननीयों का ये कृत्य आम आदमी के मानवाधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में नहीं आता? अनेकों प्रश्न और भी हैं जो लोगों के दिलों में हैं। जहां तक प्रश्न है मानवाधिकरों का तो वह निश्चित तौर पर मनुष्यों पर लागू होते हैं न, कि शैतानों पर। जेहाद के नाम पर मासूमों का बेरहमी से कत्ल करने वालों को मानव कहलाने का अधिकार ही नहीं होता। फिर ऐसे जानवरनुमा व्यवहार करने वाले इन लोगों के मानवाधिकारों का कोई प्रश्न  ही नहीं उठता । मुझे तो ये हैरानी हो रही है कि ये मानवाधिकारवादी अभी तक उन आतंकियों के पक्ष में नहीं बोल रहे जिन्हें गत दिनों पंजाब के जांबाज सिपाहियों ने गुरुदासपुर में ढेर किया! दरअसल देशद्रोहियों को मृत्युदंड देना किसी भी राष्ट्र का धर्म  है।
फांसी उन्हें भी देनी चाहिए जो  मजहबी उन्माद, मजहबी नफरत और सामाजिक अलगाववाद का बाजार बनाए हुए हैं। फांसी की सजा उन्हें भी देनी चाहिए जो सामाजिक और धार्मिक भावनाओं पर अपनी टीआरपी और बुद्धिजीवी होने की दुकान चला रहे हैं। असली गुनाहगार यही लोग हैं पर अफसोस, इन पर कोई 'एक्शन' नहीं होता। काश, अब देश इन लोगों को खारिज कर दे।
आर. के. सिन्हा, (लेखक राज्यसभा सांसद हैं)

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