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जातीय स्व की खोज करता उपन्यास

by
Jul 4, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jul 2015 12:29:48

सांस्कृतिक यात्रा के साथ शब्द भी नए अर्थ ग्रहण करते हैं। समय के एकांश में ही कोई घटना घटती है। लेकिन उसका असर दूरगामी तभी होता है, जब उससे जुड़े संदभोंर् का आकाश विस्तारित होता है। संदभोंर् के विस्तार और उस कालखंड में तरतीब या बेतरतीब से घटी घटनाएं पूरे समय को सापेक्षिक ढंग से प्रभावित करती हैं। इसके साथ ही उन घटनाओं और संदभोंर् के कोलाज से उस घटना या परिप्रेक्ष्य से जुड़े शब्द का अर्थ विस्तार हो जाता है या फिर वह संकुचित हो जाता है। इस निकष पर मौजूदा राजनीति को प्रभावित करने वाले दो शब्दों पर गौर किया जा सकता है। ये दोनों शब्द हैं हिंदू और राष्ट्रवाद। आजादी के पहले तक गांधी जी खुद को हिंदू और राष्ट्रवादी कहकर सार्वकालिक अहमियत हासिल कर सकते थे, सार्वजनिक श्रद्घा के पात्र हो सकते थे, मदन मोहन मालवीय गंगा के पुनरुद्घार के लिए संघर्ष करते हुए भी सर्वजन के नेता बन सकते थे, डॉक्टर लोहिया राम और कृष्ण में भारतीयता की परंपरा ढूंढ़ सकते थे, फिर भी सर्वमान्य हो सकते थे। लेकिन आजादी के बाद इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग करने वाला दकियानूसी, सांप्रदायिक माना जाने लगा। हिंदू और राष्ट्रवाद शब्द इस लिहाज से आजादी के बाद लगातार संकुचित किए गए हैं। निश्चित तौर पर भारतीय बुद्घिजीवियों की लंबी सूची है, जिन्होंने धीरे-धीरे खुद को इन दोनों शब्दों से काटना शुरू किया। कई ऐसे भी रहे, जिनकी अंतरात्मा दोनों ही शब्दों के मूल अथोंर् के नजदीक बसती रही, लेकिन बदले माहौल में उन्होंने खुद के अस्तित्व के लिए इन शब्दों से परहेज ही किया। ऐसे में मराठी के मशहूर साहित्यकार भालचंद्र नेमाडे अपने बहुप्रतीक्षित उपन्यास का नाम ही 'हिंदू जीने का समृद्घ कबाड़' रखते हैं तो निश्चित तौर पर उन्हें साहसी ही माना जाना चाहिए। हिंदी में अनूदित होकर प्रकाशित हुए 548 पृष्ठों के इस उपन्यास में हिंदू शब्द प्रचलित हिंदू की बजाय बहुसांस्कृतिक अर्थ में आया है। दिलचस्प है कि उपन्यास की कहानी में इस बहुसांस्कृतिक अर्थ का विस्तार सिर्फ भारतीय ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप तक है। 'कबाड़' शब्द को अनुवाद की खामी कहा जा सकता है, मूल में लेखक का आशय अंबार या ढेर रहा होगा, ऐसी चीजों का ढेर (रिवाज और परम्परा) जिसे खारिज भी नहीं किया जा सकता।    समृद्ध विशेषण स्वयं ही इसका प्रमाण प्रस्तुत करता है।
नेमाडे के इस उपन्यास का नायक महाराष्ट्र के खानदेश के धुर देहात में पैदा हुआ खंडेराव है। व्यवसाय से वह नृतत्व और पुरातत्वशास्त्री है। लिहाजा वह खुदाई के जरिए इतिहास और संस्कृति की खोज में लगा रहता है। इसके जरिए वह सभ्यता का इतिहास और उसका प्रमाण ही नहीं तलाशता, बल्कि खनन के जरिए वह भारतीय उपमहाद्वीप की बहुलतावादी हिंदू संस्कृति की तह तक की यात्रा करता है। उसकी यात्रा मोहनजोदड़ो तक जाती है। इसके जरिए वह समाज के विकास, उसकी रूढि़यों, उसकी व्यवस्था, उसकी समस्याओं और उसके जरिए सभ्यता के विकास की पड़ताल करता है। ऐसा करते-करते वह वर्तमान में भी आ जाता है और भूत-वर्तमान की इस पूरी यात्रा के जरिए वह भविष्य में भी झांकने की कोशिश करता है। इसके जरिए वह जहां कभी मोहनजोदड़ो के दौर के समाज का चित्रण करता है तो कभी वहां से मौजूदा समाज के नाभिनाल को जोड़ता है। इस यात्रा के ही जरिए वह बहुलतावादी हिंदू संस्कृति के संस्कारों की पड़ताल करता है और उसके विकास के सूत्र को जोड़ने की कोशिश करता है। इस पूरी यात्रा में खंडेराव सामूहिक रूढि़यों, सामूहिक विकास में उखड़ी-जमी वैचारिक धुरियों, सामूहिक आदतों, स्वाथोंर्-परमाथोंर्, बेडि़यों और आजादी के साथ ही शोषण और पोषण पर पूरी और गहरी निगाह डालता है। वैसे भी अब तक का इतिहास जनता का नहीं, राजाओं और श्रेष्ठि वर्ग का रहा है। लेकिन खंडेराव की अध्ययन यात्रा में आम लोगों पर ज्यादा गहरा ध्यान है। इसलिए इस विशालकाय उपन्यास में सांस्कृतिक और सभ्यता की विकास यात्रा में वंचित स्त्रियां भी हैं और आदिवासी भी, गरीब मजदूर हैं तो सिपाही भी.ज़ाहिर है, इसमें उनकी निराशाएं भी हैं। आक्रमण हैं तो उनके विरोध भी हैं़.़रिश्तों के दबाव किस तरह समाज को बदल देते हैं या सामाजिक विकास की थाती बन जाते हैं़. प्रागैतिहासिक से लेकर अर्वाचीन घटनाओं के बहाने खंडेराव इसकी भी पड़ताल करता है। इतने बड़े कैनवास में दरअसल खंडेराव के जरिए नेमाडे भारतीय जातीय अस्मिता की खोज निर्विकार भाव से करते हैं। जिसमें देसी अस्मिता और जातीय स्व का बहुस्तरीय, बहुमुखी और बहुरंगी उत्खनन है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस कथायात्रा के जरिए दरअसल नेमाडे किसी गौरव का बोध नहीं कराते, बल्कि जातीय स्व की उनकी खोज सहजता से आगे बढ़ती है। इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप का हर व्यक्ति इस औपन्यासिक यात्रा में कहीं न कहीं अपना स्व भी खोज सकता है।
इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में अनगिनत पात्र हैं़.़लेकिन एक बात और है कि इसमें पात्र अहम नहीं, बल्कि उनके दौर का समाज है। नेमाड़े दरअसल इसके जरिए हिंदू सभ्यता की विकास गाथा लिखते हैं। मराठी साहित्य में ऐसी वैचारिक सरणि से गुजरने वाले रचनाकार को देशीवाद यानी नैटिविज्म का समर्थक माना जाता है। मौजूदा दौर में भारतीयता अगर    खतरे में है तो इस 'नैटिविज्म' पर उठते सवालों से ज्यादा है। कहना न होगा कि भालचंद्र नेमाडे की यह औपन्यासिक कृति इन सवालों का ही अहम जवाब है।

पुस्तक का नाम
हिंदू जीने का समृद्घ कबाड़
लेखक
भालचन्द्र नेमाड़े
मराठी से अनुवाद    
डॉ. गोरख थोरात
प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली-110002
मूल्य
499 रुपए
पृष्ठ
548

      उमेश चतुर्वेदी

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