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'सेल्फी विद डॉटर' सोशल मीडिया की आभासी संस्कृति की देन है, जिसमें आत्म-प्रचार का भाव ज्यादा है। गर्व से कहो कि हम बेटी के बाप हैं। यह गर्व की अनुभूति जमीनी स्तर पर होनी चाहिए। मेरे विचार से अभी ऐसा है नहीं। बेटियों को लेकर निराशा का वातावरण है। दूसरों की ही नहीं अपनी बेटियों के प्रति भी। बावजूद इसके मुझे उन्नीसवीं सदी के भारत की सबसे बड़ी दो सामाजिक उपलब्धियां दिखाई पड़ती हैं। एक जातीय भेदभाव का प्रतिकार और दूसरे स्त्रियों की सामाजिक भूमिका में आया भारी बदलाव। दोनों ही सतहों पर निराशा के कारण खत्म नहीं हुए हैं, पर दोनों मामलों में भारी बदलाव है। इसका एक कारण है सामाजिक स्वीकृति। दूसरा है वंचित जातियों और स्त्रियों के मन में जागा आत्मविश्वास। फिर भी यह वक्त है कि कम से कम सेल्फी में बेटियों को लाया जाए। आभासी ही सही हमारे मन में बेटियों का खयाल तो आए।
आत्मकथा या जीवन के निजी अनुभव लिखना या बयान करना मुझे मुश्किल काम लगता है। बेटी के मामले में भी ऐसा ही है। बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। बेटा या बेटी, जबतक उन्हें दुनिया दोनों के बीच फर्क का आभास नहीं कराती वे खुद को इंसान ही समझते हैं। बेटी के पिता के रूप में और खासतौर से यदि बेटी अकेली संतान हो तब अपने आस-पास के अनुभव से समझ में आता है कि मानव जाति का इतिहास वस्तुत: पुरुषों का इतिहास है।
मुझे लगता है कि केवल बेटी का पिता होना अलग अनुभव देता है। केवल बेटे या बेटों के पिता का अनुभव दूसरा होता होगा। पिता होना, अलग-अलग किस्म के व्यक्तिगत अनुभव देता है। मां, पत्नी, बहन और बेटी, पिता या पुरुष के मन में स्त्रियों के प्रति हमदर्दी पैदा करती हैं। पर बेटी के कारण उपजी संवेदना अलग तरह की होती है। यह संवेदना उस नारेबाजी या लफ्फाजी से अलग होती है जो सोशल मीडिया में भरपूर है। केवल 'किताबी क्रांतिकारी' होने से काम नहीं चलता। बहरहाल घर, परिवार, अड़ोस-पड़ोस, स्कूल और काम-काज की जगह में स्त्रियों के प्रति बर्ताव को लेकर मेरी राय वही नहीं होती, यदि मैं अकेली संतान के रूप में बेटी का पिता नहीं होता।
जब मेरी बेटी चार-पांच साल की ही थी, तब भी हमउम्र बच्चों के खेल में माता-पिताओं के दृष्टिकोण का अंतर दिखाई पड़ता था। इस अंतर पर मैंने गौर किया, जरूरी नहीं कि सब ने गौर किया हो। शायद काफी लोगों को उसमें गौर करने वाली बात ही नजर नहीं आती हो। बेटी जब आठेक साल की थी, उसके कुछ हमउम्र दोस्त हमारे घर आए। खिलौनों और किताबों का परिचय हो ही रहा था। मेरी बेटी की एक प्रिय किताब थी जिसमें परियों की कहानियां थीं। एक लड़के को वह किताब पसंद आ गई।
बच्चों के मन में मेरा-तेरा होता नहीं, जो पसंद आ गया वह मेरा है। पर व्यावहारिक जीवन में साम्यवाद नहीं आया। हमें उन्हें बताना होता है कि तुम्हारा क्या है और दूसरे का क्या है। लड़का जिद में आ गया। किताब उठाकर वह भाग गया और अपने घर में कहीं छिपाकर रख दी। बेटी ने रोना शुरू कर दिया। अंतत: बड़े लोगों के हस्तक्षेप से किताब किसी तरह मिली, पर किसी नानी या दादी ने बेटी को समझाया। लड़की होते हुए जिद करती है। किताब कहीं भागी जा रही है क्या? मेरे ध्यान देने वाली बात सिर्फ इतनी थी कि नैतिक मूल्यों की शिक्षा बेटी को दी जा रही थी। लड़के को नहीं। ऐसे तमाम प्रसंगों को मैंने कई बार देखा और उनसे निष्कर्ष निकाले। मेरी बेटी के बजाय केवल बेटा होता या बेटी के साथ-साथ बेटा भी होता तो पता नहीं मेरा अनुभव क्या होता। बेटी के साथ दूसरा अनुभव उसकी सुरक्षा को लेकर था। अंधेरा होते ही घर के बाहर खेल रहे बच्चों के बीच से अपनी बेटी की तलाश होने लगती। उसे भी समझ में आने लगा कि एक खास समय के बाद उसे घर से बाहर नहीं रहना है। लड़के बाहर रह सकते हैं।
बेटी हो या बेटा, बच्चों के साथ संवाद बनाए रखना बहुत उपयोगी होता है। यह बात बेटी के कुछ और बड़ा होने पर समझ में आई। उन घरों की लड़कियां, जहां पाबंदियां बहुत ज्यादा होती है, बंधनों को तोड़ने लगती हैं। इसके लिए उन्हें झूठ बोलना पड़ता है। हमारे साथ ऐसी दिक्कत नहीं थी। सत्तर के दशक में देश में वामपंथी विचारधारा का जोर था। मेरे कुछ मित्र माओ का साहित्य पढ़ने को देते थे। चीन की 'एक संतान' नीति ने मुझे आकर्षित किया। हमारा निश्चय था कि संतान एक ही होनी चाहिए, ताकि हम उस पर अच्छी तरह ध्यान दे सकें । बेटी होने पर यह चुनौती पर ज्यादा बड़ी थी, क्योंकि बेटों पर ध्यान देने वाले बहुत थे, बेटियों पर ध्यान देने वाले कम। बेटी को बेहतर नागरिक बनाया जा सके तो सामाजिक बदलाव बेहतर होगा। बेटियों की पारिवारिक भूमिकाएं बेटों के मुकाबले मुझे कुछ ज्यादा लगती हैं। घर और बाहर भविष्य की पीढ़ी को बेहतर नागरिक बनाने में बेटियों की भूमिका कहीं ज्यादा है। मेरे दोस्तों की संख्या बहुत छोटी है। यह सायास है। सभी दोस्त पुरुष हैं। एक जमाने में पत्रकारिता में लड़कियां थी ही नहीं। उनकी संख्या कम कहना भी गलत होगा। इक्का-दुक्का छोड़ दें तो वे थी ही नहीं। डेस्क में वे नहीं ली जाती थीं, क्योंकि उसमें रात की पाली में काम होता था। कुछ परम्परा और कुछ श्रम कानून इसे रोकते थे।
अस्सी के दशक में हिन्दी अखबारों के सम्पादकीय विभागों में लड़कियों का आगमन हुआ। सौभाग्य से हिन्दुस्तान में मुझे श्रीमती मृणाल पांडे के साथ काम करने का मौका मिला। वे देश में किसी भी भाषा के दैनिक अखबार की पहली महिला सम्पादक थीं। एक समय तक लोग महिलाओं को अपने अधिकारी के रूप में जल्दी स्वीकार नहीं कर पाते थे। दुर्भाग्य से मेरे पिता का निधन जल्दी हो गया। भाइयों के साथ भी ज्यादा रहने का मौका नहीं मिला। घर में मां, पत्नी, बहन और बेटी का साथ ज्यादा रहा। ऐसे में बेटी ने दोस्त की भूमिका भी निभाई। पश्चिमी देशों की स्त्रियों की कम से कम पांच-छह पीढि़यां सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हैं और अपनी पहचान बना चुकी हैं। भारत में पहली या दूसरी पीढ़ी सामने है और तीसरी पीढ़ी तैयार हो रही है। एक सफल बेटी कम से कम दस दूसरी बेटियों के मन में कुछ करने का सपना जगा जाती है।
(वरिष्ठ पत्रकार श्री जोशी की पुत्री प्रियंका बंेगलुरु में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं)
प्रमोद जोशी
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