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राजनीति की घुट्टी, पढ़ाई-लिखाई की छुट्टी

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Jul 25, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Jul 2015 11:43:44

हार की पहचान आदिकाल से शिक्षा को लेकर रही है। भगवान बुद्ध को बिहार की धरती पर ही ज्ञान मिला था। पतंजलि ने अष्टाध्यायी की रचना की, तो आर्यभट्ट ने खगोलशास्त्र का विशद् विवेचन यहीं किया था। विश्व का पहला आवासीय विश्वविद्यालय (नालंदा विश्वविद्यालय) बिहार की धरती पर ही शुरू हुआ था। नालंदा विश्वविद्यालय की एक खासियत यह भी थी कि द्वारपाल ही विद्यार्थियों की प्रवेश-परीक्षा ले लिया करते थे। पाल वंश के समय भागलपुर के कहलगांव में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। उस समय इस विश्वविद्यालय की ख्याति पूरी दुनिया में थी। विदेशों के छात्र भी बड़ी संख्या में यहां पढ़ते थे। आज उसी ज्ञान की धरती बिहार में शिक्षा व्यवस्था लगभग चौपट हो गई है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में अव्यवस्था का माहौल है। परीक्षा में कदाचार को लेकर पूरे देश में बिहार की बदनामी हो रही है। लेकिन शिक्षा मंत्री पी. के़ शाही कहते हैं नकल रोकना सरकार के बूते के बाहर है।
1967 से शिक्षा क्षेत्र में जो पतन हुआ वह किसी सरकार के रोके नहीं रुका। पटना विश्वविद्यालय को कभी पूर्वी भारत का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था। आज वहां का माहौल बिगड़ चुका है। विद्यार्थी मजबूरीवश वहां नामांकन करवाते हैं। राज्य के सभी विश्वविद्यालय कमोबेश हड़ताल, शिक्षकों की कमी एवं संसाधनों के  अभाव से जूझ रहे हैं। छात्राओं को आएदिन फजीहत झेलनी पड़ती है। राजधानी पटना की सड़कों पर महिलाओं के कपड़े तक फाड़ दिए जाते हैं। सुदूर क्षेत्रों का क्या हाल होगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।  स्वतंत्रता प्राप्ति के 68 वर्ष बाद भी बिहार में निम्न साक्षरता दर है।  बिहार की 36़ 18 प्रतिशत जनता आज भी निरक्षर है। राष्ट्रीय साक्षरता दर जहां 74 प्रतिशत है, वहीं बिहार में साक्षरता दर 63. 82 प्रतिशत है। ऐसा नहीं है कि बिहार में शिक्षा को लेकर कुछ किया ही नहीं गया। तमाम प्रयोग किए गए, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। 1990 में छात्र शक्ति ने कांग्रेस को हराकर यह समझा था कि छात्र राजनीति से बिहार की बागडोर संभालने वाले लालू प्रसाद शिक्षा के हित में अभूतपूर्व कार्य करेंगे। लेकिन 15 वर्ष के शासन में लालू और उनके परिजनों ने शिक्षा को चौपट कर दिया। इसके बाद बिहार से छात्र पलायन को विवश हुए। कांग्रेसी राज में विश्वविद्यालयों में सत्र विलंब से चलना प्रारंभ हुआ था, वह लालू राज में भी नहीं रुका। सत्र विलंब से चलने के कारण छात्रों का भारी नुकसान हुआ। किसी के तीन वर्ष, तो किसी के चार वर्ष बर्बाद हो गए।
 2005 में बिहार की राजनीति ने करवट बदली। भाजपा  और जदयू गठबंधन ने लालू राज को उखाड़ फेंका। जदयू नेता और जेपी आंदोलन से निकले नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। शिक्षा जैसे संवेदनशील विषय को जदयू ने अपने पाले में रखा। उस समय उन्होंने शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए काफी लम्बे-चौड़े वादे किए थे, लेकिन हुआ बिल्कुल उलट। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की व्यवस्था चरमरा गई। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की राष्ट्रीय सचिव सीमा सक्सेना ने  आरोप लगाया है कि शिक्षा के क्षेत्र में बिहार सरकार पूरी तरह विफल रही। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास कभी शिक्षा को दुरुस्त करने की कोई योजना नहीं रही।
एक आंकड़े के मुताबिक राज्य मेंे 8400 से अधिक ग्राम पंचायतें हैं। इनमें से 5500 में एक भी माध्यमिक विद्यालय नहीं है। अर्थात् 65 प्रतिशत से भी ज्यादा पंचायतें माध्यमिक विद्यालय से वंचित हैं। यह स्थिति तब है जबकि केंद्र सरकार सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत करोड़ों रुपए उपलब्ध कराती है। शिक्षा को लेकर नीतीश सरकार कितनी लापरवाह है, इसका अंदाजा कैग की रपट से भी होता है। इस रपट के अनुसार सीतामढ़ी, खगडि़या, किशनगंज और गया जिले में विद्यालय जाने योग्य बच्चों की कुल संख्या 22 लाख 18 हजार 89 है, लेकिन इन जिलों में कुल 23 लाख 2 हजार 758 बच्चों का नामांकन विद्यालयों में दिखाया गया है। आखिर ये 84 हजार अधिक बच्चे कहां से आए? इसके अलावा बिहार सरकार ने बिहार शिक्षा परियोजना परिषद् के साथ भी आंकड़ों का घालमेल  किया है।  राज्य सरकार ने परिषद् को बताया है कि स्कूल से बाहर बच्चों की संख्या केवल 2 लाख 82 हजार 669 है, जबकि आंकड़े कहते हैं कि राज्य में 9 लाख 49 हजार 900 बच्चे स्कूल से बाहर हैं।
नीतीश के राज में प्राथमिक शिक्षा की बहुत ही बुरी हालत है।  राज्य सरकार दावा करती है कि राज्य  में 1 लाख प्राथमिक विद्यालय कार्यरत हैं। यह सचाई से कोसों दूर है। इस सम्बंध में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन ने अपने शोध के आधार पर जो नतीजे प्रस्तुत किए हैं वे चौंकाने वाले हैं। इसके अनुसार एकल कक्ष वाले 11़ 51 प्रतिशत विद्यालय हैं। एक शिक्षक वाले विद्यालय 6़ 79 प्रतिशत हैं।  71़ 14 प्रतिशत विद्यालयों में खेल-कूद के मैदान नहीं हैं। 89़ 62 प्रतिशत विद्यालयों में छात्राएं तथा 61़ 12 प्रतिशत विद्यालयों में छात्र खुले में शौच के लिए बाध्य हैं। छात्राओं के लिए अलग शौचालय सिर्फ 10़ 38 प्रतिशत विद्यालयों में ही हैं। जबकि 38़ 88 प्रतिशत विद्यालयों में छात्राओं और छात्रों के लिए एक ही शौचालय है।
राज्य में एकल कक्ष और एकल शिक्षक वाले विद्यालयों का होना घोर संसाधनहीनता का परिचय है। अगर अध्यापन के लिए एक ही कक्ष है तो कक्षा एक से पांच तक के छात्र अलग-अलग कैसे बैठते और पढ़ते होंगे? यह कल्पना की जा सकती है। वास्तव में वहां छात्रों की चौपाल तो लग सकती है, पढ़ाई संभव नहीं है।
 बिहार में छात्र-शिक्षक अनुपात 62:1 है, यानी 62 छात्रों के लिए 1 शिक्षक। जबकि छात्र-शिक्षक का राष्ट्रीय अनुपात 40:1 है। केरल में स्थिति सबसे बेहतर है।  वहां यह अनुपात 26:1 का है।
बिहार में छात्रों का विद्यालय छोड़ने की दर चिंताजनक है। कक्षा 1 में 13़ 8 प्रतिशत, कक्षा 4 में 31़ 1, कक्षा 6 में 10़ 3,  जबकि कक्षा 7 में 23़ 1 प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं। इसमें मध्याह्न भोजन की व्यवस्था भी कोई विशेष सुधार नहीं कर पा रही है। मध्याह्न भोजन के बारे में भी लोगों की धारणा ठीक नहीं रह गई है। लोगों का कहना है कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचारियों का प्रवेश हो चुका है। शायद ही कोई सप्ताह बीतता होगा जब मध्याह्न भोजन से संबंधित कोई खबर न छपती हो। 

नीतीश कुमार ने शिक्षकों की भर्ती की है, लेकिन इसमें जमकर फर्जीवाड़ा हुआ है। यह मामला न्यायालय तक पहंुचा है और न्यायालय के निर्देश पर ही सैकड़ों फर्जी शिक्षकों ने सजा से बचने के लिए त्यागपत्र दे दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि शिक्षक पद पर अयोग्य लोगों की नियुक्ति हुई है। कई पुराने शिक्षकों का मानना है कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा भी बर्बाद हो चुकी है। सरकारी माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालयों में विद्यार्थी घुट-घुट कर शिक्षा ले रहे हैं। 1985-86 तक इन विद्यालयों में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। सरकारी विद्यालय निजी विद्यालयों को कड़ी टक्कर देते थे। आज सरकारी विद्यालयों में अभावग्रस्त बच्चे ही पढ़ रहे हैं। राज्य के 18 प्रतिशत विद्यालयों में पुस्तकालय नहीं हैं। जिन विद्यालयों में पुस्तकालय हैं उनके लिए पुस्तक खरीद की कोई उचित व्यवस्था नहीं है।
राज्य के 57 प्रतिशत विद्यालयों में कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध नहीं है। जहां कंप्यूटर है वहां उसके लिए तकनीकी शिक्षक नहीं  है। राज्य के 38 प्रतिशत विद्यालयों  में बिजली और 53 प्रतिशत विद्यालयों में प्रयोगशाला नहीं है। 6600 से अधिक पंचायतों में बारहवीं तक की पढ़ाई की  व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में छात्र-शिक्षक अनुपात 71:1 है, जबकि राष्ट्रीय औसत 42:1 है। 1983 के बाद माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में कारगर तरीके से नियमित शिक्षकों की बहाली नहीं हुई है। आज बिहार सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण राज्य में केंद्रीय विद्यालय एक-एक कर बंद हो रहे हैं। इस समय बिहार में 49 केंद्रीय विद्यालय चल रहे हैं। स्थाई भवन के लिए जमीन नहीं मिलने के कारण 16 केंद्रीय विद्यालय बंद होने वाले हैं। इससे जुड़े 6000 छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। 10 वर्ष बीत जाने के बाद भी कई केंद्रीय विद्यालय किराये के भवन में और दो-दो पालियों में चलाए जा रहे हैं। कभी राज्य में पांच संस्थाएं शिक्षकों के प्रशिक्षण और शैक्षणिक शोध के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनमें से कोई भी सही रूप में कार्यरत नहीं है।  राज्य में 6 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय हैं उनमें से एक को ही एनसीटीई से मान्यता प्राप्त है।
सबसे भयावह स्थिति उच्च शिक्षा की है। राज्य में 14 विश्वविद्यालय हैं। इन सभी विश्वविद्यालयों की स्थिति बहुत ही खराब हो गई है। पिछले वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार ने प्रदेश के बहुत सारे महाविद्यालयों में ई-लाइब्रेरी की शुरुआत की थी, लेकिन कइयों को पर्याप्त राशि नहीं दी गई। इस कारण उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है।  अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रांत संगठन मंत्री निखिल रंजन ने आरोप लगाया है कि राज्य सरकार ने बिहार राज्य शैक्षिक आधारभूत संरचना विकास निगम द्वारा केंद्रीयकृत रूप से सामान की खरीद की। इसका मुख्य कारण है जमकर रिश्वतखोरी करना। राज्य में लगभग 5000 शिक्षकों के पद खाली हैं। राज्य में उच्चतर शिक्षा की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के अंतर्गत बिहार के 38 जिलों में से 25 जिलों को उच्च शिक्षा के लिए पिछड़े जिलों के रूप में चिन्हित किया गया है। प्रदेश की 1 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या उच्च शिक्षा में शामिल होती है। राज्य सरकार के वार्षिक बजट का अध्ययन करने पर पता चलता है कि सरकार ने उच्च शिक्षा की जमकर अनदेखी की है। इन सबका दुष्परिणाम अब देखने को मिल रहा है।  

 संजीव कुमार

बिहार में उच्च शिक्षा का बजट
वर्ष    कुल बजट    दिया गया    प्रतिशत
2011-12       3014.00    48.20     1.59
2012-13        3670.26     60.00       1.63
2013-14         5197.70      101.00      1.94
2014-15        6097.70     110.10      1.88
(राशि करोड़ में, स्रोत: बिहार सरकार का बजट)

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