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राष्ट्र-निर्माण में संघ का स्थान महत्वपूर्ण

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Jul 18, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Jul 2015 12:06:54

पाञ्चजन्य के पन्नों से
राजनीति से राष्ट्रोत्थान संभव नहीं: संघ द्वारा राष्ट्रीय एकता संभव
गुरुदक्षिणा महोत्सव पर श्री वी.पी. मेनन के उद्गार
बंगलौर। आज हम चारों ओर क्या देखते हैं? केवल राजनीतिक संघर्ष और कटुता! केवल राजनैतिक दलबन्दी और शोषण!! मुझे प्रसन्नता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कतिपय राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र की सेवा के लिए प्रयत्नशील है। संघ चाहता है कि मातृभूमि  की एकता साकार हो! यदि इस एकता को उत्पन्न करना अपराध हो, तभी संघ अपराधी कहा जा सकता है।
इन शब्दों में उड़ीसा के भूतपूर्व राज्यपाल श्री वी.वी. मेनन, जिन्होंने लौह पुरुष सरदार पटेल का दाहिना हाथ बनकर केन्द्रीय सरकार के राज्य विभाग के प्रमुख सचिव के नाते राज्यों के विलीनीकरण का कठिन कार्य सम्पन्न कर भारत की राजनैतिक एकता की प्राप्ति में ऐतिहासिक योगदान दिया था, राष्ट्र निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महत्वपूर्ण स्थान का उल्लेख किया।
ये शब्द उन्होंने, बंगलौर के डोडन्ना हाल में आयोजित स्थानीय संघ शाखा के गुरु दक्षिणा महोत्सव के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए कहे। संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख श्री यादवराव जोशी के प्रास्ताविक भाषण की सराहना करते हुए उन्होंने कहा, ' यह दुर्भाग्य है कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में कितनी ही भ्रामक धारणाएं प्रचलित हैं' पर यदि लोग इस प्रकार के भाषण सुन पाएं जिनमें संघ के लक्ष्य तथा उद्देश्य की इतनी स्पष्ट व्याख्या हो, तो एक भी व्यक्ति संघ के आदर्शों पर आपत्ति नहीं कर सकता।
नागा-समस्या का मूल राष्ट्र के प्रति श्रद्धा का अभाव
राष्ट्र की एक इंच भूमि भी आक्रमणकारियों के हाथ जाने देना अनुचित
नागपुर रक्षाबंधन तथा गुरुदक्षिण महोत्सव पर श्री गुरुजी की घोषणा
(निज प्रतिनिधि द्वारा)
नागपुर। '' रक्षाबंधन का यह पवित्र दिन स्नेह के प्रस्थापन का दिवस है। व्यक्ति-व्यक्ति को स्नेह और अनुशासन के सूत्र में बांधकर तथा समाज की एकात्मता का साक्षात्कार कराकर अेूट, अमर राष्ट्र जीवन निर्माण कार्य में आगे बढ़ने का हम आज प्रण करें'', ये शब्द राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने नागपुर के रक्षाबंधन तथा गुरु दक्षिणा महोत्सव पर भाषण देते हुए कहे। महोत्सव समारोह को अध्यक्षता मदुरा के भूतपूर्व प्राचार्य श्री पी. महादेवन ने की। जिस समय श्री गुरुजी तथा अध्यक्ष महोदय पधारे, रिमझिम वर्षा हो रही थी तथा स्वयंसेवक पंक्तिबद्ध दक्ष स्थिति में खड़े थे। अध्यक्षीय प्रणाम, ध्वजारोहण, ध्वज-प्रणाम एवं प्रार्थना के बाद कार्यक्रम स्वयंसेवकों द्वारा गाए गए 'हम करें राष्ट्र आराधन के सामूहिक गान से प्रारम्भ हुआ।
श्री गुरुजी का भाषण
श्री गुरुजी ने अपने प्रास्ताविक भाषण में राष्ट्र की गत वैभवशीलता, ज्ञान-गरिमा का उल्लेख किया तथा उसके पतन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा 'ऐसी उज्ज्वल परम्परा होते हुए भी आगे दुर्भाग्य से हम विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा परास्त हो गए।' हम अपने प्रबल पराक्रम से शत्रुओं को परास्त करने में असमर्थ रहे। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक मात्र कारण था इस विशाल समाज में विस्मरण, स्नेहसूत्रबद्ध प्रणाली का अभाव उत्पन्न होना। एक समाज के साक्षात्कार का भाव ठंडा पड़ गया। छोटे-छोटे राज्य स्वार्थरत हो गए तथा एक दूसरे के विरुद्ध विदेशियों की सहायता देने लगे। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं रहा कि आगे इसका परिणाम सर्वनाश में होगा। उस समय टूटा-फूटा असंगठित समाज का स्वरूप देखने को मिलता है। जिस त्रुटि के कारण हमें पराभव और दैन्य देखने को मिला उसे दूर करना हमारा प्रमुख कर्तव्य है। ''
राष्ट्र के प्रति श्रद्धा  का अभाव
राष्ट्र के प्रति श्रद्धा के अभाव का उल्लेख करते हुए श्री गुरुजी ने पाकिस्तानी आक्रमणों के प्रति शासकों की नीति की आलोचना की और कहा, 'हमारे नेताओं ने अतीव बुद्धिमानी, राजनीति धुरंधरता का परिचय देकर अपने हाथों  अपने शत्रु का निर्माण किया है और वे उसे पुष्ट करते जा रहे हैं। जब इस शत्रु ने गोलीबारी की, हमारी सीमाओं में प्रवेश किया तो अपनी संसद में सरकार से प्रश्न पूछे गए कि सरकार ने इसके जवाब में क्या किया-तो बताया गया कि गोली का जवाब कागज पर भेजा गया है-प्रोटेस्ट लेटर के रूप में। यही नहीं-हमारे कुछ बड़े-बड़े नेता यह भी कह गए हैं कि भाई, सीमा विवाद में दो-चार मील भूमि इधर गई या उधर गई तो क्या? ''

अखंड भारत
सांस्कृतिक एकता की भावना का पोषण करने वाली एक और बात यह भी है- प्राचीन काल से हिंदुओं में तीर्थ यात्रा लोकप्रिय रही। हिन्दुओं की धारणा थी कि श्रीक्षेत्र काशी से लेकर उत्तर-पश्चिम में काशमीर की अमरनाथ की गुफा तक, उत्तर में ऋषिकेश और बद्रीनाथ तक तथा दक्षिण में रामेश्वरम् और कन्याकुमारी तक सब अपने ही देश के भाग हैं। श्री शंकराचार्य  ने चार प्रमुख मठों  की स्थापना देश के चार कोनों में की। क्या यह महत्वपूर्ण कार्य नहीं था। ऐसे काल में जबकि घने जंगलों और डाकुओं के आक्रमणों के कारण भारत में प्रवास बहुत ही कठिन एवं खतरे से भरा हुआ था, केवल 32 वर्ष की आयु प्राप्त कर इस संन्यासी ने देश की चारों सीमाओं तक प्रवास किया और अपने तत्वविचारों का दिग्विजयी ध्वज वहां फहराया। इस की कल्पना मात्र से आज भी क्या हम चकित नहीं हो जाते? क्या श्री शंकराचार्य की दिग्विजय भारत की एकता का प्रतीक नहीं है?
-पं. दीनदयाल उपाध्याय
विचार-दर्शन, खंड-1 तत्व जिज्ञासा, पृष्ठ संख्या,74 )

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