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पहले चकमक से चिंगारी निकली. फिर हुई पहिए की खोज. तब घूमा कुम्हार का चाक…कच्चे बर्तन आग में तपकर पक्के हुए. इसके साथ पकता गया इंसान का ज्ञान. वह जानता गया ऊर्जा का रूपांतरण और इसके नए-नए प्रयोग…
मानवीय सभ्यता के विकास की कुछ ऐसी ही कहानी सब पढ़ते आए हैं. लेकिन सबसे ज्यादा बार कही-सुनी गई यही कहानी आज वैश्विक प्रश्नों के तराजू में है. आज दुनिया भर में सबसे ज्यादा पूछा जा रहा सवाल है कि विकास का अर्थ क्या है? क्या आगे बढ़ने की होड़ में मानव सभ्यता कहीं गड़बड़ा गई? सकल घरेलू उत्पाद के ऊंचे आंकड़ों की सीढ़ी चढ़ चुके देश आज उस ऊंचाई से सहमे दिखते हैं. गर्म होती दुनिया का ताप घटाने के लिए टिकाऊ विकास, अक्षय ऊर्जा स्रोतों के दोहन और कार्बन क्रेडिट अपनाने-बरतने की गुहारें लग रही हैं.
दरअसल 'विकास' की इस धौंकनी ने लकड़ी-लट्ठों को फूंकते हुए हजारों साल पहले धुआं उगलना शुरू किया. सातवीं सदी में जापान ने पेट्रोलियम को 'खौलता पानी' कहा. नौवीं शताब्दी में बगदाद की किसी गली में पहली बार डामर बिछी. 17वीं और 18वीं सदी में कोयले के व्यापक खनन और ऋणात्मक-घनात्मक आवेशों का उल्लेख करने वाली दुनिया को मानो 'तरक्की की कुंजी' हाथ लग गई. ईंधन-बिजली और विकास की कडि़यां जोड़ते हुए कई देश बहुत आगे निकल गए…तेल-कोयले और बिजली से फर्राटा भरने वाले उन्हीं 'आगे निकल गए' देशों के सबक आज बाकी दुनिया के सामने हैं.
उद्योग-उत्पादन और अर्थ के ताने-बाने ने बहुत कुछ दिया परंतु अब फिक्र इस बात की है कि विकास का हर स्तंभ जिस बिजली पर टिका है वह झटके देने लगी है. विकास जरूरी है. इस इंजन को चलाए रखने के लिए ऊर्जा जरूरी है. मगर ज्यादा जरूरी है कि विकास का आनंद लेने के लिए मानव बचा रहे. हर जीव को प्राण देने वाली प्रकृति की जान 'बिजली' न चूस ले.
तेल-पेट्रोलियम को तो भूल ही जाइए. डॉलर से बंधे बैरल का खेल पिछले कुछ समय से हर साल इतना ऊंचा-नीचा होने लगा है कि इसके आधार पर दीर्घावधि योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं. कोयले के छीजते भंडार और बढ़ती लागत ने विकास की धौंकनी का अब तक का सबसे सस्ता और सुलभ ईंधन झपट लिया है. अब तक जिन ऊर्जा संयंत्रों और कल-कारखानों की चिमनियां औद्योगिक विकास के पोस्टरों में चमकती थीं उनका धुआं और जहर विश्व के माथे पर चिंता की लकीरें डालने लगा है. संसाधनों का ऐसा अंधाधुंध दोहन, पर्यावरण का इतनी तेजी से क्षय, बात धरती की सहनशक्ति से बाहर जाने लगी है. ऐसे में सवाल उठता है कि आगे का रास्ता कैसे तय हो. क्या अब दुनिया को रुकना होगा? क्या विकसित, विकासशील और पिछड़े कहे जाने वाले देशों में मानव जीवन का अंतर बना रहेगा? और वह भी क्या सिर्फ इसी कारण कि उन्होंने कुल्हाडि़यां पहले उठाईं, चिमनियां पहले सुलगाईं और 'हम सबके हिस्से का प्रदूषण' भी कुछ विकसित देश पहले ही कर बैठे? यह उस लीक को छोड़ कुछ नया करने का समय है जिसपर चलने के परिणाम हम सभी को डराते हैं. मा-नव को कुछ नवीन करना है तो फिर 'मां' की ओर देखना ही होगा. इतना देने के बाद भी प्रकृति के आंचल में कुछ ऐसी अनूठी 'शक्तियां' हैं जिनका क्षय नहीं होता. सूरज, लहरें, ज्वार-भाटा, हवाएं, ये कुदरत की अक्षय 'शक्तियां' ही तो हैं!
आज दूसरों की गलतियों से सबक लेने और खुद को सही राह पर रखने की जरूरत ज्यादा अहम है. कोयले के साथ और इसके बाद भी मानव को इस धरती पर रहना है. अपनी आवश्यकताएं पूरी करनी हैं. उन भूलों को सुधारना है जो वैचारिक खामियों और तात्कालिक लालच के चलते होती रहीं और आज जिसका दंश पूरी मानवता झेल रही है.
बिना धुआं उगले स्वच्छ साफ तरीके से ऊर्जा जरूरतें पूरी करना और सतत् विकास की राह पर बढ़ना आज हम सबके लिए साझा चुनौती है. प्रकृति को संभालते हुए संसाधनों की ढाल बनते हुए विकास की यह यात्रा शुरुआती तौर पर कुछ कठिन, लेकिन अंत में ज्यादा आनंदकारी है. अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में मौजूदा सरकार ने अत्यंत चुनौतीपूर्ण लक्ष्य चुने हैं. केंद्र-राज्य सहयोग के बिना यह लक्ष्य दूर की कौड़ी है, क्योंकि जिन सौर पाकार्ें का खाका आज देश के सामने है उनमें आधी हिस्सेदारी राज्यों को उठानी है. साथ ही जिस जनता जनार्दन की आवश्यकताओं और उन्नति को मन में रखते हुए यह सारी योजना है उसकी चेतना और भागीदारी ही देश की ऊर्जा सुरक्षा का भविष्य निश्चित करेगी. बहरहाल, इस बात पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं कि मीलोंमील तपते रेगिस्तान, भरपूर लंबी तटरेखा और जोरदार समुद्री हवाओं वाला देश वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में नए कीर्तिस्तंभ स्थापित करने जा रहा है. सरकार की पहल और आमूलचूल परिवर्तन के लिए तैयार दिखते जन सागर की लहरें बता रही हैं कि अक्षय शक्ति का अनूठा साक्षात्कार अब ज्यादा दिन दूर नहीं.
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