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सवालों के घेरे में मीडिया

by
Jun 6, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2015 15:16:56

 

एक साल पहले जब नरेंद्र मोदी सरकार ने शपथ ली तो जनता में भारी उत्साह और बदलाव की उम्मीद थी, लेकिन दूसरी तरफ मीडिया का एक बड़ा तबका सदमे से उबर नहीं पा रहा था। जनादेश ने सबकी जुबान पर ताला लगा दिया, लेकिन रवैया जस का तस था। शपथ ग्रहण के सिर्फ चार दिन बाद 29 मई को फाइनेंशियल एक्सप्रेस अखबार ने सरकारी कंपनी ओएनजीसी का दिल्ली उच्च न्यायालय में दिया वह बयान छापा जिसमें कहा गया था कि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कथित तौर पर उनकी 30 हजार करोड़ रुपये की गैस हथिया ली है। इस खबर के साथ जो फोटो इस्तेमाल की गई थी, उसमें मुकेश अंबानी के साथ अमित शाह को दिखाया गया था। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता था कि मोदी सरकार आने के बाद ऐसा हुआ है, जबकि मामला पुराना था। हो सकता है कि इसके पीछे अखबार के संपादक का कोई हाथ न हो, लेकिन समाचार माध्यमों में अंदर तक घुसे वामपंथी और कांग्रेसी पत्रकार निजी स्तर पर पूरे साल ऐसी शरारतें करते रहे।
बीता हफ्ता नरेंद्र मोदी सरकार की पहली सालगिरह का रहा। समाचार चैनलों ने इस मौके को किसी त्यौहार की तरह मनाया। हिंदी और अंग्रेजी अखबारों ने भी एक साल के कार्यकाल की समीक्षा पर काफी पृष्ठ खर्च किए। इन सभी में बार-बार यह साबित करने की कोशिश की गई कि अच्छे दिन नहीं आए। बिना ये सोचे कि संप्रग सरकार द्वारा बीते 10 साल की अखिल भारतीय लूट के बाद इतनी जल्दी सबकुछ सही हो जाने की उम्मीद कितनी उचित है। आजतक चैनल ने मंथन नाम से कार्यक्रम किया। एंकर ने मोदी के टीम इंडिया के विचार पर सवाल खड़े करने की कोशिश की तो अमित शाह ने यह कहकर उनकी बोलती बंद कर दी कि 'थोड़ी तैयारी करके आइए। सातवीं क्लास की किताब में भी केंद्र और राज्यों के सहयोग पर जानकारी आपको मिल जाएगी।' वैसे ये अच्छी पहल है कि समाचार चैनलों ने सरकार के पहले साल की समीक्षा के लिए एक मंच उपलब्ध कराया। इससेभूमि कानून और कालेधन जैसे ज्वलंत मुद्दों पर सरकार और विपक्ष को भी अपने तर्क रखने का मौका मिला। एबीपी न्यूज के 'शिखर सम्मेलन' में काफी सकारात्मक तरीके से सरकार के कामकाज को कसौटी पर कसने की कोशिश की।
चीन समेत तीन देशों की यात्रा से प्रधानमंत्री की वापसी के बाद एक बार फिर से ये विवाद पैदा करने की कोशिश की गई कि मोदी देश से ज्यादा विदेश में वक्त बिता रहे हैं। विपक्ष और मीडिया के इस दुष्प्रचार की पोल सोशल मीडिया ने खोल दी। पता चला कि जितनी यात्राएं पीएम मोदी ने कीं, करीब-करीब उतनी ही विदेश यात्राएं मनमोहन सिंह ने भी पहले साल में कीं। हर टीवी चैनल और अखबार ने मोदी की विदेश यात्राओं को खूब कवरेज दिया, लेकिन ये बात गायब रही कि कैसे चीन से लेकर कोरिया तक वो कौन से समझौते हुए हैं, जिनका फायदा आगे चलकर देश को होने वाला है।
उधर दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल की लड़ाई भी सुर्खियों में रही। कार्यवाहक मुख्य सचिव शकुंतला गैमलिन से लेकर उपराज्यपाल नजीब जंग तक पर केजरीवाल निजी कंपनी का एजेंट होने का आरोप लगाते रहे। मीडिया उसे दिखाता रहा। बिना ये सोचे कि आरोप का आधार क्या है। हद तो तब हो गई जब वेबसाइट फर्स्टपोस्ट और दूसरे कुछ अखबारों और चौनलों ने केजरीवाल को बिना किसी संवैधानिक तर्क के सही ठहरा दिया।
नवभारत टाइम्स ने एक खबर छापी कि कैसे मोदी की वजह से राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति इस साल राजीव गांधी को उनकी पुण्यतिथि पर श्रञ्द्घाजलि देने नहीं जा पाए। ये हेडलाइन थी, लेकिन खबर के अंदर बताया गया कि खुद कांग्रेस ने ही उन्हें नहीं बुलाया था। लोगों के बीच मोदी सरकार के लिए भ्रम पैदा करने के अनगिनत प्रयासों में से ये भी एक प्रयास था।
हर छोटे बड़े मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने वालों के हाथ इस हफ्ते एक बड़ा मौका लगा। मुंबई की एक हीरा कंपनी में एक मुस्लिम लड़के को नौकरी पर न रखने की खबर पर जमकर हंगामा मचाया गया। सबसे तेज चैनल ने हेडलाइन बनाई- 'क्या मुस्लिम होना गुनाह है?' ये सोचने की जरूरत नहीं समझी गई कि इससे लोगों पर बुरा असर पड़ सकता है।
कंपनी ने बयान जारी करके बताया कि ऐसा नहीं है कि वह मुसलमानों को नौकरी पर नहीं रखते। उनके यहां पहले से ही 50 से ज्यादा मुसलमान कर्मचारी हैं। पर शायद ही किसी ने कंपनी का पक्ष बताने की जरूरत समझी। किसी अखबार या चैनल ने ये बताने की कोशिश भी नहीं की कि कैसे मुंबई और तमाम बड़े शहरों में 'सिर्फ मुसलमानों के लिए' और 'सिर्फ ईसाइयों के लिए' अपार्टमेंट बने हुए हैं। खैर इस मामले पर मुख्यधारा से जुड़े मीडिया के पक्षपात की ट्विटर और फेसबुक पर जमकर खबर ली गई। लोगों ने ऐसे कई अपार्टमेंटों की तस्वीरें पोस्ट कीं, जहां हिंदुओं के लिए प्रवेश भी वर्जित है।
उधर कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पासपोर्ट का मसला भी सुर्खियों में रहा। गिलानी को अपनी राष्ट्रीयता भारतीय लिखने में शर्म आ रही थी। लेकिन हैरत तब हुई जब एनडीटीवी समेत कुछ अंग्रेजी चैनलों ने खुलकर इस बात का समर्थन करना शुरू कर दिया कि गिलानी को पासपोर्ट मिलना चाहिए, भले ही वह अपनी राष्ट्रीयता नहीं बता रहे हैं। कई बार तो ऐसा लगा कि एनडीटीवी गिलानी के लिए किसी पासपोर्ट एजेंट की तरह काम कर रहा है।
मीडिया का काम सरकार पर नजर रखना है, लेकिन ये भी उसी की जिम्मेदारी है कि लोगों तक सही तथ्य पहुंचाए जाएं। न कि बार-बार बोले गए झूठ को सच बनाकर उसे सवाल की शक्ल देकर जवाब की अपेक्षा की जाए।    -नारद

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