वहाबी शरिया जिहादी जरिया
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वहाबी शरिया जिहादी जरिया

by
Jun 6, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2015 14:59:34

 

 

-सतीश पेडणेकर-

अमरीका के बहुचर्चित बुद्धिजीवी सेमुअल हंटिंग्टन ने कभी सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। तब प्रगतिशील और उदारवादी लोगों ने यह कह हर उनकी  इसलिए खूब खिंचाई की थी कि वे ईसाइयत और इस्लाम के बीच संघर्ष कराना चाहते हैं। लेकिन अब सेमुअल  हंस रहे होंगे क्योंकि मुसलमानों में अपनी ही सभ्यता के अंदर आत्मघाती संघर्ष चल रहा है। तभी तो इस्लाम के विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान को हाल ही में कहना पड़ा-'मुस्लिम विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है,  जो छोटी सी वजह से भड़क सकता है। सभी मुसलमान टाइम बम की तरह जी रहे हैं। मेरे व्यापक अध्ययन और अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहंचा हूं कि मुस्लिम समुदाय अभी नफरत में जी रहा है। फर्क केवल इतना है कुछ मुसलमान 'एक्टिव'  हिंसा में जुटे हैं और बाकी मुसलमान  'पैसिव' हिंसा में।'
मौलाना की बात में दम है। जब हर मुसलमान टाइम बम बन जाए तो मुस्लिम विश्व में गृहयुद्ध होना स्वाभाविक ही है। आज इस्लाम के नाम पर जितनी नफरत, हिंसा, युद्ध और आतंकवाद फैल रहा है उससे इस्लाम को 'शांति का मजहब' कहने पर सवाल उठने लगे है। 'काफिरों' से इस्लाम का झगड़ा हमेशा से रहा है। पहले मुस्लिमों का जिहाद 'काफिरों' के खिलाफ होता था लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं कि मुसलमान मुसलमानों के खिलाफ भी जिहाद कर रहे हैं और उसमें अब तक लाखों लोग मारे जा चुके हैं। इस्लाम को सबसे ज्यादा खतरा मुसलमानों से ही है। तभी तो मुसलमान ही मुसलमान के खून का प्यासा हो उठा है। इन दिनों इस्लाम में कई गृह युद्ध एक साथ चल रहे हैं। एक गृहयुद्ध चल रहा है आतंकवादियों और बाकी समाज के बीच, दूसरा वहाबी बनाम सूफी का है, तीसरा शिया बनाम सुन्नी और चौथा इस्लामी राष्ट्रों और उनकी उपराष्ट्रीयताओं के बीच। आज इस्लाम के नाम पर वहाबी आतंकवादी जिस तरह अंधाधंुध हिंसा कर रहे हैं वह किसी गृहयुद्ध से कम नहीं है। उनके लिए हर वह व्यक्ति उनका दुश्मन है जो उनकी तरह के 'शुद्ध इस्लाम' को नहीं मानता।
पिछले दिनों बोको हराम के जिहादियों ने  नाइजीरिया के एक सैन्य अड्डे पर लूटपाट के बाद तकरीबन पूरा शहर आग लगाकर तबाह कर दिया। हमले के बाद शहर छोड़कर भागने वाले लोगों ने बताया कि लगभग 10 हजार की आबादी वाला यह शहर पूरी तरह से बर्बाद हो गया है। बागा शहर की गलियों में लाशें  पड़ी हैं। माना जा रहा है कि हमले में करीब 2000 लोग मारे गए। शहर में इतनी लाशंे हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। इससे कुछ दिन पहले पाकिस्तान के पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए  तालिबानी हमले में 141 लोगों की मौत हो गई थी। इनमें 132 बच्चे थे। कुछ दिन      बाद ऐसा ही हत्याकांड अल शबाब ने केन्या    में किया।

इस तरह की आतंकी घटनाएं इन दिनों आम बात होती जा रही हैं। पिछले कुछ समय में  इस्लामी आतंकवाद  ने विकराल रूप ले लिया है। प्रतिष्ठित थिंक टैंक 'इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीस' ने अपनी 2014 की रपट में कहा है कि एक कड़वी सचाई यह है कि 2013 में 80 फीसदी आतंकवादी मौतें केवल पांच देशों इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया में हुई हैं। ये सभी इस्लामी देश हैं। इसलिए नुक्सान मुसलमानों का ही हो रहा है। 2013 में आतंकवाद के कारण हुई मौतों में से 66 प्रतिशत चार आतंकवादी संगठनों-आईएसआईएस, बोको हराम, तालिबान और अल कायदा के हमलों में हुईं। लेकिन इस्लामी आतंकवादी संगठन केवल यही चार नहीं हैं, दुनियाभर में ये करीब सौ हो सकते हैं। यदि उनकी वारदातों को भी जोड़ लिया जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लगभग 80 से 85 प्रतिशत वारदातें इस्लामी संगठनों की तरफ से हो रही हैं। लोग भले ही कहते हों कि मजहब और आतंकवाद का कोई रिश्ता नहीं होता, लेकिन इन दिनों  आतंक पर इस्लाम का एकाधिकार होता जा रहा है। इस्लामी आतंकवाद में  शिया, सुन्नी  आदि हर तरह का आतंकवाद है। अब तो सूफी भी हथियार उठा रहे हैं। लेकिन आतंकवाद की मुख्यधारा वहाबी है। सभी प्रमुख आतंकी संगठन यथा आईएसआईएस, अल कायदा, बोको हराम, तालिबान, अल शबाब आदि वहाबी या सलाफी संगठन हैं।
 इस्लाम में एक और संघर्ष उग्र रूप ले चुका है। सारा मुस्लिम विश्व शिया और सुन्नी के खेमों में बंट चुका है और उनके संघर्ष नें लाखों जानंे ली हैं। जिस देश में शिया बहुसंख्यक हैं वहां वे सुन्नियों का दमन कर रहे हैं। सुन्नी देशों में ऐसा ही सलूक शियाओं के साथ किया जाता है। इस कारण इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, बहरीन, यमन, लेबनान, फिलिस्तीन में यह संघर्ष खूनी रंजिश में बदलता जा रहा है। आज मध्यपूर्व में जहां भी संघर्ष विस्फोटक रूप ले चुका है, वह सब शिया-सुन्नी संघर्ष की ही उपज है। आज सबसे तीव्र संघर्ष यमन में चल रहा है, जहां शिया हौथी विद्रोहियों ने सुन्नी शासन को बेदखल करके सत्ता पर कब्जा कर लिया है। लेकिन सुन्नियों ने भी हार नहीं मानी है। नतीजतन शिया-सुन्नी संघर्ष गहराता जा रहा है। दूसरा संघर्ष चल रहा है इराक और सीरिया में, जहां दोनों देशों के खिलाफ बगावत करके आईएसआईएस स्वतंत्र सुन्नी राष्ट्र और खिलाफत के तौर पर उभरा है। कहा जाता है कि अब उसने आधे सीरिया पर कब्जा कर लिया है। इराक में भी वह निरंतर जीत की ओर अग्रसर है। स्थानीय शिया खासतौर पर उसके निशाने पर हैं। लेकिन वह विदेशों में भी शियाओं को निशाना बना रहा है। यमन में उसने एक ल्ल  सतीश पेडणेकर
मरीका के बहुचर्चित बुद्धिजीवी सेमुअल हंटिंग्टन ने कभी सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। तब प्रगतिशील और उदारवादी लोगों ने यह कह हर उनकी  इसलिए खूब खिंचाई की थी कि वे ईसाइयत और इस्लाम के बीच संघर्ष कराना चाहते हैं। लेकिन अब सेमुअल  हंस रहे होंगे क्योंकि मुसलमानों में अपनी ही सभ्यता के अंदर आत्मघाती संघर्ष चल रहा है। तभी तो इस्लाम के विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान को हाल ही में कहना पड़ा-'मुस्लिम विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है,  जो छोटी सी वजह से भड़क सकता है। सभी मुसलमान टाइम बम की तरह जी रहे हैं। मेरे व्यापक अध्ययन और अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहंचा हूं कि मुस्लिम समुदाय अभी नफरत में जी रहा है। फर्क केवल इतना है कुछ मुसलमान 'एक्टिव'  हिंसा में जुटे हैं और बाकी मुसलमान  'पैसिव' हिंसा में।'
मौलाना की बात में दम है। जब हर मुसलमान टाइम बम बन जाए तो मुस्लिम विश्व में गृहयुद्ध होना स्वाभाविक ही है। आज इस्लाम के नाम पर जितनी नफरत, हिंसा, युद्ध और आतंकवाद फैल रहा है उससे इस्लाम को 'शांति का मजहब' कहने पर सवाल उठने लगे है। 'काफिरों' से इस्लाम का झगड़ा हमेशा से रहा है। पहले मुस्लिमों का जिहाद 'काफिरों' के खिलाफ होता था लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं कि मुसलमान मुसलमानों के खिलाफ भी जिहाद कर रहे हैं और उसमें अब तक लाखों लोग मारे जा चुके हैं। इस्लाम को सबसे ज्यादा खतरा मुसलमानों से ही है। तभी तो मुसलमान ही मुसलमान के खून का प्यासा हो उठा है। इन दिनों इस्लाम में कई गृह युद्ध एक साथ चल रहे हैं। एक गृहयुद्ध चल रहा है आतंकवादियों और बाकी समाज के बीच, दूसरा वहाबी बनाम सूफी का है, तीसरा शिया बनाम सुन्नी और चौथा इस्लामी राष्ट्रों और उनकी उपराष्ट्रीयताओं के बीच। आज इस्लाम के नाम पर वहाबी आतंकवादी जिस तरह अंधाधंुध हिंसा कर रहे हैं वह किसी गृहयुद्ध से कम नहीं है। उनके लिए हर वह व्यक्ति उनका दुश्मन है जो उनकी तरह के 'शुद्ध इस्लाम' को नहीं मानता।
पिछले दिनों बोको हराम के जिहादियों ने  नाइजीरिया के एक सैन्य अड्डे पर लूटपाट के बाद तकरीबन पूरा शहर आग लगाकर तबाह कर दिया। हमले के बाद शहर छोड़कर भागने वाले लोगों ने बताया कि लगभग 10 हजार की आबादी वाला यह शहर पूरी तरह से बर्बाद हो गया है। बागा शहर की गलियों में लाशें  पड़ी हैं। माना जा रहा है कि हमले में करीब 2000 लोग मारे गए। शहर में इतनी लाशंे हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। इससे कुछ दिन पहले पाकिस्तान के पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए  तालिबानी हमले में 141 लोगों की मौत हो गई थी। इनमें 132 बच्चे थे। कुछ दिन      बाद ऐसा ही हत्याकांड अल शबाब ने केन्या    में किया।

इस तरह की आतंकी घटनाएं इन दिनों आम बात होती जा रही हैं। पिछले कुछ समय में  इस्लामी आतंकवाद  ने विकराल रूप ले लिया है। प्रतिष्ठित थिंक टैंक 'इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीस' ने अपनी 2014 की रपट में कहा है कि एक कड़वी सचाई यह है कि 2013 में 80 फीसदी आतंकवादी मौतें केवल पांच देशों इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया में हुई हैं। ये सभी इस्लामी देश हैं। इसलिए नुक्सान मुसलमानों का ही हो रहा है। 2013 में आतंकवाद के कारण हुई मौतों में से 66 प्रतिशत चार आतंकवादी संगठनों-आईएसआईएस, बोको हराम, तालिबान और अल कायदा के हमलों में हुईं। लेकिन इस्लामी आतंकवादी संगठन केवल यही चार नहीं हैं, दुनियाभर में ये करीब सौ हो सकते हैं। यदि उनकी वारदातों को भी जोड़ लिया जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लगभग 80 से 85 प्रतिशत वारदातें इस्लामी संगठनों की तरफ से हो रही हैं। लोग भले ही कहते हों कि मजहब और आतंकवाद का कोई रिश्ता नहीं होता, लेकिन इन दिनों  आतंक पर इस्लाम का एकाधिकार होता जा रहा है। इस्लामी आतंकवाद में  शिया, सुन्नी  आदि हर तरह का आतंकवाद है। अब तो सूफी भी हथियार उठा रहे हैं। लेकिन आतंकवाद की मुख्यधारा वहाबी है। सभी प्रमुख आतंकी संगठन यथा आईएसआईएस, अल कायदा, बोको हराम, तालिबान, अल शबाब आदि वहाबी या सलाफी संगठन हैं।
 इस्लाम में एक और संघर्ष उग्र रूप ले चुका है। सारा मुस्लिम विश्व शिया और सुन्नी के खेमों में बंट चुका है और उनके संघर्ष नें लाखों जानंे ली हैं। जिस देश में शिया बहुसंख्यक हैं वहां वे सुन्नियों का दमन कर रहे हैं। सुन्नी देशों में ऐसा ही सलूक शियाओं के साथ किया जाता है। इस कारण इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, बहरीन, यमन, लेबनान, फिलिस्तीन में यह संघर्ष खूनी रंजिश में बदलता जा रहा है। आज मध्यपूर्व में जहां भी संघर्ष विस्फोटक रूप ले चुका है, वह सब शिया-सुन्नी संघर्ष की ही उपज है। आज सबसे तीव्र संघर्ष यमन में चल रहा है, जहां शिया हौथी विद्रोहियों ने सुन्नी शासन को बेदखल करके सत्ता पर कब्जा कर लिया है। लेकिन सुन्नियों ने भी हार नहीं मानी है। नतीजतन शिया-सुन्नी संघर्ष गहराता जा रहा है। दूसरा संघर्ष चल रहा है इराक और सीरिया में, जहां दोनों देशों के खिलाफ बगावत करके आईएसआईएस स्वतंत्र सुन्नी राष्ट्र और खिलाफत के तौर पर उभरा है। कहा जाता है कि अब उसने आधे सीरिया पर कब्जा कर लिया है। इराक में भी वह निरंतर जीत की ओर अग्रसर है। स्थानीय शिया खासतौर पर उसके निशाने पर हैं। लेकिन वह विदेशों में भी शियाओं को निशाना बना रहा है। यमन में उसने एक शुक्रवार को दो शिया मस्जिदों पर हमले करके 120 शियाओं को मौत के घाट उतारा। दूसरी तरफ पाकिस्तान में इस्मायली शियाओं पर हमले करके 50 शियाओं की बलि चढ़ा दी गई। सऊदी अरब में शिया मस्जिद पर हमला कर 20 शियाओं की हत्या कर दी गई।
इस्लाम में चल रहे विश्वव्यापी गृहयुद्ध के लिए बहुत हद तक बहिष्कार की अवधारणा काम कर रही है, जिसके तहत एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को मजहब-द्रोही कहकर गैर मुस्लिम करार दे सकता है। इसके अनुसार हर वह मुस्लिम भी मजहब-द्रोही है जो इस्लाम में संशोधन करता है। कुरान या मोहम्मद के कथनों  को नकारना पूरी तरह से मजहब-द्रोह माना जाता हैं। लेकिन  इस्लामिक राज्य ने कई और मुद्दों पर भी मुसलमानों को इस्लाम से बाहर निकालना शुरू कर दिया है। इसमें शराब,  नशीली दवाएं बेचना, पश्चिमी लिबास पहनना, दाढ़ी बनाना, चुनाव में वोट देना और मुसलमानों को मजहब-द्रोही कहने में आलस बरतना आदि शामिल हैं। इस आधार पर शिया और ज्यादातर अरब मजहब-द्रोह के निकष पर खरे उतरते हैं। क्योंकि शिया होने का मतलब है इस्लाम में संशोधन करना  और आईएस के अनुसार कुरान में कुछ नया जोड़ने का मतलब है उसकी पूर्णता को नकारना। शियाओं में जो इमामों की कब्र की पूजा करने और अपने को कोड़े मारने की परंपरा है उसकी कुरान या मोहम्मद के व्यवहार में कोई मिसाल नहीं मिलती। इसलिए मजहब-द्रोही होने के कारण करोड़ों शियाओं की हत्या की जा सकती है। (यही बात सूफियों पर भी लागू होती है) इसी तरह राज्यों के प्रमुख भी मजहब-द्रोही हैं, जिन्होंने 'पाक' माने जाने वाले इस्लामी कानून शरिया के बाद मनुष्य निर्मित कानून बनाया और उसे लागू किया। इस तरह इस्लामिक राज्य या आईएस इस विश्व को 'पवित्र' करने को बड़े पैमाने पर लोंगों की हत्या करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उसके नजरिए से जो भी मूल इस्लाम में संशोधन करता है वह मजहब-द्रोही है इसलिए हत्या ही उसका दंड है। इसीलिए इस्लामिक राज्य  एक-दो हत्याएं लगातार और सामूहिक हत्याकांड हर कुछ हफ्तों में करता रहता है। कथित मुस्लिम मजहब-द्रोही ही ज्यादातर उनके शिकार बनते हैं। इस्लामी दुनिया में पिछले दो-ढाई दशकों से बहिष्कार पर तीखी बहस चल रही है। मसलन क्या मुस्लिम शासकों द्वारा गैर मुस्लिम शासकों को मुस्लिम शासकों के खिलाफ समर्थन देने को मुस्लिम मजहब-शास्त्र के अनुसार जायज माना जा सकता है? जो मुस्लिम या मुस्लिम समाज खिलाफत की इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था को नकारकर पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था, राजतंत्र, समाजवादी आदि मानव निर्मित व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं क्या वे मुस्लिम बने रह सकते हैं? क्या ऐसा करने पर उन्हें इस्लाम से बाहर निकाला जा सकता है? जो मुस्लिम और मुस्लिम समाज मुस्लिम इस्लामी कर्मकांड का परित्याग कर चुके हैं और पश्चिमी जीवन शैली अपना चुके हैं,  क्या उन्हें मुस्लिम कहलाने का अधिकार है?
हाल के समय में इराक और सीरिया के गृहयुद्ध शिया-सुन्नी की खूनी रंजिश की मिसाले हैं जिनमें लाखों लोगों की जान जा चुकी है।  शिया और सुन्नियों की दुश्मनी उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इस्लाम। लेकिन इस सदी की शुरुआत में इराक में इसका जिस चरम रूप में विस्फोट हुआ उसने दुनिया को दहला दिया। 2003 में इराक पर अमरीकी कब्जे के बाद स्थिति बिगड़ने पर शिया और सुन्नियों के बीच राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए हुए गृह युद्ध में दो लाख से ज्यादा लोग मारे गए। इराक की 98 प्रतिशत मुस्लिम आबादी में 65 प्रतिशत शिया और 32 प्रतिशत सुन्नी हैं। शिया बहुल होने के बावजूद इराक के शियाओं की त्रासदी यह रही कि सदियों से सुन्नियों का शासन रहा। नतीजतन 1935 और 1936 में शिया बगावतें हुईं। टाइम पत्रिका में छपी रपट के मुताबिक-1991 के खाड़ी युद्ध में सद्दाम हुसैन की पराजय के बाद शियाओं को लगा कि यह तानाशाह के खिलाफ बगावत का सुनहरा अवसर है। लेकिन  सद्दाम विद्रोह को कुचलने में कामयाब रहे। इसमें दो से तीन लाख के बीच शिया मारे गए।

सीरिया का मामला इराक से विपरीत है। वहां गृहयुद्ध इसलिए हुआ क्योंकि तीन चौथाई आबादी सुन्नी है मगर वहां बशर असद का शासन है जो शिया हैं, जबकि शियाओं की आबादी मात्र 12 प्रतिशत है। असद के शिया होने के कारण सारे शिया उनके पक्ष में खड़े हो गए। वहां अन्य अरब देशों की तरह लोकतंत्र की स्थापना के लिए जन आंदोलन शुरू हुआ, लेकिन बाद में वह शिया और सुन्नी हथियारबंद लड़ाकों के टकराव में बदल गया। फिर उसने सारे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया। असद के पक्ष में थे ईरान, लेबनान का हिज्बुल्लाह मिलिशिया, रूस और  इराक। विरोध में थे सऊदी अरब, अमरीका, आईएसआईएस और अल कायदा आदि। तीन साल तक चले सीरिया के गृहयुद्ध में एक लाख से ज्यादा लोग मारे गए। एक तिहाई सीरियाई नागरिक बेघर हो गए।
कई गैर अरब मुस्लिम देश भी इस विवाद की चपेट में आ गए हैं। इन सुन्नी देशों में शियाओं की खैर नहीं है। पाकिस्तान में 75 प्रतिशत सुन्नी और 20 प्रतिशत शिया हैं। इसके अलावा अहमदिया भी अच्छी तादाद में हैं। पहले शिया और सुन्नियों ने मिलकर अहमदियाओं को गैर मुस्लिम करार दिया। अब नए कानून के मुताबिक कोई अहमदिया अपने को मुसलमान नहीं कह सकता। उनके खिलाफ हमेशा ही हिंसा का दौर चलता रहता है। लेकिन अब सुन्नी शियाओं के खिलाफ न केवल हिंसा कर रहे हैं वरन् उनकी मांग है कि शियाओं को गैर मुस्लिम करार दिया जाए। पाकिस्तान में क्वेटा, कराची और गिलगित-बाल्टिस्तान शियाओं के कत्लगाह हो गए हैं। अब तक 8000 से ज्यादा  शियाओं का कत्लेआम हो चुका है। अफगानिस्तान में शिया हाजरा और  सुन्नी पख्तूनों की पुरानी लड़ाई को तालिबान ने नई धार दे दी। तालिबान जब सारे अफगानिस्तान को फतह करने निकले थे तो उन्होंने तय किया था कि अफगानिस्तान को शियाओं से मुक्त कर देंगे। मजार शहर में 5000-6000 शिया तालिबानों के हाथों मारे गए। बाद में यह भी पाया गया कि इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए तालिबान ने उज्बेक और ताजीकों के भी कत्ल किए। यूं भी तालिबान अफगानिस्तान के विभिन्न हिस्सों में शिया कबीलों का नरसंहार कर चुके हैं।
शिया और सुन्नियों के बीच सदियों से चल रहे खूनी संघर्ष का इस्लामी देशों में नए रूप में विस्फोट हो रहा है। इसके कारण मध्यपूर्व के देशों में सुन्नी देश सऊदी अरब और शिया मुल्क ईरान के बीच टकराव का खतरा पैदा हो गया है। कुछ समय पहले तो बहरीन में सुन्नी शासकों के खिलाफ चल रहे शियाओं के जन आंदोलन को लेकर ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि लगने लगा था कि दोनों देशों के बीच लंबे समय से चल रहा शीतयुद्ध कभी भी पूर्ण युद्ध में बदल सकता है। इन देशों के बीच चल रहे शीतयुद्ध के पूर्ण युद्ध में बदलने के लिए कोई भी बहाना काफी हो सकता है। मुस्लिम विश्व में ईरान शिया महाशक्ति है तो सऊदी अरब सुन्नी महाशक्ति। पाकिस्तान हो या अफगानिस्तान, यमन हो या बहरीन, इराक हो या लेबनान, हर जगह इन देशों में जोर-आजमाइश चलती ही रहती है।
दुनिया के सबसे बड़े तेल खजाने का मालिक होने के कारण सऊदी अरब के पास अकूत संपत्ति है। अपने पैट्रो डालरों को झोंककर वह दुनिया के इस्लामी देशों का नेता बनने की कोशिश करता रहता है। उसमें  कुछ हद तक वह सफल भी हो गया था। लेकिन 1979 में ईरान में हुई शिया इस्लामी क्रांति और फिर शिया इस्लामी राज्य की स्थापना ने उसके सपने को चकनाचूर कर दिया। ईरान की क्रांति ने दुनियाभर में सुन्नियों के अत्याचार और भेदभाव का शिकार बन रहे शियाओं में नई जान फूंक दी। उन्हें अपनी पहचान और शक्ति का अहसास कराया। 'द शिया रिवायवल' पुस्तक के लेखक वली नस्र इसे शिया पुनर्जागरण कहते हैं। ईरान के नेतृत्व में हुए इस शिया पुनर्जागरण ने इस्लामी दुनिया, खासकर मध्यपूर्व के देशों के राजनीतिक समीकरणों को उलट-पलट करके रख दिया। अभी तक बहुसंख्यक सुन्नियों की छत्रछाया में रहने वाले शिया न केवल अलग वरन् सुन्नियों की प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। सुन्नी शियाओं की इस सफलता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। इससे इस्लाम के इन दोनों फिरकों में जगह-जगह टकराव हो रहा है।
 तालिबान, अलकायदा आईएस और उनके ढेर सारे सहयोगी  संगठन वहाबी आतंकी संगठन हैं। इनके हमलों का निशाना ज्यादातर मुसलमान ही हो रहे हैं। आतंकी वहाबी लोगों को खत्म कर रहे हैं तो वहाबी आंदोलन इस्लाम के बहुलतावाद के ताने-बाने को नष्ट करने मंे लगा है, जिसने  वहाबी और सूफियों के बीच गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर दी है।
 हम अक्सर इस्लाम को एकरूप मान लेते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। इस्लाम में घोषित तौर पर 72 फिरके हैं, जिनकी अपनी अपनी पहचान, अपने रीति-रिवाज हैं। इस्लाम के इन फिरकों के   वहाबी आंदोलन के साथ रिश्ते तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। इस्लाम के जानकार डा़ खुर्शीद अनवर  के मुताबिक-'मोहम्मद इब्न-अब्दुल-वहाब ने एक-एक कर इस्लाम में विकसित होती खूबसूरत और प्रगतिशील परंपराओं को ध्वस्त करना शुरू किया और उसे इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि उसमें किसी तरह की आजादी, खुलेपन, सहिष्णुता और आपसी मेलजोल की गुंजाइश ही न रहे। कुरान और हदीस से बाहर जो भी है उसको नेस्तोनाबूद करने का बीड़ा उसने उठाया। अब तक का इस्लाम कई शाखाओं में बंट चुका था। अहमदिया समुदाय अब्दुल-वहाब के काफी बाद उन्नीसवीं सदी में आया, लेकिन शिया, हनफी, मुलायिकी, सफई, जाफरिया, बाकरिया, बशरिया, खुलफिया हंबली, जाहिरी, अशरी, मुन्तजिली, मुर्जिया, मतरुदी, इस्माइली, बोहरा जैसी अनेक आस्थाओं ने इस्लाम के अंदर रहते हुए अपनी अलग पहचान बना ली थी और उनकी पहचान को इस्लामी दायरे में स्वीकृति मिली हुई थी।' वहाबियत ने अपनी इस शुद्धता का तांडव बहुत पहले से दिखाना शुरू कर दिया था, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसने अपना घिनौना और क्रूर रूप और भी साफ कर दिया। वह वहाबियत पर आस्था न रखने वाले मुसलमानों को इस्लाम के दायरे से खारिज करके उन्हें सरेआम कत्ल करना जायज और हलाल बताने लगा। सऊदी अरब में जन्मा वहाबी इस्लाम मौजूदा इस्लाम की मिली-जुली संस्कृति पर विश्वास नहीं करता। वह इस्लाम को उसके 'शुद्ध रूप' में स्थापित करना चाहता है। वहाब ने लिखा, 'जो किसी कब्र, मजार के सामने इबादत करे या अल्लाह के अलावा किसी और से रिश्ता रखे वह मुशरिक (एकेश्वरवाद विरोधी) है। उसका खून बहाना और उसकी संपत्ति हड़पना जायज है।'

वहाबी इस्लाम के साथ इस्लाम की जिहाद की सोच भी बदल गई। पहले इस्लाम में जिहाद काफिरों के खिलाफ होता था। अठारहवीं शताब्दी में वहाब ने जिहाद की नई परिभाषा  ईजाद की। मुसलमानों का मुसलमानों के खिलाफ जिहाद भी होने लगा। वहावियों का उन मुलमानों के खिलाफ जिहाद शुरू हो गया जो इस्लाम के 'शुद्ध रूप' में विश्वास नहीं करते।  वहाब ने अपने जमाने में अपने ढंग का असली जिहाद शुरू किया था। उसने  एक सेना तैयार की जिसने गैर वहाबी इस्लामी आस्थाओं के लोगों को मौत के घाट उतारना शुरू किया। वह सिर्फ अपनी विचारधारा का प्रचार करता रहा और जिसने उसे मानने से इनकार किया उसे मौत मिली और उसकी संपत्ति लूटी गई। इसके साथ ही उसने एक और घिनौना हुक्म जारी किया और वह यह था कि जितनी सूफी मजारें, मकबरे या कब्रें हैं उन्हें तोड़कर वहीं मूत्रालय बनाए जाएं।
वहाबी इस्लाम से बहुत पहले इस्लाम में सूफी  सिलसिलों  का उदय हो चुका  था। उसका उद्देश्य  'मोहब्बत का पैगाम' देना था। यही कारण है कि जिन-जिन देशों में इस्लाम पहुंचा वहां-वहां सूफी मत भी पहुंच गया और काफी लोकप्रिय हुआ। शिया हो या सुन्नी, दोनांे सूफीवाद को मानते हैं। सूफी भी मध्यपूर्व से लेकर दक्षिण एशिया, खासकर भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान, में तो अफ्रीका में  सूडान, सोमालिया, नाइजीरिया, लीबिया, माली और ट्यूनीशिया, बाल्कन देशों में चेचन्या आदि में फैले हुए हैं। सूफियों ने इस्लाम को बिल्कुल नया आयाम दे दिया और वे गैर मुस्लिमों के बीच भी बहुत लोकप्रिय हुआ। वहाबी और सूफी इस्लाम के दो ध्रुवों की तरह हैं। वहाबी  इस्लाम  के 'शुद्धतावादी'  चरित्र को मानते हैं। दूसरी तरफ सूफी रहस्यवादी और उदारवादी हैं। इस्लाम के विपरीत सूफी संगीत और नृत्य को अपनाते हैं। वहाबी इस्लाम सारी दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। ऐसे में सूफी सिलसिलों के साथ उसका मुकाबला होना ही था।
कई देशों में इस्लाम से जुड़ी ऐसी तमाम ऐतिहासिक धरोहरें हैं जिनका संबंध प्रमुख इमामों, संतों, फकीरों, खलीफाओं आदि से है। मुसलमान वहां जाकर मन्नतें व मुरादें मांगता है। जबकि इसके विपरीत वहाबी विचारधारा अल्लाह को सजदे यानी नमाज पढ़ने के सिवाय किसी भी अन्य स्थल, दरगाह, रोजा, मकबरा या इमामगाहों आदि में चलने वाली गतिविधियों जैसे मजलिस, ताजिया, नोहा, मातम, कव्वाली, नात आदि चीजों को गैर इस्लामी मानती है तथा इसे शिर्क (अल्लाह के साथ किसी अन्य को शरीक करना) की संज्ञा देती है। इसी सोच के तहत तालिबान पाकिस्तान में कम से कम 25 मकबरों को निशाना बना चुके हैं। कभी अफगानिस्तान भी सूफी पीर औलिया और दरवेशों का केंद्र था वहाबी इस्लाम के अनुयायी तालिबान की क्रूरता ने उन्हें जिंदा नहीं रहने दिया।
वहाबी आतंकवाद अब अफ्रीका के देशों में फैलता जा रहा है। नतीजतन वे सूफी और वहाबी गृह युद्ध का अखाड़ा बनते जा रहे हैं। सोमालिया, जो मुख्यत: सूफी परंपरा का अनुयायी रहा है, वहां सऊदी हस्तक्षेप ने वहाबियत का जहर भर दिया। लेकिन वहां सूफीवाद और वहाबी इस्लाम के बीच संघर्ष जारी है। अल-शबाब सोमालिया में वहाबी आतंकी संगठन अल कायदा का सहयोगी संगठन है। वह केवल सोमालिया ही नहीं इथीयोपिया केन्या में भी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता है। लेकिन सोमालिया में अब सूफी संगठन के लोगों ने अल शबाब का मुकाबला करने के लिए बंदूक उठा ली है। कहीं-कहीं वे सरकार का साथ भी दे रहे हैं, जो अल शबाब पर नकेल कसने की कोशिश कर रही है। नाइजीरिया में अल-कायदा समर्थित आतंकवादी संगठन  बोको हराम सक्रिय है। उसने हाल ही में नाइजीरिया में  कई सूफी मस्जिदांे और मजारों के खिलाफ अभियान चलाया है। वह मौजूदा सरकार का तख्ता पलटकर उसे इस्लामिक देश में तब्दील करना चाहता है। उसके समर्थक वहाबियों  की तरह मानते हैं कि 'जो भी अल्लाह की कही गई बातों पर अमल नहीं करता है वह पापी है'। कुछ समय पहले उसने दो सौ छात्राओं का अपहरण कर लिया था जिन्हें आज तक रिहा नहीं किया है। हाल ही में उसने दो हजार से ज्यादा लोगों की हत्या की। बोको हराम का नेता अबू बकर शेकू ने  एक वीडियो में एलान किया था, 'मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि नाइजीरिया में लोकतंत्र को जीवित नहीं रहने दूंगा। हम इसके खिलाफ जंग छेड़ रहे हैं और इसे हरा कर छोड़ेंगे। जनता की जनता के द्वारा सरकार और जनता के लिए सरकार जैसी सोच जल्द खत्म हो जाएगी और अल्लाह की, अल्लाह के द्वारा और अल्लाह के लिए सोच वाली सरकार कायम होगी।' कुछ इस्लामी देशों में उपराष्ट्रीयताओं का संघर्ष बहुत उग्र रूप ले चुका है। यह भी मुस्लिम  बनाम मुस्लिम की ही मिसाल है। जब से पाकिस्तान बना है, तब से आज तक बलूचिस्तान पाकिस्तान की केन्द्रीय सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। बलूच नेता चाहते थे कि पाकिस्तान में शामिल किए गए बलूचिस्तानी सूबे के साथ-साथ ईरान और अफगानिस्तान के बलूच बहुल इलाकों को मिलाकर आजाद बलूचिस्तान बनाया जाए। और पिछले 65 सालों से बलूचिस्तान को आजाद कराने की यह लड़ाई जारी है। समय-समय पर यह मांग खुले आतंकवाद का रूप भी धारण कर लेती है। बलूचों की तरह कुर्द भी तुर्की, ईरान, इराक, सीरिया आदि इस्लामी देशों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। वे अलग कुर्दिस्तान की मांग के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष अक्सर हिंसक और आतंकवादी भी हो जाता है।
यह सारी हिंसा इस्लाम ही नहीं, सारी मानवता के लिए समस्या बन गई है। वैसे इस्लाम एकमात्र ऐसा मजहब नहीं है जिसने अपने प्रचार-प्रसार के लिए हिंसा का सहार लिया हो। किसी समय ईसाइयों ने भी 'क्रूसेड' के नाम पर हजारों लोगों की हत्या की थी। लेकिन ईसाइयों ने आत्मावलोकन किया, अपनी पांथिक मान्यताओं पर सवाल भी उठाए और अपने मत में सुधार भी किए, उसे कुछ सेकुलर बनाने की कोशिश की। जबकि इस्लाम की शोकांतिका यह है कि इस्लाम में यह कोशिश  नजर नहीं आती। वह मानता है कि इस्लाम एकमात्र सच्चा मजहब है, ईश्वर का मजहब है, उसका 'शुद्ध रूप' में पालन किया जाना चाहिए। जो उसका पालन करेगा वही मुस्लिम है। यही सोच वहाबी विचारधारा को जन्म दे रही है। इसलिए वहाबी बनाम 72 फिरके का नजारा दिखाई दे रहा है। आज आलम यह है कि वहाबी  ही इस्लाम की मुख्यधारा बनते जा  रहे हैं। इससे इस्लाम में गृहयुद्ध तेज ही होगा। मुस्लिम देशों को इस्लामी राष्ट्र घोषित करने से समस्या हल नहीं होती। उग्रवादी सवाल उठाने लगते हंै कि इस्लामी राष्ट्र है तो इस्लामी राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था और इस्लामी कानून शरिया भी पूरी तरह लागू किया जाए, खिलाफत स्थापित हो। तब उस देश में इस मुद्दे पर हिंसा, आतंक और गृहयुद्ध शुरू हो जाता है। अब तो 'शुद्ध इस्लाम' पर ही अमल हो, यह मुद्दा भी आ गया है। इस विविधतापूर्ण दुनिया को एकरूप बनाने की कोशिश आखिरकार तनाव  और हिंसा ही पैदा करती है। अभी तो इस्लाम को इससे मुक्ति मिल पाने की उम्मीद नहीं है। किसी शायर ने कहा है-
तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से
आप ही खुदकुशी करेगी
जो शाखे-नाजुक पे आशियाना बनाएगा नापायदार  होगा    ल्ल

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