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अतुल जैन
पूरे विश्व में इस समय हाहाकार मचा है। मंदी का एक भयंकर दौर चल रहा है। पश्चिम की सभी अर्थव्यवस्थाएं एक-एक कर इस दलदल में धंसती चली जा रही हैं, भारत अगर अभी तक इस भयावह परिस्थिति से बचा हुआ है तो सिर्फ इसलिए कि वैश्वीकरण की चकाचौंध के बावजूद उसका एक बहुत बड़ा वर्ग अभी अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है। हमारे किसान, हमारे कारीगर, हमारी परिवार व्यवस्था और परंपराओं में हमारी आस्था व उनके प्रति हमारा प्रेम, ये परंपराएं सिर्फ सामाजिक स्तर पर ही नहीं, आर्थिक रूप से भी हमें मजबूत बनाए हुए हैं।
शहरों ने या शहरीकरण की प्रवृत्ति ने परंपराओं को तोड़ने की कोशिश जरूर की है, लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं ने कम से कम गांवों में तो उन्हें अभी थाम कर रखा है। इसका हमें गर्व होना चाहिए, परंतु यह भी सच है कि गांवों से बड़ी तादाद में शहरों की तरफ पलायन हो रहा है। हजारों की संख्या में बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में रोजाना शहरों की ओर कूच कर रहे हैं। इसके लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं तो हम स्वयं भी उतने ही जिम्मेदार हैं। समाज ने अपनी आवश्यकताएं, पसंद-नापसंद, इच्छाएं-अनिच्छाएं, सभी, शहरों के समान ढालने शुरू कर दी हैं। हम अपने संसाधनों की अनदेखी कर, अपने कौशल को तुच्छ समझ कर नौकरी पर आश्रित होने लगे हैं। गांव के लोहार का बेटा अगर स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ अपने दादा और पिता से उनके हुनर के कुछ राज समझता है, उन्हें काम करते हुए देखता है, उन्हें सुनता है, और कभी-कभी हाथ बंटाता है तो यह कोई तथाकथित बाल-श्रम के कानून में नहीं आता। यह तो वांछित है और होना ही चाहिए।
गलीचे बनाने वाले किसी परिवार के बच्चे अगर उस खानदानी पेशे में शुरू से ही दिलचस्पी लेने लगते हैं तो क्या वे वर्तमान, दिशाहीन स्कूली शिक्षा से बेहतर शिक्षा प्राप्त नहीं कर रहे होते, क्या उनका कौशल दिनों-दिन श्रेष्ठ नहीं होने लगता। हमारे तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने ऐसे बच्चों को जबरदस्ती स्कूल भेजने और उन्हें ए.बी.सी. जैसी अर्थहीन पढ़ाई करवाने के लिए एक तरफ तो सरकार को बाध्य किया। दूसरी तरफ समाज में ऐसा वातावरण बनाया कि जो बच्चा स्कूल न जाए और अपने पारिवारिक धंधे में अपने माता-पिता की मदद करे, उनसे सीखे, अपने कौशल को चमकाए तो वह अनपढ़ है।
आज अगर खेती के परंपरागत औजार नहीं मिलते तो उसका कारण है कि उन्हें बनाने वाले हाथ शहरों में कारखानों में बनने वाले ऐसे औजारों को सिर पर ढोने और ट्रकों तक पहुंचाने को मजबूर हैं। वहां वे अपने घर से, अपनी मां, अपने परिवार से सैकड़ों किलोमीटर दूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें न उस लकड़ी का ज्ञान रह गया है जो उन्हें पड़ोस के जंगल से मिल जाती थी और जिससे उनके पिता हल बनाया करते थे, न ही उन्हें उस लकड़ी को बचाने व उसके संवर्धन की आवश्यकता महसूस हो रही है। इससे जहां स्थानीय कौशल लुप्त होता जा रहा है, वहीं स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय लोगों की भूमिका भी समाप्त होती जा रही है। स्थानीय संसाधनों व स्थानीय कौशल की वकालत करते हुए इस लेख का उद्देश्य विकास के चक्र को वापस घुमाना नहीं है। उसे युगानुकूल बनाते हुए भी, उसको देशानुकूल बनाए रखना है।
हमारा समाज स्वभाव से ही उद्यमी रहा है। पूर्व की सरकारी नीतियांे व तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा बनाए गए वातावरण के कारण उसकी उद्यमिता को जबरदस्त धक्का पहुंचा है। अगर ट्रैक्टर ने हल और बैलगाड़ी को बेमानी बना दिया है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी परंपरागत उद्यमिता कहीं उनके शोर में दब गई है। आज जरूरत है हमें अपने कारीगरी के कौशल को फिर से समझने की, उस पर गर्व करने और हुनर पहचानने की।
(लेखक दीनदयाल शोध संस्थान के सचिव हैं।)
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