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राहुल क्या जाने ंअनुशासन

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Jun 6, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2015 14:13:08

सतीश पेडणेकर
ल में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने एनएसयूआई के एक समारोह में रा़ स्व. संघ के बारे में ऐसा बयान दे डाला जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वे न संघ के बारे में कुछ जानते हैं, न नाजीवाद के बारे में और न वे अनुशासन का मतलब जानते हैं। एनएसयूआई के कार्यक्रम में राहुल ने अनुशासन के बहाने जहां संघ पर निशाना साधा, वहीं दोनों की आपस में तुलना करने से भी नहीं चूके। उन्होंने संघ की तुलना जर्मनी के नाजीवाद से करते हुए कहा कि जिस तरह से वहां किसी को बोलने, मुंह खोलने व अपनी बात रखने की इजाजत नहीं थी, वैसा ही संघ में है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी 'यंग ब्रिगेड' को संबोधित करते हुए कहा कि जहां भी उन्हें संघ की विचारधारा  लागू की जाती दिखे, वहां वे उसका विरोध करें। राहुल गांधी ने जहां एक ओर संघ पर खुला हमला किया, वहीं दूसरी ओर देश के शिक्षा तंत्र में सुधार की कोशिशों पर हमला करते हुए परोक्ष रूप से मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी पर भी निशाना साधा।
मजेदार बात यह है कि राहुल ने एनएसयूआई के कार्यक्रम में इस तरह की बातें करकेसाफ कर दिया के उन्हें न तो एनएसयूआई के इतिहास का पता है, न इस बात का पता है कि अनुशासन न होने पर किसी संगठन का क्या हश्र होता है। वहां उपस्थित पत्रकारों ने बाद में बताया कि राहुल शायद भूल गए कि तीस साल पहले नागपुर के एनएसयूआई के सम्मेलन में एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं की अनुशासनहीनता ने किस तरह सारे देश में कांग्रेस की छीछालेदर करवाई थी। 1984 में नागपुर में एनएसयूआई का अधिवेशन हुआ था। प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ जाने के कारण उनके लिए की गई भोजन और निवास की व्यवस्था चरमरा गई और इसके बाद एनएसयूआई के  भूखे कार्यकर्ताओं ने  सारे शहर में कोहराम मचा दिया। व्यवस्था एनएसयूआई के अधिवेशन की चरमराई, लेकिन उसके कार्यकर्ता शहर के नागरिकों पर गुस्सा निकालने लगे।
शहर के विभिन्न इलाकों में देशभर से आए एनएसयूआई के प्रतिनिधियों और स्थानीय नागरिकों के बीच झड़पें होती रहीं। अधिवेशन स्थल शहीद शंकर महाले नगर में तत्कालीन कांग्रेस नेता राजीव गांधी की उपस्थिति में यह सब होता रहा। लेकिन वे मूकदर्शक बनकर सब देखते रहे। सबसे बड़ा संघर्ष तो सिंचाई विभाग भवन के परिसर में हुआ जहां उत्तर प्रदेश,आंध्र और तमिलनाडु के प्रतिनिधि ठहरे हुए थे। इस इलाके में एक महिला के साथ प्रतिनिधियों द्वारा छेड़छाड़ किए जाने के बाद इस इलाके के नागरिकों में असंतोष भड़क उठा। इससे पहले दो लड़कियों को जबरन अगवा करने का भी उन पर आरोप लग रहा था। इस कारण 400-500 नागरिक  लाठियां लेकर सिंचाई विभाग भवन में घुसे। इससे उस परिसर में युद्ध जैसा माहौल बन गया। पुलिस ने जानकारी दी कि उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधि तो देसी पिस्तौलों का भी इस्तेमाल कर रहे थे। हालात बिगड़ने पर सिंचाई विभाग के लोगों ने पुलिस को सूचना दी। इसी दौरान सुभाष नगर परिसर में दो लोगों को चाकू मारने की घटनाएं हुईं। शहर के लोग एनएसयूआई के प्रतिनिधियों से परेशान हो गए थे। इन लोगों का कहना था कि प्रतिनिधियों ने उनका जीना हराम कर दिया था। शहर में दिनभर मारपीट, झगडे़ होते रहे थे।
यह घटना उस समय की है जब राहुल के पिता राजीव गांधी एनएसयूआई के प्रभारी हुआ करते थे। लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए। उनकी आंखों के सामने एनएसयूआई के नेता शहर भर में आतंक फैलाते रहे, क्योंकि उन्हें कभी उनके नेताओं ने बताया ही न था कि राजनीति में वे सेवा करने आए हैं, मेवा खाने नहीं। लेकिन एनएसयूआई में कभी अनुशासन की शिक्षा ही नहीं दी जाती। क्योंकि शायद एनएसयूआई के राहुल जैसे नेताओं के लिए अनुशासन का मतलब है नाजीवाद। उस दिन नागपुर के लाखों लोगों ने महसूस किया कि क्या होता है अनुशासन। संघ ने वहां 1925 में संगठन की नींव रखी थी। संघ के न जाने कितने कार्यक्रम वहां हर साल होते हैं मगर इतने वषोंर् में कभी ऐसा मौका नहीं आया जब संघ के स्वयंसेवकों से नागरिकों को कोई असुविधा भी हुई हो। यह फर्क इसलिए है क्योंकि संघ का जोर सेवा और अनुशासन पर है। एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं को पता ही नहीं है कि अनुशासन किस चिडि़या का नाम है। वे इसका मजाक उड़ाते हंै। यदि राहुल एनएसयूआई के इतिहास को जानते, यदि उन्हें नागपुर कांड पता होता तो वे संघ की आलोचना करने के नाम पर अनुशासन की खिल्ली नहीं उड़ाते।
दिक्कत यह है राहुल मजबूरी में राजनीति में आए हैं। वे आने से पहले राजनीति के बारे में थोड़ा पढ़-लिख लेते तो अच्छा होता। संघ का अनुशासन अभिव्यक्ति को दबाने के लिए नहीं है। संघ के स्वयंसेवकांे का अनुशासन देशप्रेम से उपजा है। तभी तो कांग्रेस के नेता भी समय समय पर यह स्वीकार करते रहे हैं। पंडित नेहरू ने 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद हुई गणतंत्र दिवस की परेड में संघ को भी आमंत्रित किया था। 1965 के युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में युद्ध से जुड़े कई काम संघ के स्वयंसेवकों को सौंपे गए थे, क्योंकि वे नेता जानते थे कि संघ की देशभक्ति और अनुशासन संदेह से परे है। जब भी कभी देश पर प्राकृतिक आपदा आती है तब संघ के स्वयंसेवक ही सबसे पहले पहुंचकर पीडि़तों की सहायता करते हैं। राहुल ने दूरदराज के इलाकों में सेवाकार्य करने वाले वनवासी कल्याण आश्रम, सेवाभारती कार्यकर्ताओं को देखा ही कहां है। दरअसल राहुल ने चुनावी राजनीति ही देखी है, उसके लिए पद और टिकटों की मारामारी देखी है। उन्होंने देशप्रेम में पगी राजनीति नहीं देखी इसलिए उन्हें अनुशासन का मतलब नाजीवाद लगता है। हमारे देश में कई राजनेता बिना सोचे-समझे विदेशी राजनीतिक दर्शनों को भारत पर चस्पां कर देते हैं। किसी संगठन में अनुशासन दिखाई दे जाए तो उसे 'नाजीवादी' और 'फासीवादी' करार दिया जाता है। लेकिन वे बरसाती मेंढक ही साबित होते हैं। संघ हिन्दू समाज को संगठित करने और सामर्थ्यवान बनाने में जुटा है। संघ का अनुशासन इस प्रेरणा से निकलता है। काश, राहुल जैसे नेता इस प्रेरणा को समझ पाते। रही बात अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की, तो उन्हें यह याद दिलाना पड़ेगा कि आपातकाल कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही घोषित किया था। कांग्रेस का इतिहास बताता है कि कांग्रेसी कार्यकर्ता केवल चापलूसी जानता है, अनुशासन नहीं। 

टी. वी. चैनलों और सोशल मीडिया पर राहुल की राजनीतिक अपरिपक्वता को लेकर तमाम तरह के किस्से-कहावतें बनाकर चलाई जा रही हैं। ऐसा ही एक किस्सा इस प्रकार है। नयी दिल्ली में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की रैली के दौरान एक अजीबोगरीब दृश्य देखने को मिला था। कांग्रेस का एक प्रत्याशी अपनी ही चुनावी रैली के दौरान मंच से उतरकर भाग गया। कालकाजी में यह घटना उस समय घटी, जब कांग्रेस की रैली में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी भाषण देने के लिये मंच पर चढ़े। राहुल को मंच पर आता देखकर कांग्रेस प्रत्याशी के होश उड़ गये और वह अपनी ही रैली से भाग खड़ा हुआ। उस प्रत्याशी के साथ दौड़ते-दौड़ते 'फेकिंग न्यूज' के संवाददाता ने पूछा कि आप अपनी ही रैली छोड़कर भाग क्यों रहे हैं, तो उसने हांफते-हांफते बताया कि 'मैं इसी शर्त पर चुनाव लड़ने को राजी हुआ था कि राहुल मेरे क्षेत्र में प्रचार करने नहीं आयेंगे। पार्टी ने मुझे धोखे में रखा। अगर अपनी ही पार्टी मुझे चुनाव हरवाना चाहती है तो अच्छा है कि मैं चुनाव ही ना लड़ूं'। इतना कहकर उन्होंने किसी अज्ञात स्थान के लिये दौड़ लगा दी। इस अप्रत्याशित घटना के बाद कांग्रेस आलाकमान ने अपने सभी प्रत्याशियों से शपथ पत्र भरवाना शुरू कर दिया है, जिसमें उनसे वचन लिया जा रहा है कि 'मैं राहुल जी का पूरा भाषण सुनूंगा और बीच में उठकर नहीं जाऊंगा।'     
 सोशल मीडिया वाले तो उनके गोया दीवाने हैं। उन पर न जाने कितने चुटकुले गढ़े गए हैं। उन्हें पप्पू, मुन्ना, राहुल बाबा कहकर संबोधित किया जाता है। यह बताने की कोशिश की जाती है कि राहुल गांधी की उम्र भले ही 43 साल की हो गई हो मगर दिमागी तौर पर वे अभी बच्चे हैं। उन्हें सामान्य सी चीजें भी समझ नहीं आतीं। वे कार्टूनिस्टों के भी चहीते हैं। यह सिलसिला तबसे ही चल रहा है जबसे राहुल राजनीति में आए हैं। माकपा के नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने तो उन्हें अमूल बेबी कहा था। इससे उनका तात्पर्य यह था कि जो कभी बड़ा नहीं होता। देश की आम जनता की राहुल गांधी के बारे में यही धारणा है-नासमझ और देश की समस्याओं से अनजान, जिम्मेदारी से दूर          भागने वाले।
मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने के कारण राहुल के लिए कांग्रेस का उपाध्यक्ष बन जाना बहुत आसान था, क्योंकि125 साल पुरानी कांग्रेस के नेताओं को पार्टी के सिद्धांतांे पर नहीं, नेहरू-गांधी राजवंश के करिश्मे पर ज्यादा विश्वास है। राहुल अगर तैयार होते तो उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी बना दिया जाता। लेकिन जनता ने उन्हें कभी नेता के तौर पर स्वीकार ही नहीं किया, क्योंकि राहुल लोगों के नेता की किसी कसौटी पर खरे नहीं उतरते। उनके पास न अध्ययन है, न अनुभव है। यही वजह है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2014 के चुनावों में ऐसी पराजय झेली जिसका कोई सानी नहीं है। अब तो कांग्रेसी भी राहुल से मुक्ति पाना चाहते हैं। देश की जनता कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है तो कांग्रेसियों का एक बड़ा तबका राहुल-मुक्त कांग्रेस चाहता है। लेकिन कुछ कांग्रेसियों को अब भी कुछ उम्मीद है कि वे देर- सबेर नेता के रूप में स्वीकार कर लिए जाएंगे। इसके लिए छुट्टी पर जाने और उसके बाद कांग्रेस के लिए 'शक्तिमान' की तरह उभरने का सोचा-समझा नाटक रचा है। लौटने के बाद राहुल ने दो-चार आक्रामक और मसाला लगे भाषण क्या दे दिए मीडिया का चापलूस वर्ग राहुल की ऐसी तारीफ करने लगा मानो कांग्रेस को नया तारणहार मिल गया है। स्टूडियो में बैठकर देश का भविष्य तय करने वाले मीडिया को लगता है कि दो-चार भाषण देने भर से जनता उनको नेता मानने लगेगी। नरेंद्र मोदी की तरह उनको सर-आंखों पर बिठा लेगी। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जनता सिर्फ मोदी के भाषणों पर नहीं रीझी है वरन् उन्होंने गुजरात में जो विकास करके दिखाया है उसने मोदी के प्रति विश्वास  जगाया है। लेकिन अपनी खुशफहमी में भटके राहुल मान बैठे कि वे जो भी बोलेंगे उस पर उन्हें वाहवाही ही मिलेगी। और फिर वही गलती कर बैठे जो पहले से करते आ रहे हैं, बिना जाने, बिना पढ़े-लिखे बोलना। उनके ज्यादातर बयान इस बात के सबूत हैं कि राहुल गांधी देश के राजनीतिक-सामाजिक वातावरण का ककहरा भी नहीं जानते। 

राहुल क्या जाने ंअनुशासन दादी से उलट रा
हुलऐसे युवाओं से कोई किसी उद्दे
श्य के लिए त्याग की उम्मीद कैसे कर सकता है, जो एक या दो दिन बिना खाए नहीं रह सकते। युवाओं को त्याग का सबक लेना चाहिए, उन्हें नि:स्वार्थ भाव वाला तथा अनुशासनबद्ध होना चाहिए।
-इंदिरा गांधी, तत्कालीन प्रधानमंत्री
(नागपुर में खाना न मिलने पर एनएसयूआई कार्यकर्ताओं द्वारा पंडाल और मंच तहस-नहस करने की घटना पर की गई टिप्पणी)

संघ चर्चा की अनुमति नहीं देता, व्यक्ति की पहचान को दबाने के लिए अनुशासन की आड़ ली जाती है। वे हथियार उठा लेते हैं जैसे जर्मन वालों ने उठाए थे। वे देश के अंदर भी चर्चा रोक देना चाहते हैं।….जहां भी वे शाखा का अनुशासन लाना चाहते हैं, वहां आप कांग्रेस पार्टी की उद्दंडता ले जाएं।
-राहुल गांधी, उपाध्यक्ष, कांग्रेस
(28 मई 2015 को एनएसयूआई के अधिवेशन को संबोधित करते हुए)

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