|
बस्तर यानी छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक-जनजातीय धड़कन. इसी बस्तर के पहलू में पसरा है अबूझमाड़. वैसे तो यह इलाका राज्य के नारायणपुर जिले का हिस्सा है लेकिन इसका फैलाव महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश तक है. आप भरोसा करें न करें, स्थानीय लोग मानते हैं कि इस इलाके का आज तक नक्शा नहीं बना. अबूझ यानी जिसे बूझना-समझना मुमकिन न हो. माड़ यानी गहरी घाटियां और पहाड़. एक ऐसा नाम जिसका भूगोल उसकी व्याकरणिक व्याख्याओं को ठोस,पथरीला आधार देता है. विकास और सुविधाओं के ताम-झाम से कटा यह ऐसा इलाका है जहां खूब बाघ-बघेरे हैं. नक्सली आतंकियों के बड़े जमावड़े हैं. ईसाई मिशनरी का फलता-फूलता नेटवर्क है. लेकिन इन सबके बीच घिरी एक सबसे महत्वपूर्ण चीज यहां और है. अपने जीवन, जरूरतों और संस्कृति को बचाने में जुटा भोला-भाला जनजातीय समाज.
जिनके तीर और बरछी देख बाघ-भालू एक तरफ हो जाते हैं, वे निपुण शिकारी एके-47 और अत्याधुनिक विस्फोटकों से लैस नक्सली गिरोहों के आगे हाथ जोड़ देते हैं. क्योंकि जब चाहे, जहां चाहे, जैसा चाहे वैसा 'इंसाफ' करने की जो शैतानी ताकत उन मशीनगनधारियों के पास है वह ताकत तीर-गुलेल में कहां. अपने ओझा-गुनिया साथ लेकर चलने वाली टोलियां तस्बीह की माला, क्रॉस और बाइबिल लेकर चलने वाले चोगाधारियों के सामने लोट जाती हैं, क्योंकि पेट की मरोड़, बुखार की 'जो जादुई सफेद दवा' चोगे से निकलती है गुनिया के पास नहीं मिलती.
अबूझमाड़ में भोले लोगों को फुसलाने-ललचाने और यहां तक कि धमकाने की भी कहानियां मिल जाएंगी। हिन्दू गांवों में बेवजह खड़े किए जाते चर्च मिल जाएंगे. लोगों को रोग मुक्ति का चमत्कारी रास्ता बताने वाली चंगाई सभाएं मिल जाएंगी. नक्सली भय और ईसाई अन्धविश्वास का ऐसा विस्तार, ऐसा सम्मिश्रण यहां आपको मिल जाएगा जिसके बूते लोगों के दिलांे में पुरखों, परंपराओं और प्रशासन के प्रति ठंडा-तीखा आक्रोश भरा जा रहा है.
क्या यह सिर्फ संयोग है कि पिछले दिनों मणिपुर में 18 भारतीय सैनिकों को मारने वाले एनएससीएन (खापलांग) के मिशनरी आतंकियों का नारा 'नागालैंड फॉर क्राइस्ट' था और आज बस्तर-अबूझमाड़ में जहां सैन्य बलों का प्रवेश दुष्कर है, वहां मिशनरी प्रचारक निर्द्वन्द्व घूम रहे हैं!!
नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कन्वर्जन के मिशनरी षड्यंत्र के फलने-फूलने की आशंका जिन्हें झूठ लगती हो उन्हें जनवरी 2012 में तत्कालीन केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के बयान को याद कर लेना चाहिए। कैथोलिक संस्था कैरिटस इंडिया के स्वर्णजयंती समारोह में यह डरावनी हकीकत खुद वरिष्ठ कांग्रेसी मंत्री की जुबान से फूट पड़ी थी। नक्सल प्रभावित इलाकों में संस्था की भूमिका का अपेक्षित दायरा तय करते हुए जयराम रमेश को यह साफ करना पड़ा कि संस्था से उम्मीद है कि वह मिशनरी सेवा कायार्ें की आड़ में लक्ष्मण रेखा नहीं लांघेगी और जनजातीय समाज का कन्वर्जन नहीं करेगी. यकीनन ऐसी नसीहत यूं ही नहीं दी जाती, इसका कारण मिशनरी गतिविधियों का दागदार इतिहास है.
ममतामूर्ति के तौर पर प्रचारित टेरेसा की 'सेवा' का सच पश्चिमी मीडिया से लेकर इंटरनेट तक पर उघड़ा पड़ रहा है. यह वही टेरेसा हैं जिनका एक मुखौटा मानवता की सेवा के लिए नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली 'संत' का है और दूसरा पक्ष उस सख्त मिशनरी का जिसने मोरारजी देसाई सरकार में कन्वर्जन के विरुद्ध बिल पेश होने पर जबड़े भींच लिए थे. तब उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि ईसाई मत का प्रचार रोकने पर शिक्षा, रोजगार, अनाथालय जैसे तमाम मिशनरी 'सेवाकार्य' रोक दिए जाएंगे. प्रधानमंत्री ने तब पूछा भी था कि ईसाई सेवा क्या सिर्फ दिखावा है जिसका असली उद्देश्य कन्वर्जन है? अबूझमाड़ आज ऐसे ऐतिहासिक मोड़ से गुजर रहा है जहां उसे सिर्फ नक्सली हमलों की बर्बरता नहीं झेलनी, आस्था और परंपराओं पर मिशनरी हमले भी झेलने हैं.
हिंसा से कांपता, आस्था पर हमलों से तपता अबूझमाड़ शायद आज उसी व्यथा को महसूस कर रहा है जो 1954 में लोकसभा में पेश हुए कन्वर्जन निरोधी विधेयक का कारण थी. मध्य प्रदेश में मिशनरी कन्वर्जन की शिकायतों से उपजी जिस पीड़ा के बाद 1955 में नियोगी आयोग का गठन हुआ और जो दर्द खुद महात्मा गांधी ने अपने जीवन में अनुभव किया था. महात्मा गांधी ने सेवा के मुखौटे में कन्वर्जन के मिशनरी मंसूबे साफ देखे थे. स्कूलों के बाहर हिंदू देवी-देवताओं को गालियां देते मिशनरी प्रचारकों की असलियत अपनी आंखों से देखी थी। उन्होंने चर्च पोषित ईसाई प्रचार पर सवाल उठाते हुए कहा था, 'यदि वे मानवीय कार्य और गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा कन्वर्जन करेंगे तो मैं निश्चय ही उन्हें यहां से चले जाने को कहूंगा. प्रत्येक राष्ट्र का धर्म किसी अन्य राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है. निश्चय ही भारत का धर्म यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है. हमें कन्वर्जन की कोई आवश्यकता नहीं है.'
सुख-दु:ख, आंधी-पानी के बीच हजारों साल से अपने पुरखों की जमीन पर जो लोग मस्ती छलकाते गीत गाते थे, आज उनके चेहरे पर सिटपिटाहट है. बंदूक और दवा, दोनों की गोली ने बस्तर-अबूझमाड़ की नैसर्गिक बोली बदल दी है. यह वक्त जनजातीय समाज, इसकी पारंपरिक विविधताओं, महुए की मस्ती और 'बूढ़ाबाबा' की छत्रछाया को कायम रखने का है. अबूझमाड़ की पहेली को अब भी न बूझा तो बहुत देर हो जाएगी.
टिप्पणियाँ