|
आऱ एल़ फ्रांसिस
अमरीका के अंतरराष्ट्रीय पांथिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआइआरएफ) ने अपनी 2015 की वार्षिक रपट में भारत के अल्पसंख्यकों की पांथिक स्वतंत्रता के बारे में अपनी जो राय जाहिर की है उसमें कोई सचाई नहीं है। यूएससीआइआरएफ ने कहा है कि वर्ष 2014 में मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद मजहबी अल्पसंख्यकों को हिंसक हमलों और जबरन कन्वर्जन का सामना करना पड़ा है। आयोग ने ओबामा प्रशासन से कहा है कि वह बहुलतावादी देश में पांथिक स्वतंत्रता के मानकों को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार पर दबाव बढ़ायंे। अमरीकी आयोग की इस रपट में भारत में पांथिक स्वतंत्रता को लेकर जो भी निष्कर्ष निकाले गए हैं, उससे यही लगता है कि रपट चर्च नेताओं और चर्च से जुड़े सामाजिक संगठनों द्वारा उपलब्ध करवाई गई 'जानकारी' के आधार पर ही तैयार की गई है। अपने अस्तित्व में आने के समय से ही यह आयोग भारत के पांथिक मामलों में अति सक्रिय रहा है। आयोग ने भारत को टीयर-2 सूची में रखा है। इस सूची में उन देशों को रखा जाता है जहां पांथिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में कथित तौर पर सरकारें या तो खुद लिप्त होती हैं या ऐसे उल्लंघन को बर्दाश्त करती हैं।
यूएससीआइआरएफ बात तो भले ही मानवाधिकारों की करता हो, लेकिन उसका मुख्य कार्य चर्च के साम्राज्यवाद को मजबूत बनाना है। इसी रणनीति के तहत दुनिया के देशों को तीन श्रेणियों में बांटकर यह आयोग कार्य करता है। आयोग की नजर में जहां पांथिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों पर सबसे ज्यादा खतरा है उनमें बर्मा, चीन, ईरान, इराक, विएतनाम, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, उज्बेकिस्तान आदि देश हैं। दूसरी श्रेणी में बेलारूस, तुर्की, सोमालिया जैसे देश हैं। आयोग की तीसरी श्रेणी में भारत, श्रीलंका, बंगलादेश, कजाकिस्तान जैसे देश हैं, जहां पांथिक स्वतंत्रता को कभी भी खतरा पैदा हो सकता है।
इस तरह का संदेश पूर्व पोप बेनेडिक्ट 16वें और वर्तमान पोप फ्रंासिस भी दे चुके हैं। पूर्व पोप बेनेडिक्ट 16वें ने तो वेटिकन स्थित भारतीय राजदूत को बुला कर भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा 'कन्वर्जन विरोधी' विधेयक लाने पर अपनी नाराजगी जाहिर की थी। उनका मानना था कि इस तरह के बिल लाने से चर्च के 'मानव उत्थान' कार्यक्रम में रुकावट आती है। नि:संदेह यूएससीआइआरएफ उन्हीं देशों में हस्तक्षेप करने की योजना बनाता है जहां चर्च को आगे बढ़ने में रुकावट दिखाई देती है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि क्या भारत में चर्च या ईसाई समुदाय के सामने ऐसी स्थिति आ गई है कि वह अपने पांथिक कर्म तक नहीं कर पा रहा? क्या ईसाइयों की जान/माल की सुरक्षा करने में देश का तंत्र असफल हो गया है? क्या विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका में इनकी सुनवाई नहीं हो रही? क्या विदेशी सरकारों एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सामने जाने के अलावा और कोई मार्ग नही बचा?
एक साल पहले सत्ता में आई मोदी सरकार ने ऐसा कौन सा कार्य किया है जिससे पांथिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर भारतीय ईसाइयों की पांथिक स्वतंत्रता पर कोई आंच आई हो? वेटिकन द्वारा दो कैथोलिकों को संत घोषित करने के अवसर पर नवम्बर 2014 में राज्यसभा के तत्कालीन उपसभापति पी. जे. कुरियन के नेतृत्व में तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल वेटिकन भेजा गया था जिसमें तीन बार नागालैंड के मुख्यमंत्री रहे निफ्यु रियो भी शामिल थे। फरवरी 2015 में कैथोलिक 'संतों' को सम्मानित करने के अवसर पर एक समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने खुद शामिल होकर संदेश दिया था कि उनकी सरकार पांथिक स्वतंत्रता को हर कीमत पर सुनिश्चित करेगी। यह जरूर है कि मोदी सरकार बनने के बाद कुछ चर्चों को अपवित्र किये जाने की कोशिश की गई। लेकिन किसी भी जांच में उनका संबंध साम्प्रदायिकता से जुड़ा नहीं पाया गया था। उसके पीछे कुछ समाज विरोधी तत्व शामिल पाए गए, जिन पर कानून के मुताबिक कार्यवाही की जा रही है। हालांकि चर्च नेताओं, कुछ सेकुलर बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा इनका संबंध हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के साथ जोड़ने के प्रयास किये गए, लेकिन असली आरोपियों के पकड़ में आने पर धीरे-धीरे इन घटनाओं की सचाई सामने आने लगी है।
पश्चिम बंगाल के रानाघाट में एक नन के साथ हुए दुर्व्यवहार, आगरा में मदर मेरी की मूर्ती की तोड़फोड़ और दिल्ली में कुछ चचार्ें पर हुईं घटनाओं पर पश्चिमी देशों समेत वेटिकन ने अपनी नाराजगी जताई थी। सरकार ने इन सभी मामलों के अरोपियों की पहचान कर उन्हें कानून के हवाले कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि पश्चिम बंगाल, आगरा (उ. प्र.) या फिर दिल्ली, इन तीनों ही राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें नहीं हैं, कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। इसके बावजूद समाज के एक वर्ग द्वारा जानबूझकर मोदी सरकार को बदनाम करने की रणनीति अपनाई गई।
अच्छा होता अगर यह अमरीकी आयोग यह तथ्य भी देखता कि भारत में चर्च कितनी तेजी से अपना विस्तार कर रहा है, वेटिकन के राजदूत नये डायोसिसों का निर्माण एवं बिशपों की नियुक्तियां कर रहे हैं। पोप फ्रांसिस ने 26 मार्च को दिल्ली से सटे गुड़गांव में सिरो मलंकारा डायोसिस बनाने की घोषणा की है। इसके कुछ समय पहले ही हरियाणा के फरीदाबाद में भी नई डायोसिस बनाई गई थी। हमारे पड़ोसी देशों, चीन, बर्मा, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान आदि में चर्च को ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है।
भारत में 'अल्पसंख्यक अधिकारों' की आड़ में चर्च लगातार अपना विस्तार कर रहा है। हालांकि उसके अनुयायी आज भी दयनीय स्थिति में हैं। भारत में चर्च के पास अपार संपत्ति है, जिसका उपयोग वह अपने अनुयायियों की स्थिति सुधारने की बजाय अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने के लिए कर रहा है। मत-प्रचार के नाम पर चलाई जा रही गतिविधियों के कारण होने वाले तनाव में क्या चर्च की कोई भूमिका नहीं होती? भारत के कुछ चर्च नेता अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सामने ढोल पीटकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, भले ही इससे देश का कितना भी अपमान हो।
टिप्पणियाँ