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यह इतिहास का कडुवा सच है कि भारत की स्वतंत्रता के महानतम आदर्श सेनानी नेताजी सुभाष को, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो वरिष्ठतम नेताओं-महात्मा गांधी तथा पं. जवाहरलाल नेहरू से निरंतर बीस वर्षों (1921-1940) तक वैचारिक संघर्ष तथा उनकी महत्वाकांक्षाओं का कोपभाजन बनना पड़ा। उनका यह टकराव सुभाष की असीम नेतृत्व क्षमता व्यावहारिक सूझबूझ, राजनीतिक यथार्थवाद, राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति भावी दृष्टि तथा नीति को लेकर रहा। नि:संदेह सुभाष के जीवन का एकमात्र लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता था।
चहेते नेहरू
गांधीजी के संबंध पं. जवाहरलाल नेहरू तथा उनके पिता मोतीलाल नेहरू से गहरे थे। पं. मोतीलाल नेहरू गांधी से आठ वर्ष बड़े थे। अत: गांधीजी उन्हें बड़ा भाई कहते थे तथा उनके नखरे भी सहते थे। गांधीजी ने ही उन्हें 1919 की अमृतसर कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया था। अत्यधिक मद्यपान के व्यसनी होने पर भी उन्हें असहयोग आंदोलन में भाग लेने की अनुमति दी थी (जेल में भी नित्य उनकी शराब की व्यवस्था की गई थी), फरवरी 1922 में गांधी द्वारा अचानक आंदोलन स्थगित होने से, वे गांधीजी के विरुद्ध आपे से बाहर हो गए, गांधीजी के विरुद्ध स्वराज पार्टी की स्थापना कर दी। 1929 के लाहौर अधिवेशन के लिए अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू के लिए गांधीजी को मनाने में सफल हुए थे। उनका तर्क था कि यदि पं. नेहरू को न संभाला तो वह बिगड़ैल हो जाएगा या लाल (कम्युनिस्ट) बन जाएगा।
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी के सबसे चहेते पं. जवाहरलाल नेहरू थे। 1916 ई. में पं. नेहरू की गांधीजी से प्रथम भेंट लखनऊ अधिवेशन में हुई थी। नेहरू जी उनके लोकसंग्रही व्यक्तित्व से प्रभावित हुए परंतु उनके दर्शन से नहीं। वैचारिक धरातल पर दोनों में बड़ा अंतर था। गांधीजी के विपरीत वे हिन्दू धर्म एवं हिन्दुत्व से कटे हुए, पाश्चात्य सभ्यता के पोषक तथा पाश्चात्य रंग में पूरी तरह से रचे बसे थे। तत्कालीन कांग्रेस संगठन के नियमों की अवहेलना कर, गांधीजी के आशीर्वाद से पं. नेहरू 1919 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष बने थे। गांधीजी ने इस पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए एक तार द्वारा पं. नेहरू को लिखा, पुराने भारत को, युवा भारत के द्वारा छुटकारा मिला (देखें, द ट्रिब्यून, 2 अगस्त, 1929) पं. नेहरू ने स्वयं माना कि वे राजनीति में पीछे के द्वार से घुसे थे, अगली तीन बार भी 1936 में वे कांग्रेस संगठन की इच्छा के विपरीत, गांधीजी की कृपा से बने थे। 1946 में भारत के प्रधानमंत्री बनने का प्रतिफल भी गांधीजी की इच्छा से हुआ।
प्रतिद्वन्द्वी सुभाष
डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने एक बार कहा था कि उड़ीसा की भारत को दो प्रमुख देन हैं- जगन्नाथपुरी का मंदिर तथा कटक में सुभाष का जन्म। सुभाष बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि तथा प्रखर प्रतिभा के धनी थे। बचपन में ही उन्होंने स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविंद के साहित्य को पढ़ा था। 1921 में वे अनिच्छा से आईएएस की परीक्षा हेतु इंग्लैंड गये थे तथा उनका स्थान चौथा आया था। उनका लक्ष्य ब्रिटिश सरकार की नौकरी करना न था। उन्होंने वहां यूरोप का प्रत्यक्ष दर्शन, वातावरण तथा इतिहास को गहराई से समझना था। वहां उन्होंने बिस्मार्क की आत्मकथा, मैजिनी के संस्मरण तथा काचूर के पत्र संग्रह को पढ़ा था।
परीक्षा पास करते ही भारतीय स्वतंत्रता की तड़प लिए वे जुलाई 1921 में वापस मुम्बई आये तथा सर्वप्रथम उन्होंने भारत के प्रमुख राष्ट्रीय नेता गांधीजी से भेंट की, दुर्भाग्य से यह प्रथम भेंट सुखद न रही, सुभाष को गहरी निराशा हुई। सुभाष ने स्वयं इस भेंट के बारे में लिखा, उनकी वास्तविक आशा क्या थी, मैं समझने में असमर्थ था। या तो वे अपनी सारी गुप्त बातों को समय से पहले बताना नहीं चाहते थे या उन कार्यनीतियों के बारे में उनकी स्पष्ट धारणा न थी जो सरकार को मजबूर कर सके (देखें, सुभाषचंद्र बोस द इंडियन स्ट्रगल (1920-1934) लंदन, 1935, पृ.68) और तभी से सक्रिय राजनीति में उनका परस्पर टकराव बढ़ता गया। सुभाष ने अपना सार्वजनिक जीवन नवम्बर 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर विरोध से किया जिसमें वे गिरफ्तार किये गये। असहयोग आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। अचानक आंदोलन के स्थगित किये जाने पर जहां पं. जवाहरलाल नेहरू ने विरोध में इसे सुन्न करने वाली दवा की खुराक कहा तो सुभाष ने इसको कष्टकारक कहा (बीआर नंदा, पं. मोतीलाल नेहरू, पृ. 143) सुभाष ने 1927 के चैन्नै (मद्रास) अधिेवशन में युवा कांग्रेस नेता के रूप में बढ़-चढ़कर भाग लिया। अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हो गया। प्रस्ताव पास होने पर गांधीजी अनुपस्थित थे पर प्रस्ताव पास होने के बाद उन्हें पता चला (पट्टाभि सीतारमैय्या, हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस, भाग एक, पृ. 541) गांधीजी ने आने पर इसकी निंदा की तथा कहा कि यह जल्दी में बिना समझे पास किया गया है। 1928 ई. में जब कांग्रेस की ओर से नेहरू रपट तैयार की गई। इसमें भारत के भावी संविधान में गांधीजी के समर्थन से 'डोमिनियन स्टे्टस' की मांग की गई। सुभाष ने पूरी स्वतंत्रता के प्रस्ताव का दबाव बनाया पर गांधीजी का उन्हें समर्थन नहीं मिला। 1928 के कोलकाता अधिवेशन में भी सुभाष की एकमात्र आवाज भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग रही थी। 1929 का कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन कांग्रेस के इतिहास में एक राजनीतिक छलावा, एक भ्रमजाल तथा एक नाटक था। पं. नेहरू जी के नेतृत्व में पूर्ण स्वराज्य अर्थात पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा मंच से की गई थी। सुभाष बोस ने पूर्ण स्वराज्य का अर्थ अंग्रेजों से पूर्ण संबंध विच्छेद करके स्वतंत्रता से जोड़ने को कहा। परंतु गांधीजी ने इसे स्वीकार न किया। परंतु 9 जनवरी 1930 के हरिजन में पूर्ण स्वराज्य का अर्थ 'डोमिनियन स्टे्टस' ही स्वीकार किया। इतिहास का यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का कभी लक्ष्य ही नहीं रखा (देखें सतीशचन्द्र मित्तल, कांग्रेस : अंग्रेज भक्ति से राजसत्ता तक, नई दिल्ली, 2011) सुभाष बोस ने कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) में भाग लिया। पर आंदोलन के स्थगित होने पर इसे गांधीजी की असफलता की स्वीकृति कहा तथा कांग्रेस के पुनर्गठन की मांग की (देखें पट्टाभि सीतारम्या, हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस, भाग एक पृ. 942) 1935 के अधिनियम के संदर्भ में सुभाष ने देशव्यापी दौरा किया तथा वे देश के सर्वोच्च नेता बन गए थे। मार्च 1936 तथा दिसम्बर 1937 के क्रमश: लखनऊ तथा फैजपुर अधिवेशन में पं. नेहरू पुन: गांधीजी के सहयोग से अध्यक्ष बने परंतु दोनों अधिवेशनों में उनका समाजवाद का नारा न गांधीजी को अच्छा लगा, न किसी और को। 1937 के चुनाव में देश में 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बने। नेहरू जी इससे बड़े प्रसन्न थे, सुभाष बोस ने इनका विरोध किया। उन्होंने कहा, जब देश स्वतंत्र न हो तो पद ग्रहण करने से देश में क्रांतिकारी भावना मंद पड़ जायेगी तथा कांग्रेस में गुटबाजी, पदलोलुपता तथा अवसरवादिता बढ़ेगी। बाद में गांधीजी ने अपने लेखों में यह स्वीकार किया।
1938 ई. का कांग्रेस अधिवेशन ताप्ती नदी के तट पर हरिपुर में हुआ। इसमें पहली बार सुभाष बोस को कांग्रेस के इक्यानवे वर्ष का अध्यक्ष बनाया गया। सुभाष ने अपने भाषण में भारत को मुख्य विषय बनाया। आर्थिक संरचना की योजना रखी। कांग्रेस के ढांचे को प्रजातांत्रिक बनाने को कहा। इसके साथ ही स्वतंत्रता प्राप्ति की एक निश्चित तारीख तय करने को कहा, इससे गांधीजी के साथ टकराव भी बढ़ा। सुभाष, गांधी जी को अपना प्रतिद्वन्द्वी लगने लगे। उन्हें कांग्रेस में अपनी 'सुपरप्रेसीडेंट' की गरिमा को खतरा लगा। अत: 1939 के चुनाव के लिए उन्होंने अपना प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैय्या को खड़ा कर दिया। गांधीजी की आशा के विपरीत उनका व्यक्ति 203 मतों से पराजित हो गया। गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत हार मानी। समूचे देश में समाचार तेजी से फैल गया। गांधीजी ने इस पराजय को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया। त्रिपुरा (मध्य प्रदेश) में बीमारी की अवस्था में सुभाष ने अधिवेशन में भाग लिया। उन्होंने एक लेख भी लिखा जिसमें उन्होंने विष देने की आशंका भी व्यक्त की। (देखें, सुभाष का लेख माई स्ट्रेन्ज इलनैस माडर्न रिव्यू, कोलकाता, अप्रैल 1939) गांधीजी नियंत्रित 15 कार्यकारिणी के सदस्यों में से 13 ने त्यागपत्र दे दिया तथा उनके साथ कार्य करने से इंकार कर दिया। आखिर सुभाष ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने मई 1939 में अपना संगठन फारवर्ड ब्लॉक प्रारंभ किया।
सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा हो गई। भारत के गवर्नर जनरल लार्ड लिथलिथयो ने बिना भारतीयों से पूछे भारत की युद्ध में भागीदारी की घोषणा कर दी। कांग्रेस के नेता इस बारे में बंटे हुए थे। गांधीजी चाहते थे कि अंग्रेजों के युद्ध के संकट में कोई बाधा न बननी चाहिए। सुभाष चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार को छह महीने का समय दे, स्वतंत्रता की घोषणा न करने पर जन आंदोलन हो। गांधीजी इसे टालना चाहते थे।
मार्च 1940 में कांग्रेस का अधिवेशन रामगढ़ में हुआ। इसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। इसी दिन सुभाष बोस ने भी रामगढ़ में ही ब्रिटिश शासन विरोधी सम्मेलन किया। कांग्रेस मंच से बार-बार बोला गया कि सुभाष का भाषण सुनने न जाएं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नाम से परचे बांटे गए। इसमें लिखा था कोई कांग्रेसी सुभाष बोस का भाषण सुनने के लिए कहीं नजर न आये। परंतु इतनी घोषणाओं के बाद भी सुभाष के सम्म्ेलन में उनसे दस गुना अधिक संख्या थी। संभाष ने अपने भाषण में कहा, हमारा प्रमुख कार्य साम्राज्यवाद का अंत और भारत में राष्ट्रीय स्वाधीनता लाना है। (देखें शिशिर कुमार बोस, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, नई दिल्ली 1996, पृ. 98) दिल्ली के एक कांग्रेसी दैनिक पत्र हिन्दुस्तान के संपादक ने प्रमुख लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- देशद्रोही सुभाष। उल्लेखनीय है कि पत्र के प्रमुख व्यवस्थापक थे श्री देवदास गांधी। सुभाष इस लेख को पढ़कर बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपने मनोभाव प्रकट करते हुए लिखा, इस समय कई बार मेरे मन में आया कि मैं आत्महत्या कर लूं परंतु देश को स्वतंत्रता कराने की प्रबलतम भवनाओं ने मन को ऐसा करने न दिया। अत: मार्च 1940 तक गांधी एवं सुभाष का दुर्भाग्यपूर्ण टकराव चलता रहा। परंतु यह उल्लेखनीय है कि सुभाष बोस ने गांधी जी के प्रति उदात्तभाव न छोड़े। छह जून 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर उन्होंने कहा, भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है राष्ट्रपिता। भारत की मुक्ति के इस पवित्र अवसर पर हम आपका आशीर्वाद तथा शुभकामना चाहते हैं। (देखें विपिन चन्द्र, भारत का स्वातंत्र्य संग्राम, पृ-434)
नेहरू-सुभाष टकराव
नेहरू-सुभाष के प्रति टकराव से कभी अलग न रहे। टकराव तात्कालिक और भारत की भावी रचना का था। दोनों के मार्ग भी भिन्न थे। अंग्रेजों के प्रति नेहरू दब्बू नीति तथा उनके विरोध के कायल न थे। जबकि सुभाष बोस बिना किसी लागलपेट के स्पष्ट रूप से ब्रिटिश विरोधी थे। वे समझौतावादी न थे। न ही उनकी स्वतंत्रता का अर्थ गोलमोल था। उनका ब्रिटिश विरोध उनके अनेक भाषणों से प्रकट होता है। उदाहरणत: वे कहते- ब्रिटेन का पतन निकट है, शैतान के साम्राज्य का अन्त होगा, ब्रिटेन का दुश्मन, भारत का मित्र, पृथ्वी की कोई ताकत, भारत को स्वतंत्र होने से नहीं रोक सकती आदि (देखें, सलैक्टेड स्पीचेज ऑफ सुभाषचन्द्र बोस पृ. 157,228) नेहरू तथा सुभाष का समाजवाद भी बिल्कुल भिन्न था। सुभाष-नेहरू के कोरे काल्पनिक तथा व्यक्तिगत समाजवाद के कटु आलोचक थे। वे इस संदर्भ में नेहरू को व्यवहार शून्य मानते थे। नेहरू को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की रचना में महत्वपूर्ण योगदान था पर वे उसके सदस्य नहीं बने। सुभाष ने 1939 में उनके समाजवाद की कटु आलोचना करते हुए एक लंबा पत्र भी लिखा था (देखें नेहरू : ए बंच ऑफ ओल्ड लैटर्स, पृ. 311) सुभाष ने समाजवाद की अपनी कल्पना पर 1929 में रंगपुर की एक सभा में कहा था भारतीय समाजवाद कार्ल मार्क्स के ग्रंथों में नहीं है। उन्होंने एक स्थान पर कहा भारतीय समाजवाद उनकी सांस्कृतिक परंपरा में है। 1944 में उन्होंने टोकियो विश्वविद्यालय में कहा था, हम अपनी संस्कृति के अनुसार नवीन भारतीय राष्ट्र का निर्माण करेंगे।
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन सोवियत रूस के इतिहासकार भी नेहरू की समाजवादी कल्पना का उपहास करते थे। (देखें प्रोफेसर आर. उल्यानोवस्की का लेख- औरेस्ट मार्टिशिन की पुस्तक जवाहरलाल नेहरू एण्ड हिज पालिटिकल व्यूज (मास्को, 1981) यह इतिहास की आश्चर्यजनक स्थिति है कि सुभाष बोस के, विदेश में भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के लिए सैनिक संघर्ष के काल में भी पं. नेहरू का ब्रिटिश प्रेम तथा सुभाष विरोध न घटा। द्विजेन्द्र बोस के अनुसार 1942 में श्रीनगर में एक वक्तव्य में नेहरू जी ने कहा था कि यदि सुभाष जापान की ओर से भारत पर आक्रमण के लिए आये तो मैं पहला व्यक्ति हूंगा जो उसका सशस्त्र विरोध करेगा। (देखें, जस्टिस जी.डी. खोसला, द लास्ट डे ऑफ नेताजी पृ.107) 19 अगस्त 1945 को स्वयं पं. नेहरू ने एक प्रेस वार्ता में स्वीकार किया (देखें, सलैक्टेउ वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू पृ. 332) सुभाष बोस के संदर्भ में कुछ गुप्त फाइलों से यह समाचार प्रकाश में आ रहा है कि पं. नेहरू अपने प्रधानमंत्री काल में अर्थात 1948-1964 तक सुभाष के प्रति इतने सतर्क रहे कि उनके परिवार की गुप्तचरों द्वारा निरंतर निगरानी होती रही। यदि यह सच है तो देश की जनता के लिए अत्यंत पीड़ादायक तथा कांग्रेस शासकों के लिए शर्मनाक है।
काल्पनिक मृत्यु पर जांच आयोग
18 अगस्त 1945 को फरमोसा के निकट हवाई दुर्घटना से सुभाष की अचानक मृत्यु के समाचार को देश के जनमानस ने स्वीकार न किया। देश के प्रमुख नेता महात्मा गांधी तथा मदनमोहन मालवीय ने इसे सही नहीं माना। मालवीय जी ने कोलकाता, परिवार के लोगों को समाचार भी भेजा कि वह उनका श्राद्ध न करें, क्योंकि सुभाष मरे ही नहीं हैं। यहां तक कि भारत के गवर्नर जनरल लार्ड वैवल ने भी मृत्यु के समाचार पर संदेह व्यक्त किया।
स्वाभाविक है कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू से उनकी मृत्यु के संदर्भ में जांच की मांग उठी। 21 सितम्बर 1955 को लोकसभा में पं. नेहरू ने एक वक्तव्य देकर इस मांग को अस्वीकार कर दिया तथा कहा कि यह मामला जापान सरकार का है तथा जांच के लिए उसे मजबूर नहीं कर सकते (प्रो. समर गुप्त, नेताजी डेड और एलाईव पृ. 32) परंतु 64 दिनों के पश्चात नेहरू को झुकना पड़ा तथा 3 सितम्बर 1955 को तीन सदस्यीय जांच आयोग बैठाया गया। इस आयोग में शहनवाज खां, एक पूर्व आईएएस एसएन मिश्र तथा सुभाष के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस थे। तीन में से एक सुरेश चंद्र बोस ने इस जांच को अस्वीकार किया। आश्चर्य है कि शीघ्र ही शाहनवाज खां को उच्च पद दे दिया गया। जांच के लिए एक अन्य आयोग न्यायमूर्ति जी डी खोसला के नेतृत्व में 1967 में नया जांच आयोग नियुक्त किया गया।
इस आयोग के पीछे खोसला की पुस्तक 'द लास्ट डेज ऑफ नेताजी' उनकी मानसिकता को बतलाती है। जांच मुख्यत: नेहरू तथा सुभाष से अच्छे संबंधों पर प्रकाश डालती है न कि मृत्यु की जांच पर। यद्यपि उक्त पुस्तक में सुभाष के ये वाक्य भी उद्घृत किये गए हैं जो उन्होंने अमिय बोस को लिखे थे जो कि नेहरू के संबंध में थे- किसी व्यक्ति ने व्यक्तिगत रूप से मुझे इतना नुकसान नहीं पहुंचाया और न ही हमारे कार्य को- इस संकट की घड़ी में जितना पंडित नेहरू ने। (विस्तार के लिए वीपी सैनी, द कान्सपीरेटर्स, अबडक्टरस एण्ड किलर्स ऑफ नेताजी, पृ. 148) तीसरा आयोग 14 मई 1999 में सेवानिवृत्त न्यायाधीश एम के मुखर्जी की अध्यक्षता में बना। आयोग ने जांच में लंबा समय लिया परंतु निष्कर्ष दिया कि सुभाष की मृत्यु विमान दुर्घटना से नहीं हुई।
उभरते प्रश्न
राष्ट्र के महानतम वलिदानी पुरुष नेताजी सुभाष से जुड़े आज भी अनेक कचोटने वाले प्रश्न हैं। प्रथम, 1939 में सुभाष को विष दिया गया था। दूसरा क्या नेहरू ने 1942 में उनके विरुद्ध सशस्त्र संधर्ष की बात कही थी? तीसरे, क्या मृत्यु की जांच इमानदारी से कराई गई? चौथा, क्या सुभाष के परिवार की जासूसी 1948-1968 तक भारतीय गुप्तचरों द्वारा कराई गई? पांचवां, 1947 से आगामी पचास वर्षों तक सुभाष जयंती सरकारी स्तर पर क्यों नहीं मनाई गई? छठा, क्या 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने सुभाष से संबंधी रिकॉर्ड की जानकारी मांगने पर गृह मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी ने झूठ बोला था कि भारत सरकार के पास कोई रिकार्ड नहीं है। सातवां, क्यों 1947 के बाद के गुप्त दस्तावेजों को खोला जाय। निश्चय ही ये उपरोक्त जानकारी राष्ट्रहित में होंगी, राष्ट्र अहित में नहीं। – डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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