भटकों को राह पर लाओ उलेमाओ !
May 9, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • अधिक ⋮
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

भटकों को राह पर लाओ उलेमाओ !

by
Apr 4, 2015, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 04 Apr 2015 14:28:32

सुल्तान शाहीन
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जिनेवा में 13 मार्च को एजेंडा आइटम 3-: 'मजहबी अल्पसंख्यकों के अस्तित्व का संरक्षण और उनके खिलाफ हिंसा की रोकथाम' पर सुल्तान शाहीन द्वारा आम बहस के दौरान दिए गए मौखिक बयान के मुख्य अंश:-
अध्यक्ष महोदय,
इस्लामी आतंक की ज्यादतियों का सामना करते हुए, सुन्नी इस्लामिक शिक्षा के सबसे पुराने केन्द्र जामिया अल-अजहर के प्रमुख ने मक्का में एक आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में स्वीकार किया कि अतिवाद 'कुरान और पैगंबर मोहम्मद की कही हुई बातों की भ्रष्ट व्याख्या', की वजह से हुआ है और इस्लामी पाठ्यक्रमों को बदलने की जरूरत है।
हालांकि सुधार के प्रति आधे अधूरे मन के दृष्टिकोण से काम नहीं बनेगा। मुसलमान जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, वे बहुत बुनियादी हैं और उन्हें पाठ्य-पुस्तकों में फेरबदल मात्र से हल नहीं किया जा सकता है। वैश्विक मुस्लिम समुदाय को आत्मविश्लेषण करना होगा। उदाहरण के लिए, बार-बार पूछा जाने वाला एक सवाल कुरान की प्रासंगिक आयतों के बारे में है, जिनका उपयोग जिहादियों द्वारा हमारे युवाओं का 'ब्रेनवाश' करने में किया जाता है। जिहादी इन प्रासंगिक आयतों को मुसलमानों के लिए एक शाश्वत और समकालीन 'गाइड' के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।
सचाई यह है कि ये आयतें इस्लाम के प्रारंभिक वषोंर् में उनके समक्ष आए संघर्ष में पैगंबर का मार्गदर्शन करने के लिए आई थीं। ये आयतें आज हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने के लिए नहीं हैं। लेकिन शायद ही कोई विद्वान सामने आएगा और यह बात साफ-साफ शब्दों में कहेगा। यह चीज जिहादियों को ताकत देती है। अगर हम कुरान की प्रासंगिक और वैधानिक आयतों के बारे में और आज हमारे लिए उनकी प्रासंगिकता के बीच अंतर के बारे में बात भी नहीं कर सकते हैं, तो हम जिहादियों द्वारा प्रस्तुत भारी-भरकम चुनौती का सामना कैसे कर सकते हैं।
ऐसी ही चुनौतियां जिहादियों द्वारा उद्घृत पैगंबर की बातों (अहदीस) द्वारा अपनी क्रूरता, असहिष्णुता, अज्ञात भय, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने, और अपना राज आने के दिनों के सपनों की पुष्टि करने से पेश आती हैं। खास तौर पर तथाकथित इस्लामिक स्टेट यह कार्य सबसे अधिक मुस्तैदी से करता है। लेकिन उन तथाकथित हदीस की किस प्रामाणिकता का दावा किया जा सकता है, जिनका संकलन नबी के निधन के दो शताब्दियों बाद किया गया था। इस्लाम की प्रारंभिक शताब्दियों में विद्वानों ने ऐसी लगभग छह लाख कथित हदीसों को खारिज कर दिया था। हम जिहादियों को ऐसी काल्पनिक कथाओं के बूते विश्व शांति को अस्थिर करने की अनुमति कैसे दे सकते हैं? हम मुसलमानों को खुलकर सामने आना होगा और हर उपलब्ध मंच से जिहादियों की 'थीसिस' पर सवाल उठाना होगा। हम इस चुनौती का सामना सिर्फ इसी तरीके से कर सकते हैं।
अध्यक्ष महोदय,
हालांकि मुझे खुशी है कि कुछ उदारवादी मुसलमानों ने जिहादी विचारधारा का मुकाबला करने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है। अब तक हम इनकार करने की मुद्रा में थे। हमें आतंकवाद और पिछले कुछ दशकों में व्यापक रूप से प्रचारित की गईं इस्लाम की कुछ व्याख्याओं के बीच किसी तरह का संबंध ढूंढने में मुश्किल होती थी। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी दुनियाभर के मदरसों को पश्चिम के मित्र अरब देशों से अतिवादी पाठ्य पुस्तकों और शिक्षण के निर्यात पर नकेल नहीं कसी है।
सिर्फ जामिया अजहर के उपकुलपति ही नहीं, बल्कि अब बाकी अन्य लोग भी इस्लाम में सुधार की आवाज उठा रहे हैं। यह वह कार्य है जो एक सुसंगत और व्यवस्थित ढंग से अभी तक केवल इस्लामिक वेबसाइट 'न्यू एज इस्लाम' पर किया जा रहा था। कोई संदेह नहीं कि हिंसा की जिहादी विचारधारा का मुकाबला करने के कारण पिछले दो साल से न्यू एज इस्लाम पर पाकिस्तान में प्रतिबंध लगा दिया गया है। उस देश में, जिसमें 150 जिहादी प्रकाशन हिंसा की जिहादी विचारधारा प्रचारित कर रहे हैं।
संतोष की बात यह है कि दुनिया के विभिन्न भागों से कई अन्य मुसलमान अब आत्मनिरीक्षण और परिवर्तन की मांग करने के लिए खुलकर सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए, 4 जाने-माने मुसलमान बुद्धिजीवियों ने सभी मुसलमान राजनीतिक और मजहबी नेताओं से अपील की है कि वे, जिसे उन्होंने 'लोकतांत्रिक इस्लाम' कहा है, उसके पक्ष में खुलकर सामने आएं और उसका समर्थन करें। उन्होंने अगले साल की शुरुआत में फ्रांस में एक सम्मेलन बुलाया है, जिसमें '21वीं सदी में दृढ़ता से जड़ें जमाए इस्लाम की एक प्रगतिशील व्याख्या की आकृति' परिभाषित की जाएगी।
तारिक रमादान, अनवर इब्राहिम, गालिब बेनशेख और फेलिक्स मरक्द्तने इस्लाम की वर्तमान दुर्दशा का एक खुली आंखों से निदान करने का आह्वान किया है और वे इस्लामी संस्कृति और मजहब की मौलिक आलोचना का विकास करना चाहते हैं।
उन्होंने जो सवाल पूछे हैं, उनका जवाब दिए जाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए क्या कारण है कि 'इस्लामी पुनर्जागरण' के नियमित आह्वानों का काफी हद तक कोई उत्तर नहीं मिला है? आखिर क्यों 20वीं सदी की शुरुआत में शुरू किए गए 'कुरान और पैगंबर की परंपराओं के मामले में बिना समझौता आलोचनात्मक विश्लेषण' से आधुनिकता की ओर कोई स्थायी इस्लामी मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ? आखिर आधुनिकता और इस्लामी मानदंडों और मूल्यों के बीच एक संपर्क की तलाश करने वाले नवीन सुधारक अक्सर एक हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए समाज के हाशिए पर खड़े रहने के लिए मजबूर क्यों हो जाते हैं?
उलेमा, बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने अब तक जो किया है, वह एक दिखावटी प्रयास से अधिक कुछ नहीं है। वे उम्मीद कर रहे और प्रार्थना कर रहे हैं कि शायद मुद्दे खुद ब खुद दूर हो जाएंगे। लेकिन कट्टरपंथ गहरा और तीव्र हो रहा है। यह ज्यादा से ज्यादा 'कन्वर्टेड' लोगों को आकर्षित कर रहा है, जैसा कि हम देख सकते हैं कि पश्चिम के भले घरों से सैकड़ों लड़के और यहां तक कि लड़कियां भी घरों से भाग कर इराक और सीरिया में युद्घ में शामिल हो रहे हैं।
इससे यह स्पष्ट है कि अगर मुसलमान मजहबी विशेषज्ञ इस्लाम को एक उदार मजहब, एक नैतिक मानक, मुक्ति के एक आध्यात्मिक मार्ग के रूप में जीवित रखना चाहते हैं, तो उनको इस्लामी शास्त्रों को आतंकवादी 'मैनुअल' में पतित होने के बजाए सतही बयानों से आगे आना होगा, समझदारी की दिशा में कदम बढ़ाना होगा, शांति और संयम की एक सुसंगत व्याख्या तैयार करनी होगी,और जनता के बीच उसका प्रचार करना होगा।
अध्यक्ष महोदय,
अगर उलेमा अपनी शांतिपूर्ण बातों को अमल में लाने के लिए सहमत नहीं होते हैं, तो वृहद् समाज को उन कुछ उदारवादी, प्रगतिशील मुसलमानों को प्रोत्साहित करना चाहिए और उनका समर्थन करना चाहिए, जो इस प्रक्रिया में बलिवेदी पर अपना सिर रखने के लिए तैयार हैं। इस वर्ग को उलेमा और अभियान दोनों को दरकिनार करते हुए सीधे समुदाय के समक्ष जाने में सक्षम होना चाहिए।
जिन कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों को तुरंत सुलझाने की जरूरत है वे जिहाद और तकफिर (एक मुसलमान को पंथभ्रष्ट घोषित करने) की अवधारणाओं से संबंधित है। तथाकथित इस्लामिक स्टेट दाबिक (ऊंु्र० 7वां अंक) नाम की अपनी नवीनतम प्रचार पत्रिका में ऐलान करता है 'इस्लाम तलवार का दीन है, शांतिप्रियता का नहीं।' वह कहता है अल्लाह ने इस्लाम को तलवार का मजहब बनने के लिए पेश किया है और इस बात के सबूत इतने बेपनाह हैं कि केवल कोई जिनदिक (मजहब का कच्चा) ही इसके खिलाफ तर्क देगा। इसके समर्थन में, बाकी बातों के अलावा वह मोहम्मद इब्र-ए-अब्दुल वहाब के मजहबी उस्ताज इब्न तैमियाह को बड़े पैमाने पर उद्द्घत करता है, जिन्होंने कहा था कि 'मजहब का आधार एक मार्गदर्शक किताब और उसके समर्थन में खड़ी तलवार होती है'। 'मजमुआ अल फतवा इब्न तैमियाह,।'
अपनी 'थीसिस' का औचित्य साबित करने के लिए इसके बाद वह जाहिर तौर पर अतिवादी आयतों का उद्घरण देता है : सूरा अल अनफल 12,अत-तवबाह:। 5,अत-तवबाह:29, 'अल-हुजुरात:9,'अल मायदाह: 54, 'अल-हदीद: 25,और इनकी व्याख्याएं तफ्सीर इब्र कठीर से पेश करता है।
तथाकथित इस्लामिक स्टेट की मूल मान्यताएं निम्न लिखित बयानों से उत्पन्न होती है, जो वहाबीवाद-सलाफीवाद की नींव हैं:'अगर मुसलमानों शिर्क (बहुदेववाद) से परहेज रखते हैं और मुवाहिद (एकेश्वरवाद में विश्वास रखने वाले) हैं, तो भी उनकी आस्था तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक उनकी हरकतों में और उनके भाषणों में गैर-मुसलमानों के खिलाफ शत्रुता और घृणा न हो'(शेख मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब, मजमुआ अल-रसाइल वल मसाइल अल-नाजदिआह 4/291)
'इस्लाम धरती भर पर कहीं भी उन सभी हुकूमतों और सरकारों को नष्ट करना चाहता है, जो इस्लाम की विचारधारा और कार्यक्रम के विरुद्घ हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि वह देश या राष्ट्र कौन सा है, जो उस पर शासन करता है। इस्लाम का एक ऐसी हुकूमत की स्थापना करना है, जिसका आधार उसकी खुद की विचारधारा और कार्यक्रम हों, इस बात की परवाह किए बिना कि कौन सा देश इस्लाम के मानक वाहक या शासन की भूमिका निभा रहा है, या यह कि एक वैचारिक इस्लामिक स्टेट स्थापित करने की प्रक्रिया में कौन से राष्ट्र की हैसियत कम होती है।
'इस्लाम को पृथ्वी की जरूरत है – सिर्फ एक हिस्से की नहीं, बल्कि पूरे ग्रह की़.़ क्योंकि पूरी मानवजाति को 'इस्लाम की, विचारधारा और कल्याण कार्यक्रमों से लाभ होना चाहिए। इस दिशा में इस्लाम उन सभी ताकतों को तैनात करना चाहता है, जो क्रांति ला सकते हों और इन सभी ताकतों के इस्तेमाल के लिए एक समग्र शब्द 'जिहाद' है। .़. इस्लामी 'जिहाद' का मकसद किसी गैर-इस्लामी प्रणाली के शासन को खत्म करना और इसके बजाए राज्य शासन की इस्लामी प्रणाली स्थापित करना है। 'जिहाद फिल इस्लाम में अबुल अला मौदुदी आज के दौर के सबसे प्रभावशाली जिहादवादी विचारकों में से एक मोहम्मद अल-मकदिसी, वहाबी केंद्रीय सिद्घांत अल-वलाश्वा अल बारा को गैर-वहाबी मुसलमानों और दूसरों के प्रति नफरत और दुश्मनी जताते हुए यह कहकर स्पष्ट करते हैं कि बहुदेववादियों (मशकरीन) और उनके झूठे देवताओं को नकारा जाना (बर्राह) है।
'खुलेआम उन पर और उनके देवताओं पर और उनके तरीकों और उनके कानूनों और उनके शिर्क (बहुदेववाद) के विधानों पर अविश्वास का ऐलान करो।' उनके प्रति और उनके ओहदों और कुफ्र की हालातों के प्रति शत्रुता और घृणा का खुलेआम प्रदर्शन उस समय तक करो, जब तक वे अल्लाह के पास वापस नहीं लौट आते और उस सब पर अविश्वास करते हुए उसे नकार (बर्राह) नहीं देते।'
आप चाहेंगे कि इस्लाम के वे अनुयायी, जो इस्लाम को अध्यात्म, शांति, सहअस्तित्व और सहिष्णुता का मजहब मानते हैं, और ऐसा मानने वाले निश्चित तौर पर बहुत लोग हैं, वे इस्लामिक स्टेट के खिलाफ उठ खड़े होंगे। लेकिन जहां कुछ वगोंर् से रोजमर्रा की निंदा कभी-कभार की जाती है, लेकिन मुस्लिम समाज में कोई नाराजगी दिखाई नहीं देती है। दुनिया को इस बात पर गौर करने से नहीं रोका जा सकता है कि जब किसी के भी खिलाफ तथाकथित ईशनिन्दा का आरोप लगता है, लाखों मुसलमान विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतर आते हैं, लेकिन इस्लामवादी आतंकवादियों द्वारा ढहाई जा रही असंख्य ज्यादतियों के विरोध में शायद ही कोई मुसलमान सामने आता हो।
जाहिर है कुछ गलत है, कुछ असंबद्ध है, इस मुद्दे को एक सतही नजर से जैसे समझा जा सकता है, उसकी तुलना में कुछ गहरी और अधिक जटिल चीजें सक्रिय हैं। नाराजगी व्यक्त करने के बजाए, हम पाते हैं कि हजारों मुसलमान युवा पुरुष और महिलाएं तथाकथित इस्लामिक स्टेट की ज्यादतियों में शामिल होने के लिए अपने आरामदेह घरों, निजी स्कूलों और मनपसंद नौकरियों से भाग खड़े हो रहे हैं। बताया जाता है कि अब तक 80 देशों से कोई 12,000 मुसलमान युवा पुरुष और महिलाएं शामिल हो चुके हैं। जाहिर है कि वे इस्लामिक स्टेट की इस 'थीसिस' को स्वीकार करते हैं कि 'इस्लाम तलवार का मजहब है, न कि शांति का।' जाहिर है वे पैगंबर के तथाकथित बातों में पाई गई हजार वर्ष से चली आ रही बातों और कयामत के समय की भविष्यवाणियां स्वीकार करते हैं। अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि इस स्वच्छंदतावाद का संबंध इस बात से हो सकता है कि किसी काउंटर-कथा के अभाव में इस्लामी शिक्षा मुस्लिम मन को किस तरह गढ़ देती है।
जामिया अल-अजहर के उप कुलपति शेख अहमद अल तायेब ने शिक्षा में सुधार की दिशा में बात करके बहुत अच्छा कार्य किया है। यहां आत्मनिरीक्षण, गहन विचार, विभिन्न विषयों पर विचारों का पुनर्गठन और वैश्विक मुस्लिम समुदाय को शामिल करना आदि अवश्य ही कुछ लंबी खिंचने वाली बात हो जाएंगी, शैक्षणिक सुधार तुरंत शुरू करना चाहिए। फिलहाल इस्तेमाल की जा रही पाठ्यपुस्तकें सैकड़ों वर्ष पुरानी हैं, इन्हें किसी भिन्न युग में और बहुत अलग उद्देश्यों को मन में रखकर तैयार किया गया था। जो सऊदी पाठ्यपुस्तकें अपेक्षाकृत आधुनिक हैं और बड़ी संख्या में मुस्लिम विश्व को निर्यात की जा रही हैं, उन्हें विशेष रूप से अन्य पांथिक समुदायों और इस्लाम के गैर वहाबी संप्रदायों के प्रति नफरत पैदा करने के लिए 'डिजाइन' किया गया है।
मैं इस बात को इस परिषद में भी अपने पिछले मौखिक बयानों में से एक में बता चुका हूं। विचारों से प्रभावित हो सकने लायक युवा मन के लिए इन सऊदी पाठ्यपुस्तकों से कुछ 'कोटेशन्स' पर मात्र एक नजर डालने से हमें पता चलता है कि आखिर क्यों इतने सारे युवा, विशेष रूप से सऊदी अरब से और उन अन्य देशों से जहां इन किताबों को पढ़ाया जाता है, जिसे वे जिहाद समझते हैं, उसके लिए, अपने घरों और विद्यालयों को छोड़कर तथाकथित इस्लामिक स्टेट में शामिल हो रहे हैं। 'टीचिंग इस्लाम' नाम से सऊदी स्कूली पाठ्यपुस्तकों के एक प्रसिद्ध अध्ययन में प्रोफेसर एलेनोर अब्देल्ला दौमातो ने टिप्पणी की है- 'यह घोषणा करने के बाद कि सभी के लिए केवल एक ही इस्लाम है और अन्य व्याख्याओं के लिए कोई जगह नहीं है, पाठ्यपुस्तकें यह संदेश देती हैं कि दर्शन और तर्क का नतीजा फूट पड़ने में निकलता है, और इसलिए उनसे विशेष रूप से परहेज रखा जाना चाहिए।'
दौमातो (10 बी:14) और (10 बी: 15).5 के पाठ्य से दो पैराग्राफ का उद्घरण देते हुए आगे टिप्पणी करते हैं -'संदेश यह है कि बौद्धिक बहस और व्यक्तिगत तर्क को हर हाल में सांप्रदायिक सद्भाव और राजनीतिक एकता की वेदी पर बलिदान किया जाना चाहिए। यह पाठ वास्तव में उसी बात को किताब में उतार देता है, जिसे खालेद अल फद्ल समकालीन सऊदी इस्लाम के सर्वश्रेष्ठतावादी, कड़ी पवित्रतावाद का बौद्धिकताविरोधवाद कहते हैं जो किताब की सुरक्षित पनाहगाह में पहुंच जाता है, जहां रहकर वह सुरक्षित रूप से आलोचनात्मक ऐतिहासिक मीनमेख से खुद को अलग कर लेता है। (अल फद्ल 2003)
'दसवें दर्जे की तवहीद की पाठ्यपुस्तक (असंशोधित संस्करण) में एक अध्याय, जिसका शीर्षक ग्रेड 'दा' वाह (आग्रह)मोहम्मद इब्न अब्द अल वहाब 'हैनाज्दी इस्लाम की शुरुआत करने वालों का वर्णन अरब प्रायद्वीप में गड़बडि़यों की ऐतिहासिक शुद्धिकरण करने वाले के रूप में किया गया है, जिससे अल-शेख (उन्हें सऊदी अरब में अल-शेख कहा जाता है) और पैगंबर मोहम्मद में एक समानांतर बात जताई जाती है। अध्याय में बताया जाता है कि मोहम्मद इब्न अब्द अल वहाब अल्लाह के रहम के तौर पर, इस उम्माह के मजहब को फिर से नया करने के लिए भेजा गया था, उनका आग्रह एक स्थापित पैटर्न में नयापन लाने का था। लेकिन मोहम्मद इब्न-ए-अब्दुल वहाब ने क्या सिखाया था और आज इस्लामी दुनिया भर में और वास्तव में पश्चिम में भी हमारे बच्चों को पढ़ाया क्या जा रहा है? इन पाठ्यपुस्तकों में एक सबसे महत्वपूर्ण पाठ अल-वालाश्वा अल बारा की अवधारणा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है (जिसका मूलत: अर्थ वहाबी मुसलमानों के प्रति वफादारी दिखाना और बाकी सब के प्रति शत्रुता रखना है)।
मैं 'टीचिंग इस्लाम' के इस अध्याय से फिर एक बार उद्घृत करता हूं; अल-वाला 'वा अल बारा के जरिए बाहरी लोगों के प्रति शत्रुता का एक इतिहास है और वहाबी दुश्मनी झेलने वाले समय के साथ बदलते जाते हैं। उदाहरण के लिए, डेविड कौमिन्स (2002) बताते हैं कि 1880 के दशक में दुश्मनी बहाल रखने के दायित्व का इस्तेमाल ऑटोमन तुकोंर् के खिलाफ रोष बढ़ाने के लिए किया गया था। समकालीन सऊदी तवहीद स्कूली किताबों में दुश्मनी का निशाना यहूदियों, गैर वहाबी मुसलमानों से लेकर सामान्य रूप में पश्चिमी सभ्यता तक जाता है।
'2002 में इस्तेमाल की गई पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता था कि मुसलमानों के बीच जो कोई भी गैर 'कंफर्मिस्ट' सोच रखता है या वैसा बर्ताव करता है, उसे न केवल सुधार दिया जाना चाहिए, बल्कि उससे नफरत भी की जानी चाहिए। गैर-मुसलमानों से न दोस्ती की जानी चाहिए, न उन्हें सहन किया जाना चाहिए' न ही उन्हें आसानी से नजरअंदाज किया जा सकता है। उनसे नफरत करनी होगी। पाठ्यपुस्तक कहती है- 'यह तवहीदका एक कानून है कि आपको एकजुट (मुवाहिद,वहाबी) मुसलमानों के प्रति वफादारी दिखानी होगी और अपने बहुदेववादी दुश्मनों (सूफी, गैर-मुस्लिम) के प्रति शत्रुता रखनी चाहिए। अध्याय में कहा गया है-'अल-वलाश्वा अल बाराका इस्लाम में महान स्थान है', जैसा कि पैगंबर ने कहा है- 'ईमान का सबसे मजबूत बंधन उस चीज से प्यार करने में है, जिससे अल्लाह प्यार करता है और उस चीज से नफरत करने में है, जिससे अल्लाह नफरत करता है, और इन दोनों चीजों से अल्लाह की वफादारी (विलाया) हासिल होती है (10बी:110)। यह अध्याय अल्लाह की खातिर दुश्मनी को इस्लाम के स्तंभों के ऊपर स्थापित कर देता है 'पैगंबर ने फरमाया है 'जो कोई भी अल्लाह की खातिर प्यार करता है और अल्लाह की खातिर नफरत करता है और अल्लाह की खातिर वफादारी दिखाता है और अल्लाह की खातिर दुश्मनी निभाता है, उसे अल्लाह की वफादारी हासिल होगी, और जब तक वह ऐसा नहीं करता है, तब तक किसी भी बंदे को कभी ईमान का स्वाद नहीं मिल सकेगा, चाहे वह बहुत ज्यादा इबादत या रोजा ही क्यों न करे-(10बी:110)।'
वे बहुदेववादी दुश्मन कौन हैं, जिनके खिलाफ एकेश्वरवादी मसलमान को दुश्मनी रखनी चाहिए? मोहम्मद इब्न अब्द अल वहाब (अब्दुल वहाब) के लिए, बहुदेववादी दुश्मन बाकी मुसलमान थे, विशेष रूप से ऑटोमान तुर्क, शिया, सूफी और ऐसा कोई भी जो ताबीज पहनता है या जादू-टोना करता है। यह समझाते हुए कि मुसलमानों को किसी हमलावर की ओर दुश्मनी को दिखाने के लिए तैयार क्यों रहना चाहिए, स्कूली पाठ दुश्मन बनने के लिए नए तरीके निर्दिष्ट करता है। तालिबों (छात्रों) को पाखंड (अल मुदाहना) की पहचान देखते ही कर लेनी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नैतिक फेरबदल वाले लोगों के साथ मेलजोल बढ़ाता है, लेकिन सोचता है कि इन फेरबदलों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो वह पाखंडी हो रहा है और उन लोगों के साथ संबंध नहीं तोड़कर और उन्हें उनके प्रति घृणा नहीं दिखा कर वह अल्लाह से गैर वफादारी जता रहा है (10बी:111)। यह सबक अब्राहम की कहानी है,जिन्होंने उन लोगों से संबंध खत्म कर लिए थे, जो एक ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि इसके बजाय मूर्तियों की पूजा करते थे।'
'फिक्ह और हदीस ग्रंथों में कुफ्र (अविश्वासियों) की देखादेखी करना नैतिक रूप से भ्रष्ट होने के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए जो महिलाएं विदेशियों की तरह पोशाक पहनती हैं, वे प्रलोभन और भ्रष्टाचार को निमंत्रण देती हैं। लिहाजा मुस्लिम महिलाओं की पोशाक का कपड़ा इतना मोटा होना चाहिए, जिससे त्वचा जरा भी न दिखे और इतना फैला हुआ होना चाहिए, जिससे शरीर की आकृति को छिपाया जा सके और महिला की शख्सियत को छिपाने के लिए चेहरे को ढंका जाना चाहिए। कुफ्र की देखादेखी करना अल्लाह का अपमान है, क्योंकि मुसलमानों को उसी चीज से प्यार करना होता है, जिससे अल्लाह प्यार करता है और उससे नफरत करना होता है, जिससे अल्लाह नफरत करता है। अगर कोई मुस्लिम काफिरों के साथ छुट्टी मनाता है या उनकी खुशी और गम में शामिल होता है, तो वह उनके प्रति वफादारी दिखा रहा होता है (10बी:118)। कुफ्र को ईद मुबारक कहना या छुट्टी पर खुशी जताना, उतना ही बुरा है, जितना क्रॉस की पूजा करना; यह अल्लाह के खिलाफ साथ बैठकर शराब पीने-पिलाने की पेशकश की तुलना में ज्यादा बड़ा पाप है यह आत्महत्या से भी बदतर,और वर्जित किस्म के सेक्स (अर्तिकाब अल-फर्ज अल-हरम) से भी बदतर है और कई लोग यह अहसास किए बिना इसे कर देते हैं कि उन्होंने क्या किया है (10बी:118)।
'हिज्र वर्ष के बजाए कैलेंडर के 'ईस्वी' संवत् का उपयोग करके भी कुफ्र की नकल किया जाना एक और समस्या है। क्योंकि 'ईस्वी' का अर्थ होता है ईसा मसीह के जन्म की तारीख और इससे अविश्वासियों के साथ एक अपनेपन का एहसास होता है। क्रिसमस के समय मुसलमानों को कुफ्र की तरह पोशाक नहीं पहननी है या तोहफों का आदान-प्रदान नहीं करना है या किसी दावत में शामिल नहीं होना है या गहनों के प्रदर्शन में शामिल नहीं होना है। कुफ्र की छुट्टियों के दिन मुसलमानों के लिए किसी भी अन्य दिन की तरह होने चाहिए। जैसा कि इब्न तैमियाह ने कहा है-'अहल अल-किताब (पुस्तक को पवित्र मानने वाले लोगों) के साथ उन बातों पर सहमत होना, जो हमारे मजहब में नहीं हैं और हमारे पूर्वजों की परम्पराओं में नहीं हैं, भ्रष्टाचार है। इन चीजों से परहेज करके, आप उन्हें समर्थन देना बंद करते हैं।'अध्याय में चेतावनी दी गई है कि कुछ लोग यह तक कहते हैं कि अगर आप उस दिन कोई जानवर हलाल करने की रस्म भी करते हैं, तो यह एक शूकर हलाल करने की तरह होगा।
पाठ्यपुस्तकें इतिहास का इस्तेमाल वर्तमान के लिए एक चेतावनी के रूप में करती हैं। 'रोजगार में कुफ्र का इस्तेमाल और इस तरह की चीजों के बारे में फैसले' नाम से अध्याय के एक वर्ग में इब्न तैमियाह को यह कहते हुए बताया गया है कि-'जानकार लोगों को पता है कि यहूदियों और ईसाइयों (अल धिम्मा मिन यहूद वा नसरा) में से संरक्षित लोगों ने स्वयं के मजहब के लोगों को मुसलमानों के बारे में गुप्त जानकारी देने के लिए लिखा था। (10 बी:118) सिद्धांत यह है कि कुफ्र के साथ सहयोग या विश्वास न किया जाए 'ऐ ईमान वालों। अपने खुद के लोगों के अलावा किसी को अपने अंतरंग दोस्तों में शामिल न करो, वे तुम्हें नुकसान पहुंचाने से बाज नहीं आएंगे, जो आपको परेशानी में डालता है, वह उन्हें पसंद है, उनके मुंह से बाहर बेपनाह घृणा पहले से ही दिखाई दे रही है, और जो उनके दिलों में छिपा है, वह उससे भी ज्यादा है (कुरान 3 :118)। अगर कोई मुस्लिम है, जो काम कर सकता है, तो किसी गैर मुसलमान को रोजगार नहीं दिया जाना चाहिए, और अगर उनकी जरूरत नहीं है, तो उन्हें कभी भी काम पर नहीं रखा जाना चाहिए, क्योंकि कुफ्र पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता है (10 बी:121)। इसी तरह किसी मुसलमान को भी किसी गैरमुसलमान से रोजगार कबूल नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसी मुसलमान को कभी भी किसी कुफ्र की मातहती की हालत में नहीं होना चाहिए, जो निश्चित रूप से उसका अनादर कर सकता है और न ही किसी मसलमान को ऐसी हालत में आना चाहिए, जहां उसे अपने मजहब से इनकार करने की जरूरत पड़ जाए।'
किसी मुस्लिम को कुफ्र के बीच स्थायी रूप से नहीं रहना चाहिए क्योंकि उसके ईमान के साथ समझौता होगा यही वजह है कि अल्लाह ने मुसलमानों को गैर यकीन की सरजमीं (बिलादअल-कुफ्र)से विस्थापित हो कर यकीन की जमीं (बिलाद अल-इस्लाम) में चले जाने को कहा है जो लोग कुफ्र के लिए काम करते हैं और उनके बीच ही रहते हैं, वह उन लोगों के प्रति वफादारी जताने और उनसे सहमति जताने के बराबर है। और चाहे कोई वहां लालच के लिए गया हो, या आराम के लिए, फिर चाहे यहां तक कि वह उनके मजहब से नफरत ही क्यों न करता हो और अपने मत की रक्षा करता हो, इसकी मंजूरी नहीं है। सबसे बुरी सजा से सावधान रहो। (10 बी:121)। -लेखक न्यू एज इस्लाम के सम्पादक हैं

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

भारत में सिर्फ भारतीयों को रहने का अधिकार, रोहिंग्या मुसलमान वापस जाएं- सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

शहबाज शरीफ

भारत से तनाव के बीच बुरी तरह फंसा पाकिस्तान, दो दिन में ही दुनिया के सामने फैलाया भीख का कटोरा

जनरल मुनीर को कथित तौर पर किसी अज्ञात स्थान पर रखा गया है

जिन्ना के देश का फौजी कमांडर ‘लापता’, उसे हिरासत में लेने की खबर ने मचाई अफरातफरी

बलूचिस्तान ने कर दिया स्वतंत्र होने का दावा, पाकिस्तान के उड़ गए तोते, अंतरिम सरकार की घोषणा जल्द

IIT खड़गपुर: छात्र की संदिग्ध हालात में मौत मामले में दर्ज होगी एफआईआर

प्रतीकात्मक तस्वीर

नैनीताल प्रशासन अतिक्रमणकारियों को फिर जारी करेगा नोटिस, दुष्कर्म मामले के चलते रोकी गई थी कार्रवाई

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

भारत में सिर्फ भारतीयों को रहने का अधिकार, रोहिंग्या मुसलमान वापस जाएं- सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

शहबाज शरीफ

भारत से तनाव के बीच बुरी तरह फंसा पाकिस्तान, दो दिन में ही दुनिया के सामने फैलाया भीख का कटोरा

जनरल मुनीर को कथित तौर पर किसी अज्ञात स्थान पर रखा गया है

जिन्ना के देश का फौजी कमांडर ‘लापता’, उसे हिरासत में लेने की खबर ने मचाई अफरातफरी

बलूचिस्तान ने कर दिया स्वतंत्र होने का दावा, पाकिस्तान के उड़ गए तोते, अंतरिम सरकार की घोषणा जल्द

IIT खड़गपुर: छात्र की संदिग्ध हालात में मौत मामले में दर्ज होगी एफआईआर

प्रतीकात्मक तस्वीर

नैनीताल प्रशासन अतिक्रमणकारियों को फिर जारी करेगा नोटिस, दुष्कर्म मामले के चलते रोकी गई थी कार्रवाई

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) (चित्र- प्रतीकात्मक)

आज़ाद मलिक पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का संदेह, ED ने जब्त किए 20 हजार पन्नों के गोपनीय दस्तावेज

संगीतकार ए. आर रहमान

सुर की चोरी की कमजोरी

आतंकी अब्दुल रऊफ अजहर

कंधार प्लेन हाईजैक का मास्टरमाइंड अब्दुल रऊफ अजहर ढेर: अमेरिका बोला ‘Thank you India’

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान द्वारा नागरिक इलाकों को निशाना बनाए जाने के बाद क्षतिग्रस्त दीवारें, टूटी खिड़कियां और ज़मीन पर पड़ा मलबा

पाकिस्तानी सेना ने बारामुला में की भारी गोलाबारी, उरी में एक महिला की मौत

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies