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जब सुभाषचन्द्र बोस साइबेरिया के एक नगर (ईकुटस्क से मिलते-जुलते नाम वाला) में जेल में बन्द थे, तो जिस कोठरी में सुभाष को रखा गया था, उसी के पास वाली कोठरी में एक बंगाली क्रान्तिकारी भी बन्द रहा था। उसने ब्रजेश सिंह (उ़ प्र. की कालाकांकर रियासत के ताल्लुकदार राजा दिनेश प्रताप सिंह के बड़े भाई) को, जो कम्युनिस्ट हो गए थे और उस समय सोवियत रूस में ही थे, बताया था कि अमुक नम्बर की कोठरी में सुभाष चन्द्र बोस बन्द थे। स्टालिन की विधवा पुत्री स्वेतलाना ने ब्रजेश सिंह से विवाह किया था और ब्रजेश सिंह की मृत्यु के बाद जब वह भारत आई और कालाकांकर गई, तो उसे वहां टिकने नहीं दिया गया। बाध्य होकर वह अमरीका चली गई थी और वहीं एक अमरीकी से विवाह करके बस गई थी। संभवत: स्टालिन ने सुभाष बाबू को अमरीका-ब्रिटेन गुट के विरुद्ध प्रयोग करने की दृष्टि से बन्दी रखा था और स्टालिन की मृत्यु तथा निकिता खुश्चेव व बुलगानिन के सत्ता में आने के सन्धि-काल में सुभाष किसी प्रकार जेल से निकल भागे होंगे। जो भी हो, स्टालिन ने उनकी हत्या नहीं कराई थी; क्योंकि बाद के घटना-क्रम में उनके जीवित होने के स्पष्ट प्रमाण हैं।
डॉ़ एस़ एऩ सिन्हा नेहरू-काल में स्वीट्जरलैण्ड में भारत के राजदूत रहे थे। वे एक बहुत अच्छे पायलट थे। उन्होंने तिब्बत-भारत-सीमा पर अनेक बार अपना वायुयान नेताजी की खोज में उड़ाया था। उनकी उन उड़ानों के जो विवरण एक लेखमाला के रूप में तब 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में प्रकाशित हुए थे। लेखमाला अभी चल ही रही थी कि अकस्मात् बन्द हो गई। कुछ समय बाद 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के यशस्वी सम्पादक बांके बिहारी की भी छुट्टी कर दी गई। डॉ़ सिन्हा का भी नाम ओझल हो गया। बाद में सुनने में आया कि चूंकि वह लेखमाला नेताजी को जीवित सिद्ध कर रही थी, इसलिए उन्हें जेल की हवा खिला दी गई थी।
जब लालकिला, दिल्ली में आजाद हिन्द फौज के बन्दियों पर मुकदमा चल रहा था, तो अभियुक्तों के जो प्रमुख नाम तत्कालीन समाचारपत्रों के शीर्ष बन रहे थे, वे थे कैप्टेन शाहनवाज, कैप्टेन लक्ष्मी स्वामीनाथन्, कर्नल ढिल्लों, कर्नल सहगल आदि। जब आजाद हिन्द सेनानियों की वकालत में देश के तब के शीर्ष विधिज्ञ लगे थे, तो एक दिन न्यायालय में जवाहरलाल नेहरू को गाउन पहने पैरवी में खड़े देखकर लोग भौचक थे; क्योंकि ये वही नेहरू थे, जिन्होंने कलकत्ता की एक सभा मंे सुभाष चन्द्र बोस के विरुद्ध हाथ में तलवार लेकर युद्ध करने की तब घोषणा की थी, जब उनकी फौज मणिपुर सीमा पर भारत में प्रवेश कर चुकी थी। पराकाष्ठा थी यह पाखण्ड की, गिरगिट की तरह रंग बदलने की। उस समय जिन शाहनवाज को अखबारों में कैप्टेन लिखा जा रहा था, वही बाद में 'मेजर जनरल' कैसे लिखे जाने लगे? केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में कैसे ले लिए गए? क्या यह नेताजी पर उनकी झूठी जांच रपट का पुरस्कार था?
इन्दिरा जी के समय में कानपुर के फूलबाग के मैदान में एक विशाल जनसभा का आयोजन हुआ था। बाबा जय गुरुदेव, उत्तमचन्द मल्होत्रा और कानपुर के जाने-माने हिन्दू सभाई नेता होरीलाल सक्सेना मंच पर थे। बाबा जय गुरुदेव तब विशाल जनसमूह को आकृष्ट करने वाले सन्त माने जाते थे। उक्त सभा में सुभाष चन्द्र बोस के प्रकट होने की घोषणा की गई थी, इसी से अपार भीड़ थी। नेताजी को प्रकट होने के लिए बाबा जय गुरुदेव के निमित्त से भीड़ एकत्र की गई थी और उत्तमचन्द मल्होत्रा व होरीलाल सक्सेना उनकी पहचान करते; किन्तु अकस्मात् मंच पर जूते-चप्पल फेंके जाने लगे। बाबा जय गुरुदेव, उत्तमचन्द मल्होत्रा और होरीलाल सक्सेना को जान के लाले पड़ गए। सभा भंग हो गई। बाद में यह विषय काफी दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा कि सभा भंग करने में इण्टेलीजेन्स ब्यूरो का हाथ था। प्रचार यह कर दिया गया था कि बाबा जय गुरुदेव खुद को नेताजी घोषित करना चाहते थे। इन्दिरा जी ऐसा ही उपद्रव 1966 में गोरक्षा-आन्दोलन के समय संसद के सामने सभा में करवा चुकी थीं, जिसमें 16 लोग मारे गये थे।
संभवत: फूलबाग, कानपुर के उक्त सभा-भंग काण्ड के बाद नेताजी ने अपने विचार बदल दिए होंगे और गुमनामी में ही शेष जीवन बिताने का निर्णय लिया होगा। हमारे जिन नेताओं को नेताजी के जीवित होने की पुष्ट जानकारी थी, उनमें नेहरू के अतिरिक्त गांधी जी, डॉ़ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित, इन्दिरा गांधी के नाम प्रमुख हैं। आश्चर्य है कि डॉ़ राधाकृष्णन भी नेहरू जी के दबाव में चुप्पी साधे रहे।यहां पर यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि 1956 में जब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेण्ट एटली भारत-यात्रा पर आए, तो कलकत्ता भी गए थे, जहां राजभवन में उन्हें ठहराया गया था। तब न्यायमूर्त्ति पी़ बी़ चक्रवर्त्ती वहां राज्यपाल थे। उन्होंने जब एटली से पूछा कि जब आप गत विश्वयुद्ध में विजेता थे, तो फिर भारत क्यों छोड़ दिया, तो उनका उत्तर था कि हमने 'चरखा-तकली' के डर से भारत नहीं छोड़ा; भारत की आजादी में गांधी का योगदान न्यूनतम था। जब हम आजाद हिन्द फौज के कैदियों पर मुकदमा चला रहे थे, उनके बारे में अपनी सेना में गुप्त सर्वेक्षण से पता चला कि 88 प्रतिशत सेना उन्हें मुक्त कर दिए जाने के पक्ष में है। सेना पर आजाद हिन्द फौज का इतना प्रभाव पड़ चुका था कि वे उपस्थिति में 'यस सर' की जगह 'जय हिन्द' बोलने लगे थे। अपनी सेना के विद्रोह को दबा सकना तब संभव नहीं होता। अत: हमने भारत को आजाद कर देने का निर्णय किया था।' सेना पर 'नेताजी प्रभाव' का ऐसा प्रभाव था तब। श्री अनुज धर ने अपनी दो पुस्तकों के माध्यम से नेता जी के बारे में सत्य को उद्घाटित करने का जो महत् कार्य किया है, वह 'खोजी पत्रकारिता' का एक स्तुत्य कीर्तिमान है। जो इसमें संघ या भाजपा के षड्यन्त्र की बात करते हैं, उन्हें पता ही है कि अनुज धर कोई संघी या भाजपाई नहीं हैं। वे 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में रहे हैं, जिसके सम्पादक कभी गांधी जी के पुत्र देवदास गांधी रहे थे और जो आज भी कांग्रेसी विचारधारा का पोषक अखबार माना जाता है। इसलिए उनके लेखन पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती।
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