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आपदा – आफत में अन्नदाता

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Apr 18, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Apr 2015 16:00:17

बेमौसम की बारिश या ओलावृष्टि को आप किस रूप में देखते हैं। एक ऐसी स्थिति, जो पश्चिमी चक्रवात के कारण पैदा होती है, लेकिन खेती के लिए कई बार कहर बन जाती है। इस बार तीन-चार दिन तक देश का 80 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी चक्रवात की चपेट में रहा, और कहीं-कहीं उससे भी अधिक समय तक आंधी, तेज बारिश और ओलावृष्टि हुई। जो फसलें पककर तैयार थीं, उनको भारी नुकसान हुआ। अंधड़ में पौधे मुड़कर धराशायी हो गए, पकी फसल पर पानी पड़ गया, अधपकी फसल का पकना रुक गया, फलों की फसलें सड़ने लगीं। उत्तर भारत में इससे रबी की लगभग सभी फसलों, सब्जियों, गेहूं की खड़ी फसल, दाल-दलहन और फलों को भारी नुकसान हुआ है। यही स्थिति ज्वार, रेपसीड, सरसों, चना, आम, लीची और टमाटर की है। गुजरात में गेहूं समेत धनिया और जीरे की फसल को भी भारी नुकसान पहुंचा है। महाराष्ट्र में रबी की बाकी फसलों के साथ-साथ अंगूर और संतरे जैसे फलों की भी फसल नष्ट हो गई है।
बेमौसम की इस बारिश से कुल कितना नुकसान हुआ। इसे दो अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा जाना होगा। एक नुकसान भौतिक है। जो फसल नष्ट हुई, उसका नुकसान। चाहे उसकी क्षतिपूर्ति कर दी जाए, लेकिन देश की थाली से तो सामग्री कम हुई ही है। दूसरा नुकसान मानवीय है। जो किसान पूरी तरह इसी फसल पर निर्भर थे, जिनके पास अब न अगली फसल के लिए बीज के पैसे हैं, न अगले दिनों में पेट भरने की कोई व्यवस्था है। जो अपनी पूंजी ही नहीं, अपना उधार लिया पैसा तक खेती में लगाकर फसल का इंतजार कर रहे थे। वे किसान रोने के लिए मजबूर नहीं हैं। उनकी स्थिति रुलाई से कहीं आगे की है, उनके सामने जीवन का संकट है, सिर्फ जीवनयापन का नहीं। यह वह मोड़ है जहां से किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आने की आशंका पैदा होने लगती है, और कुछ खबरें आ भी चुकी हैं।
किसका हुआ नुकसान
दोनों पहलुओं पर आगे चर्चा करने के पहले एक नजर इस बात पर डालना आवश्यक है कि आखिर चंद दिनों की बारिश देश के लोगों के लिए इतनी बड़ी विपत्ति का कारण कैसे बन सकती है? कोई भी फायदा या नुकसान अंतत: सापेक्ष होता है। उसकी कीमत से ज्यादा अहम यह होता है कि नुकसान किसका हुआ है। पहले तो इस तरह के तथ्यों से बाहर निकलना होगा कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। किसानों की वास्तविक स्थिति की कल्पना करें। भारत सरकार बारह वर्ष पहले, 2003 से यह बात जानती है कि खेती घाटे का सौदा हो चुकी है। रोजगार का कोई और अवसर मिले, तो लगभग 40 प्रतिशत से अधिक किसान खेती छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं। यह बात वर्ष 2003 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 59 वें दौर में सामने आई थी। बिल्कुल हाल ही में, दिसंबर 2013 से जनवरी 2014 के बीच 18 राज्यों में किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में 61 प्रतिशत किसानों ने कहा कि अगर उन्हें शहरों में अच्छी नौकरी मिले तो वे खेतीबाड़ी छोड़ देंगे। और यह कि खेती से होने वाली आमदनी से उनका गुजारा नहीं हो पाता है। इस सर्वेक्षण का सैंपल आधार करीब 5,350 किसानों का था। यह उस स्थिति का प्रतीक है, जो 2003 में खतरनाक थी, और 2014 तक बेहद खतरनाक हो चुकी है।
अब देखते हैं भारत के कृषि प्रधान देश होने और उसकी 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित होने के तर्क की असलियत। वर्ष 1991 में देश में किसानों की संख्या 11 करोड़ थी। दस वर्ष बाद, 2001 में उनकी संख्या घटकर 10़3 करोड़ रह गई जबकि 2011 में यह आंकड़ा और सिकुड़कर 9़58 करोड़ हो गया। माने 1991 से 2001 तक के दौरान औसत पौने पांच हजार लोगों ने रोजाना खेती छोड़ी, और 2001 से 2011 के दौरान रोजाना लगभग 2,000 किसानों ने खेती छोड़ी। अगर इसमें जनसंख्या वृद्घि की सामान्य दर को भी जोड़ लें, तो खेती छोड़ने वालों के आंकड़े लगभग डेढ़ गुने हो जाते हैं। इसके विपरीत, खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2011 में खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़कर कुल मजदूरों की 30 प्रतिशत हो चुकी थी। खेतिहर मजदूरों और किसानों की श्रेणियों के बीच में 26 करोड़ 30 लाख लोग खेती में काम करते हैं। क्या काम करते होंगे वे लोग? और क्या आमदनी होती होगी उन्हें? इस कुल जनसंख्या में से कम से कम 20 प्रतिशत लोग अक्सर भूखे रहने के लिए मजबूर होते हैं। 40 प्रतिशत किसी तरह पेट भरते हैं, और बाकी लगभग 40 प्रतिशत ठीक से भोजन कर पाते हैं।
तो ये है कृषि पर आश्रित भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या। इन लोगों का खेती से रिश्ता क्या है? छोटी से छोटी जोत, जिसमें निवेश या बचत जैसी कोई गुंजाइश न हो, सारी कमाई बीज, पानी, खाद, कीटनाशक और उधार चुकाने में खर्च होना, और उधार लेकर खेती करना, पूरे मौसम की पूरे परिवार सहित मेहनत- इस सबका निचोड़ होती है-फसल। उसी में परिवार चलाना है, उसी में वर्तमान का यथार्थ, अतीत के दु:स्वप्न और भविष्य के सपने होते हैं। उसी में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेल-बस का भाड़ा और पशुओं का चारा-दवा होती है। उसी से शादी-ब्याह करने होते हैं, उसी से अंतिम संस्कार करना होता है। अब अगर वह फसल बर्बाद हो जाए, तो खाने का संकट तो अपने स्थान पर है, पुरानी देनदारियों के कारण नया उधार तक नहीं मिल सकता। सच है कि कई सरकारी योजनाएं गांवों को केन्द्र बनाकर रची गई हैं। लेकिन अधिकांश किसान उनमें से अधिकांश योजनाओं के बारे में नहीं जानते। एक सर्वेक्षण में तो यहां तक कहा गया है कि लगभग 60 प्रतिशत किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में भी नहीं जानते हैं, जो मात्र करीब 20 फसलों पर लागू होता है। आज भी लगभग तीन चौथाई कृषियोग्य भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था किसान अपने ही बूते करते हैं। कहीं भूमिगत जल से, कहीं भाग्य भरोसे। दुनिया भर में खाद्य पदाथोंर् की कीमतें बढ़ रही हैं। लेकिन भारत के अन्नदाता उसके लाभ से अछूते रह जाते हैं।
कितना हुआ है नुकसान
अब देखें नुकसान कितना हुआ है। इस बार जितनी अच्छी फसल तैयार खड़ी थी, उतनी पिछले सात वर्षों में कभी नहीं हुई, लेकिन बेमौसम बरसात ने किए कराए पर पानी फेर दिया। ब् ाीमा कंपनियों का आकलन है कि उन्हें 100 से 500 करोड़ रुपए तक का मुआवजा दावा चुकाना पड़ सकता है। नुकसान की आशंका से लगभग सभी जिंसों और सभी कृषि उत्पादों के दामों में तेजी आ चुकी है। अकेले उत्तरप्रदेश में 26़75 लाख हेक्टेयर से अधिक रकबे में फसल खराब होने का अनुमान है। वहां सौ से अधिक किसान या तो आत्महत्या कर चुके हैं, या सदमे से उनकी जान जा चुकी है। राज्य के 33 जिले असमय वर्षा से प्रभावित हुए हैं। लेकिन उत्तरप्रदेश में हुई तबाही का मानवीय पहलू- पहले से चली आ रही गरीबी और प्रशासनिक असंवेदनशीलता- ज्यादा तीव्र है, वहां मौसम की मार दूसरे राज्यों की तुलना में कम पड़ी है। बिहार और गुजरात में फसलों की स्थिति अपेक्षाकृत काफी संतोषजनक मानी जा रही है। पंजाब, हरियाणा में भी नुक्सान तो हुआ है, लेकिन उतना नहीं जैसी आशंका जताई जा रही थी। सबसे खराब हालत है महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में। यहां गेहूं की फसल को जितना नुकसान हुआ है, उसके कारण 9 करोड़ 56 लाख टन का गेहूं उत्पादन का राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त होना कठिन माना जा रहा है। अकेले उत्तर महाराष्ट्र और विदर्भ में फसलों को हुए नुकसान की कीमत 1000 करोड़ रुपए से अधिक मानी जा रही है। यवतमाल जिला सबसे अधिक प्रभावित रहा है, जहां 17 हजार हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसल बर्बाद हुई है। महाराष्ट्र में पहले भी, माने खरीफ के दौरान, 24,000 गांवों को अभूतपूर्व सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा था। जाहिर है, यहां किसान सबसे ज्यादा परेशान हैं। मध्यप्रदेश में अब तक 1300 करोड़ रुपए का नुकसान होने का आकलन किया जा चुका है।
क्या हुआ अब तक
उत्तरप्रदेश में किसानों को मुआवजे के नाम पर 63 रुपए, कहीं 75 रुपए और कहीं 100 रुपए दिए जाने, और दिल्ली के किसानों (?) को 20 हजार रुपए प्रति एकड़ दिए जाने की घोषणा जैसी जले पर नमक छिड़कने की बातों को परे रख दें, तो सबसे पहले, और सबसे महत्वपूर्ण तौर पर, केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को निर्देश दिया है कि किसानों को दिए गए ऋणों को जल्द से जल्द पुनर्समायोजित किया जाए। इसका अर्थ हुआ कि किसानों से कजोंर् की वसूली भविष्य के लिए टाल दी जाएगी। चूंकि किसान जब भी बैंक से ऋण लेता है, तो उसकी उस फसल का बीमा साथ ही कर लिया जाता है, इसलिए इससे उन किसानों को खासी राहत मिलने की उम्मीद है, जिन्होंने ऋण लिया हुआ था, या फसल का बीमा करवाया हुआ था। बीमा कंपनियों को भी कहा गया है कि वे दावों का निपटान तेजी से करें।
इससे भी अहम बात- किसानों को बीमे की रकम की वसूली के लिए फसल की कटाई और तुलाई होने तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। वे अपने दावे की रकम का एक चौथाई उसके भी पहले वसूल सकते हैं। इसी तरह जिन फसलों का बीमा मौसमी जोखिम से निपटने के लिए हुआ है, वहां बीमे की रकम, निर्धारित समय के 45 दिन के अंदर लेने का अधिकार किसानों को दिया गया है।
केन्द्र सरकार ने राज्यों को यह भी निर्देश दिया है कि वे अपने आपदा राहत कोष का 10 प्रतिशत हिस्सा इस तरह की वर्षा आदि के लिए अलग कर लें, जिसे किसानों की मदद के लिए इस्तेमाल किया जाए। इस तरह की बेमौसम बारिश को भी राष्ट्रीय आपदा के तुल्य घोषित कर दिया गया है। यही नहीं, राष्ट्रीय आपदा और राज्य आपदा- दोनों के तौर-तरीकों की समीक्षा अब हर वर्ष अप्रैल में की जाएगी,ताकि कीमतों के उतार-चढ़ाव के अनुरूप उसमें संशोधन किए जा सकें। किसानों को मुद्रास्फीति के उतार-चढ़ाव से सुरक्षित करने के लिहाज से यह बेहद अहम कदम है।
जिन किसानों की फसलों को नुकसान हुआ है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। अगर किसी किसान की एक तिहाई फसल भी खराब हुई हो, तो उसे अगली फसल के लिए बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि खरीदने के लिए सरकारी छूट मिलेगी। पहले यह छूट सिर्फ आधी या उससे ज्यादा फसल खराब होने पर मिलती थी। इसी तरह एक तिहाई या उससे अधिक फसलों को नुकसान होने पर भी सरकारी मुआवजा मिलेगा। पहले यह मुआवजा सिर्फ आधी या उससे ज्यादा फसल खराब होने पर मिलता था। इतना ही नहीं, मुआवजे की रकम भी सीधे डेढ़ गुनी कर दी गई है। इसके अलावा केन्द्र और राज्य- दोनों के आपदा राहत कोषों को 1 अप्रैल से ही लागू कर दिया गया है। लेकिन जिन किसानों को ओले गिरने से फरवरी या मार्च में ही नुकसान हो चुका है, उन्हें भी नए नियमों के तहत मुआवजा देने का फैसला किया गया है। किसानों के हित में नए नियमों की स्थिति यह है –
कृषि फसल, बागवानी की फसलों और साल भर में तैयार होने वाली फसलों के लिए, वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में, लागत वस्तुओं पर सरकारी छूट 4500 रुपए प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 6800 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है। असिंचित क्षेत्रों में यह रकम 9000 रुपए प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 13,500 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है। वार्षिक फसलों के लिए लागत वस्तुओं पर सरकारी छूट 12,000 रुपए प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 18,000 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है। खेती की जमीन पर गाद जम जाने की स्थिति में सरकारी सहायता की रकम 8100 रुपए प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 12,200 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है। यह सुविधा पहाड़ी इलाकों में मलबा हटाने और मछली पालने के तालाबों की सफाई पर भी लागू होगी।
नए दुधारू पशु खरीदने की स्थिति में सरकारी सहायता की रकम प्रति भैंस, गाय, ऊंट, याक 16,400 रुपए से बढ़ाकर 30,000 रुपए कर दी गई है। भेड़ बकरियों के लिए यह रकम 1650 से बढ़ाकर 300 रुपए कर दी गई है। इसी तरह वजन ढोने या गाड़ी खींचने वाले पशुओं के मामले में भी सरकारी सहायता की रकम डेढ़ से पौने दो गुनी कर दी गई है। तमाम केन्द्रीय मंत्रियों को भी निर्देश दे दिया गया है कि वे प्रभावित क्षेत्रों में तुरंत पहुंचें।
निस्संदेह ये उपाय तात्कालिक ही हैं। भारतीय कृषि इस समय बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। निस्संदेह वह हर वर्ष रिकार्ड तोड़ रही है, लेकिन उसका कामकाजी ढांचा, उसका संतुलन, उसकी मानवीय लागत, उस लागत की उपादेयता, कृषि में उत्पादकता की वृद्घि दर, आय के वितरण में बढ़ती असमानता से निपट सकने की भारतीय कृषि की क्षमता, बेरोजगारी की समस्या से निपटने में योगदान दे सकने की भारतीय कृषि की क्षमता, और इसी तरह की अन्य बातें परेशानी की कगार पर पहुंचती जा रही हैं।
भारत की कुल गरीबी की चाभी ग्रामीण गरीबी में है- यह इबारत दीवार पर लिखी हुई है। जिस देश में खेती घाटे का सौदा बनी रहे, वहां खाद्य सुरक्षा का छद्म होना एक सहज बुद्घि की
बात है। अगर भारतीय कृषि को ग्लोबल वामिंर्ग से निपटने या निर्यात बाजार में बड़ी पहुंच बनाने के अनुरूप कुछ कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा, तो स्थिति और भी गंभीर हो सकती है। इन लक्ष्यों को दीर्घकालिक मानकर सुदीर्घकाल के लिए टाल दिए जाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।
कृषि क्षेत्र में स्पर्शगोचर अवधि में स्पर्शगम्य परिणाम संभव भी हैं और भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अहम भी हैं। -ज्ञानेन्द्र बरतरिया

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