|
होलिका पूजन से ठीक एक दिन पहले आम आदमी पार्टी कार्यकारणी की गर्मागर्म बैठक। अभिव्यक्ति और विचारों को महत्व के नारे, सामूहिक नेतृत्व की बातें, आंतरिक लोकतंत्र की इस पहली प्रमुख अग्निपरीक्षा में सब राख हो गया।
एक साथ दो पदों पर आसीन, पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर उंगली उठाना यहां मना है। बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को राजनैतिक मामलों की समिति से बाहर कर उनकी जगह दिखा दी गई। कुछ दिन पहले दोनों ने केजरीवाल के कामकाज पर सवाल खड़े किए थे। बात कड़वी है, मगर सच है। खुलेपन, पारदर्शिता और आंतरिक लोकतंत्र की सबसे ज्यादा बात करने वाली पार्टी के भीतर लकीर से जरा हटकर बात कहने का साहस करने वालों के लिए बित्ता भर भी जगह नहीं है! ऐसा इसलिए क्योंकि 'आंदोलन' की आड़ में कुर्सी पर चढ़ने वालों के पास न तो वैचारिक आधार था, न ही भविष्य के लिए दृष्टि। यहां मतभिन्नता अस्वीकार्य है, विचार वर्जित।
लोकतंत्र में विचारों का महत्व है। जिन राजनैतिक दलों का वैचारिक आधार न हो अथवा कमजोर हो वहां व्यक्तिगत आकांक्षाएं जन-अपेक्षाओं को कुचल देती हैं। क्या इस प्रकरण में भी यही हुआ? वैसे यह भी तथ्य है कि दिल्ली के कोटे की राज्यसभा सीटों के मुकाबले कुर्सी के लिए दावेदार गिने जा सकने वाले, आम आदमी पार्टी के नेताओं की संख्या ज्यादा है। क्या इसीलिए कुछ अहम दावेदारों को समय रहते निपटा दिया गया?
आम आदमी पार्टी में फूट और टकराहट की कहानियां संभवत : व्यक्तिगत इच्छाओं की ऐसी ही अंगड़ाइयों से निकली हैं। कोई निकाला गया, कोई फजीहत के बाद भी उसी जगह चिपका रहा, लेकिन आम आदमी पार्टी की इस आपसी धक्कामुक्की में कुचली गईं सिर्फ जनता की उम्मीदें।
बात इतने पर खत्म नहीं होती। यह आम आदमी पार्टी जैसे कथित आंदोलनों के क्रमिक विकास और नियति का दूसरा चरण है। सामाजिक मुद्दों को राजनैतिक मंशा से आंदोलन के तौर पर उठाने और कुर्सी तक पहुंच जाने के तमाशे इस देश में होते रहे हैं। पहले आंधी उठती है। फिर रस्साकशी होती है। फिर हैसियत और तिकड़म से ताकत बंटती है।
फिर जनता को सब समझ आ जाता है।
आम आदमी पार्टी का बवंडर अपने दूसरे दौर में सत्ता के पास जाकर थम गया है।
'मुझे कुछ नहीं चाहिए' वाली आवाजें, 'नहीं…ऽऽ मुझे चाहिए' में बदल रही हैं।
यह आपसी घमासान और ताकत के बंटवारे का दौर है। केजरीवाल की अनुपस्थिति में उनके विरोधियों को पटखनी दी गई है। इसे आंदोलन मानने की भूल न करें, यह राजनीति है। राजनीति के लिए आंदोलन का कंबल ओढ़कर आए लोगों की आपसी लड़ाई है।
आंदोलन की हवा, सत्ता का दबदबा और फिर बिखराव…यह कहानी पहली नहीं है। देश के पूवार्ेत्तर में असम का उदाहरण इस मामले में ऐतिहासिक है। 80 के दशक में यह राज्य घुसपैठ की समस्या से जूझ रहा था। लोग परेशान थे। झुंझलाहट के इस दौर में लोगों के लिए उम्मीद की एक किरण चमकी। इस समस्या को मुद्दा बनाकर गुवाहाटी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के तत्कालीन पदाधिकारियों, प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु कुमार फूकन की अगुआई में छात्रों ने आंदोलन छेड़ दिया। जनता ने नई नवेली राजनैतिक पार्टी असम गण परिषद् (अगप) को भरपूर समर्थन दिया। छात्र नेता सत्ता तक पहुंचे। कालांतर में राज्य के अलावा केंद्रीय सत्ता में भी 'अगप' भागीदार रही। लेकिन, महंत और फूकन के बीच की तनातनी ने पार्टी को लोगों के बीच अलोकप्रिय बना दिया। असम में घुसपैठ की समस्या तब से अब तक कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ी ही है। व्यक्तिगत हित वहां भी आंदोलन का आवरण ओढ़कर आए थे, ताकत की खींचतान में लबादा उतर गया। जनता ठगी सी रह गई।
विचार और अभिव्यक्ति की आजादी को रौंदना, दूसरे की सीमाएं बांधना, सिर्फ अपना-अपना दायरा बढ़ाना, यह राजनीति की तिकड़में हैं, आंदोलन की राह नहीं। जहां नए विचार और मतभिन्नता के लिए गुंजाइश न हो वहां व्यक्ति अपने भले का रास्ता चाहे निकाल ले, अंतत: जनता की उम्मीदें तोड़ता ही है।
एक माह नहीं हुआ, दिल्ली के लोगों ने जिन्हें पलकों पर बैठाया था उस पार्टी ने आम आदमी की उम्मीदें बहुत जल्दी तोड़ दीं। बसंत में प्यार और फागुन में रार…दिल्ली वाले होली मनाएंगे मगर हर आम आदमी के दिल में एक टीस जरूर होगी। रंग में भंग भला और किसे कहते हैं?
टिप्पणियाँ