दो बार हुआ थासीताहरण
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दो बार हुआ थासीताहरण

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Mar 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Mar 2015 11:47:37

रामनवमी (29 मार्च) पर विशेष

अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
रामकथा का एक अत्यन्त चर्चित प्रसंग है सीताहरण। सामान्यतया लोगों को मालूम है कि रावण ने सीता का हरण पंचवटी से किया था। सीता-हरण का अन्य कोई प्रसंग विशेष चर्चित नहीं है। लेकिन सत्य यह है कि सीता का हरण दो बार हुआ था और दोनों ही बार रक्ष-संस्कृति के राक्षसों ने किया था। पहली बार विराध नामक राक्षस ने उस समय उनका हरण किया था, जब श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीताजी चित्रकूट से दण्डकारण्य में पहुंचे थे। वहीं मार्ग में दो तापसियों के बीच एक सुन्दर महिला सीता को जाते देखकर विराध ने उन्हें ललकारकर, सीता का हरण करके, उन्हें अपने अंक में भर लिया था। काफी संघर्ष के बाद विराध का वध करके श्रीराम ने उसके कब्जे से सीता को मुक्त कराया था। विराध को एक बड़े गड्ढे में दफना दिया था। यह स्थान विराध कुण्ड के नाम से आज भी दण्डकारण्य के प्रारम्भ में ही, वर्तमान चित्रकूट (कर्वी जिले में) में दर्शनीय है। यहां हम रामकथा लेखकों द्वारा लिखित उसी विराध वध प्रसंग की चर्चा कर्रेंगे। तुलसीदास जी ने मात्र दो चौपाइयों में इस प्रसंग को इस प्रकार लिखा है-
'मिला असुर विराध मग जाता, आवत ही रघुवीर निपाता।
तुरतहि रुचिर रूप तेहि पावा, देख दुखी निज धाम पठावा।'
(रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, दोहा क्रमांक 6 के पश्चात् छठी तथा सातवीं चौपाई)
अर्थात् – मार्ग में जाते समय विराध राक्षस मिला, उसके आते ही श्रीराम ने उसे मार डाला, उसने तुरन्त सुन्दर रूप प्राप्त किया तथा अपना दु:ख बताया। राम ने उसका दु:ख देखकर उसे निज धाम भेज दिया।
बात केवल इतनी ही नहीं थी। तुलसीदास जी ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाते हुए तथा राम का व्यक्तित्व और विराट दर्शाने के लिये विराध को तुरंत मार देने की बात कही है। विराध का दु:ख भी नहीं बताया, विराध का अपराध भी नहीं बताया और मारने का कारण बताए बिना तुरन्त उसका वध कर दिया।
अध्यात्म रामायण में 'विराध-वध' के प्रसंग को अरण्यकाण्ड के प्रथम सर्ग में 46 श्लोकों में लिखा गया। किन्तु सर्वाधिक जानकारी की दृष्टि से 'वाल्मीकि रामायण' में यह कथा 86 श्लोकों में निबद्घ है। उसके अरण्यकाण्ड के द्वितीय सर्ग (26), तृतीय सर्ग (26) तथा चतुर्थ सर्ग (34) इसी प्रसंग को दर्शाने हेतु कवि ने लिखे। उसके अनुसार चित्रकूट के बाद दण्डकारण्य के सघन हिंसक पशु-युक्त वन में प्रवेश करने पर श्रीराम को सर्वप्रथम विराध राक्षस मिला। उसने राम की त्रिमूर्ति पर आक्रमण करके सीता का अपहरण कर लिया तथा सीता को अपने अंक में भर लिया। उसका राम से संवाद भी हुआ। राम से खड्ग युद्ध, शूल-युद्ध तथा मल्ल युद्ध भी हुआ, यहां तक कि वह राम-लक्ष्मण दोनों को पकड़कर अपने सबल कंधों पर बैठाकर, अंक में सीता को दबाए चलता रहा। बाद में राम-लक्ष्मण ने मल्लयुद्ध में उसे पराजित करके राम ने एक पैर से दबाए रखकर लक्ष्मण से बड़ा गड्ढा खोदने को कहा। उस गड्ढे में विराध को दबाकर वे आगे बढ़े। इस वर्णन से सम्बन्धित कुछ अंश  दृष्टव्य हैं –
सीतया सह काकुत्स्थस्तस्मिन् घोर मृगायुते
ददर्शं गिरि शृङ्गामं पुरुषादं महास्वन्म्
(द्वितीय सर्ग-श्लोक 4)
गंभीराक्षं, महावक्त्रं, विकटं विकटोदरम्
वीभत्सं विषमं दीर्घं विक्रतं, घोरदर्शनम्।5।
वसानं चर्म वैयाघ्रं वसाद्रं रुधिरोक्षितम्।
त्रासनं सर्व भूतानां व्यादि तास्य मिवान्तकम्।6।
त्रीन सिंहांश्चतुरो व्याघ्रान द्वौ, वृकौपृष्तानेदश,
सविबाणं वसदिग्धं, गजस्य च शिरो महत्।7।
अवसज्याय से शूले विनदन्तं महास्वनम्
स रामं, लक्ष्मणं,
चैव, सीतां दृष्ट्वा च मैथिलीम्।8।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्घ: प्रजा: काल इवान्तक:
स कृत्वा भैरवं नादं चालयन्त्रिव मेदनीम्।9।
अङ्केनादाय वैदेहीयपक्रम्य तदाव्रवीत्।
युवां जटाचीर धरौ सभायार्ेक्षीण जीवितौ।10।
प्रविष्टौ दण्डकारण्यं शरचापसि पाणिनौ।
अर्थात्-भयंकर जंगली पशुओं से भरे हुए उस दुर्गम वन में सीता के साथ श्रीरामचंद्र जी ने एक नरभक्षी राक्षस देखा, जो पर्वत शिखर के समान ऊंचा था और उच्च स्वर से गर्जना कर रहा था। उसकी आंखें गहरी, मुंह बहुत बड़ा, आकार विकट और पेट विकराल था। वह देखने में बड़ा भयंकर, घृणित, बेडौल, बहुत बड़ा और विकृत वेश से युक्त था। उसने खून से भीगा और चरबी से गीला व्याघ्रचर्म पहन रखा था। समस्त प्राणियों को त्रास देने वाला वह राक्षस यमराज के समान मुंहबाये खड़ा था। वह एक लोहे के शूल में तीन सिंह, चार बाघ, दो भेडि़ये, दस चितकबरे हिरण और दांतरों सहित एक बहुत बड़ा हाथी का मस्तक, जिसमें चर्बी लिपटी हुई थी, बांध कर जोर-जोर से दहाड़ रहा था। श्रीराम, लक्ष्मण और मिथिलेश कुमारी सीता को देखते ही वह क्रोध में भरकर भैरवनाद करके पृथ्वी को कम्पित करता हुआ उन सबकी ओर उसी प्रकार दौड़ा जैसे प्राणान्तकारी काल प्रजा की ओर अग्रसर होता है। वह विदेहनंदिनी सीता को उठाकर कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। फिर उन दोनों भाइयों से बोला- 'तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो और हाथ में धनुष-बाण और तलवार लिए दण्डक वन में घुस आए हो। अत: जान पड़ता है, तुम्हारा जीवन क्षीण हो चला है।' उससे राम का संवाद हुआ, दोनों पक्षों में परस्पर अग्निबाणों तथा शूलों से युद्ध हुआ। विराध ने राम पर शूल छोड़ा –
तच्छूलं बज्र संकाशं गगने ज्वलनोपमम्
द्वाभ्यां शराभ्यां, विच्छेद राम: शस्त्रभृतां वरा:।
(तृतीय सर्ग, श्लोक 18)
अर्थात्-उसका वह शूल आकाश में वज्र और अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा; परन्तु शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने दो बाण मारकर उसे काट डाला।
स तु स्वबल वीर्येण समुच्क्षप्यि निशाचर:
बालाक्वि स्कन्ध गतौ, चकाराति बलोहुत:। 24
तावारोप्य तत: स्कन्धं राघवौ रजनीचर: विराधो विनदन् घोरं जगामाभिमुखोवनम्। 25
अर्थात्-अत्यन्त बल से उद्दण्ड बने हुए निशाचर विराध ने अपने बल-पराक्रम से उन दोनों भाइयों को बालकों की तरह उठाकर अपने दोनों कंधों पर बिठा लिया। उन दोनों रघुवंशी वीरों को कंधे पर चढ़ा लेने के बाद राक्षस विराध भयंकर गर्जना करता हुआ वन की ओर चल दिया।
मुष्टिभिर्बाहुभि: पद्भि: सूदयन्तौ तु राक्षसं
उद्यमोदम्य चाप्येनं स्थण्डले निष्पिपेशुत:। चतुर्थ सर्ग, श्लोक 7
स विद्वौ बहुभिर्बाणा:, खड्गाभ्यां च परिक्षत:
निष्पिटो बहुधागूमौ न गमार स राक्ष्ज्ञस:। 8
इत्युक्तवा लक्ष्मणं राम: प्रदर: स्वन्यतामिति
तस्थौ विराधमाक्रम्य कण्ठे पा देन वीर्यवान्।12
अर्थात्-तब श्रीराम और लक्ष्मण विराध को भुजाओं, मुक्कों और लातों से मारने लगे तथा उसे उठा-उठाकर पटकने और पृथ्वी पर रगड़ने लगे। बहुसंख्यक बाणों से घायल और तलवारों से क्षत-विक्षत होने तथा पृथ्वी पर बार-बार रगड़ा जाने पर भी वह राक्षस मरा नहीं। ़.़.़ इस प्रकार लक्ष्मण को गड्ढा खोदने की आज्ञा देकर श्रीराम विराध का गला दबाकर खड़े हो गये। बाद में लक्ष्मण ने गड्ढा खोदकर उसमें विराध को गाड़ दिया। उसके बाद त्रिमूर्ति आगे बढ़ी।
उक्त विराध कुण्ड आज भी दण्डकारण्य में है तथा चित्रकूट के आगे, वर्तमान कर्वी जिले में स्थित है। राजस्व अभिलेखों में भी वह दर्ज है। मुझे यह तथ्य पूर्व उपजिलाधिकारी श्री श्रवण सिंह सेंगर ने बताया था। मैंने राजस्व विभाग से उक्त भूखण्ड की खतौनी नकल (स्वामित्व-अभिलेख) लेकर अपने अभिलेखागार में रख ली ताकि अवसर पड़ने पर यह प्रमाणित किया जा सके कि रामकथा के ऐसे स्थल, पुरातत्वीय महत्व के हैं और सरकारी अभिलेखों से उसकी प्राचीनता प्रमाणित है।

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