विशेष साक्षात्कार :'हिन्दू कुटुम्ब को जाना, तो देश की जड़ों को जान लिया'
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विशेष साक्षात्कार :'हिन्दू कुटुम्ब को जाना, तो देश की जड़ों को जान लिया'

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Mar 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Mar 2015 11:22:51

2014 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध मराठी लेखक, पद्मश्री भालचंद्र नेमाडे मराठी साहित्य का एक ऐसा नाम है, जिसने अपनी लेखनी से साठ के दशक की धारा ही बदल दी। मराठी साहित्य में तीन पीढि़यों के पाठकों का सर्वाधिक प्यार पाने वाले नेमाडे मातृभाषा के मुखर पैरोकार हैं। वह जड़ों पर विश्वास रखते हैं और अपनी खरी बातों के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा और भाषा, पाठ्यक्रम में इतिहास के विकृतीकरण, इस देश की सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा द्वारा पारित मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा के प्रस्ताव जैसे विभिन्न विषयों पर उनसे लंबी बात की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। प्रस्तुत हैं इस वार्ता के प्रमुख अंश।
ल्ल पुरानी शिक्षा पद्धति और नई विद्यालयी शिक्षा में सबसे ज्यादा चुभने वाली बात आपको क्या लगती है? या कहिए, आज के बाबा को पोते की पढ़ाई में क्या बात सबसे ज्यादा खटकती है?
आज अंग्रेजी का प्रयोग ज्यादा होता है, यह मुझे बहुत खटकता है। वैसे, मेेरी पोतियां मराठी भाषी विद्यालयों में जाती हैं। मुझे यह अच्छा लगता है कि यहां सब विषय मराठी में पढ़ाये जाते हैं और पांचवीं के बाद अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रूप में रहती है। मैं इसे अच्छा समझता हूं और यह भी मानता हूं कि इसमें पढ़ने वालों की अंग्रेजी, अंग्रेजी माध्यम वालों से अच्छी रहती है।
भूख लगने पर जिस भाषा में खाना मांगते हो, जिस भाषा में रोते हो, जिस भाषा में सोते हो, सपने देखते हो, उस भाषा में सोचोगे तो आगे तक जाओगे। इस बात में कितनी सचाई है?
बिल्कुल सही है यह। यही मानव जाति का इतिहास रहा है। लेकिन जो देश गुलाम रहे या दूसरे कुछ और उनमें ही परभाषा में शिक्षा होती है, बाकी कहीं भी ऐसा नहीं है। चीन, जापान और यूरोप में तो आज तक परभाषा में शिक्षा नहीं हुई। यह हमारे लिए एक सबक भी है कि दुनिया मंे सब बच्चे जब अपनी-अपनी भाषा में पढ़ रहे हैं तो हम क्यों परभाषा में पढ़ाएं। पूरे देश में यह जाल फैल रहा है। वैसे, बिहार और उत्तर प्रदेश से जो लोग महाराष्ट्र आते हैं उनकी हिन्दी अच्छी होती है और उन्हीं के कारण महाराष्ट्र में हिन्दी जीवित है। राष्ट्र के तौर पर यह अच्छी बात है।
अंग्रेजी में बोलना, अंग्रेजी में सोचना श्रेष्ठता की बात समझी जाती है। श्रेष्ठ विचार सिर्फ अंग्रेजी में ही आते हैं या भारत का मानस ऐसा बनाया गया?
भारत में इस प्रकार का माहौल स्वतंत्रता के बाद बनाया गया। वैचारिक श्रेष्ठता अंग्रेजी के बिना संभव नहीं यह धारणा मेरी राय में पूरी तरह गलत है। हमारे बच्चों के समय भी अंग्रेजी के प्रति झुकाव था लेकिन आज(पोते) के समय यह माहौल अधिक हो गया है।
अंग्रेजी का यह बढ़ता प्रभुत्व आपकी राय में क्या करने वाला है? खतरा क्या है?
यह बहुत खतरनाक और आक्रामक है। आज अंग्रेजी का वैश्विक स्वरूप राक्षसी है अन्य भाषाओं और विविधताओं को निगलने वाला अंग्रेजी व्याकरण या ताना-बाना बहुत ज्यादा डरावना है। आस्टे्रलिया में 6 सौ के लगभग भाषाएं थीं लेकिन अब यह 30-35 ही बची हैं और यह शायद अगले पचास साल बाद लुप्त हो जाएंगी। इंग्लैंड में सौ साल पहले विभिन्न प्रकार की 6-7 भाषाएं थीं इन सबको अंग्रेजी ने तबाह कर दिया। स्कॉटिश नहीं बोली जाती, गेलिक नहीं बोली जाती, मैंक्स बंद हो गई। उत्तर पश्चिम यूरोप में केल्टिक बंद हो गई। अभी वेल्श को कुछ लोगों ने बचा रखा है। अंग्रेजी की बजाय मातृभाषा का प्रयोग करने के लिए डटना ही इससे मुकाबला करने का अकेला तरीका है। आयरलैंडवासियों ने भी आइरिश शुरू कर दी है। कनाडा और अमरीका मेंें कोई 200 भाषाएं थीं इनमें महज 38 ही बची हैं। अब इनमें कोई 4-5 ही बची होंगी। यह स्थिति भारत में होने का डर है इसलिए अंग्रेजी खतरनाक है। भारत में, इसके अलग-अलग प्रांतों में यह अपनी-अपनी मातृभाषा के पक्ष में खड़े होने का वक्त है।
ल्ल आप दुनिया घूमे हैं, पढ़े हैं। दुनिया को समझा है, पढ़ाया है। लेकिन एक लेखक के रूप में अपने विशाल देश को जानने के आपके स्रोत क्या हैं?
देश कितना भी बड़ा हो लेकिन अगर आपने हिन्दू कुटुम्ब को जाना है तो देश की जड़ों को जान लिया है। क्योंकि पूरे शरीर के विषय में जानने के लिए एक कोशिका बहुत है। हमें बड़ा गर्व है कि हमारे देश के हर गांव में, हर कुटुम्ब में किसी भी घर में या किसी भी राज्य में असम हो या फिर कश्मीर में या अन्य कहीं भी जो संस्कार एक घर में मिलेगा वही दूसरे घर में भी मिलेगा। तो किसी चीज को समझने के लिए हमें बाहर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे दिमाग के विकास में विविधता का बड़ा ही योगदान है। अनेक प्रकार की अलग-अलग चीजों को ग्रहण करने से हमारा विकास हुआ है। तरह-तरह का अनाज, अलग-अलग मौसम, भिन्न-भिन्न सब्जियां, हम इस विविधता के साथ बड़े हुए लोग हैं। यह इस राष्ट्र का मूल, इसकी हिन्दू संस्कृति है। यहां चीजों का अंबार है, कुछ भी बेकार नहीं। लेकिन आज चीजें कुछ बदल रही हैं। हम कुछ ही चीजों पर निर्भर होने लगे हैं। यह एकपक्षीय सोच, एक तरह का खाना-पहनना। यह इस भूमि के विविधता संजोने के स्वभाव के विरुद्ध है।
जैसा कि आपने कहा कि अंग्रेजी की एक राक्षसी प्रवृत्ति है। आस्ट्रेलिया में 300 वनवासी भाषाएं थीं जो अंग्रेजी चट कर गई, वैसे ही हमारे पूर्वोत्तर के वनवासी क्षेत्रों में अनेक उनकी अपनी रीति-नीति व सांस्कृतिक परम्पराएं भी थीं। लेकिन उन क्षेत्रों में अंग्रेजी की वर्णमाला सिखाना और साथ में एक मजहबी किताब पढ़ाना। इससे वनवासी और जनजातीय समाज अपनी परंपराओं और रीति-नीति से दूर हुआ। इसे आप किस प्रकार देखते हैं।
मैंने कई बार मुखर होकर कहा है कि पूर्वोत्तर के लोगों को उनकी ही भाषा में प्राथमिक शिक्षा मिलनी चाहिए। रही बात अंग्रेजी के साथ ईसाईकरण की, तो जो लोग सेवा की आड़ में कुछ और कर रहे हंै, उस पर रोक लगनी चाहिए। क्योंकि ये दोनों साथ नहीं हो सकते।
मदर टेरेसा ने स्वयं टाइम पत्रिका से बात करते हुए कहा था कि मैं प्रेम से ईसाईकरण करती हूं। उनकी ऐसी 'सेवा' पर भारत ही नहीं विश्व में भी सवाल उठे। तो ऐसी सेवा को आप क्या मानते हैं? साहित्यकार के तौर पर आपको क्या लगता है कि इस चुनौती से कैसे निपटा जा सकता है?
सेवा करना अच्छी बात है। यीशू ने कहा कि सेवा करो, न कि यह कहा कि सबको कन्वर्ट करो। अगर इस प्रकार का कुछ हो रहा है तो कहीं न कहीं इसके पीछे कुछ हमारी अपनी भी कमजोरी है। अगर समाज को मिशनरियों के चंगुल से बचाना है तो लोगों को इसके विषय में जागरूक करना होगा। यही इसका एक उपाय है। आज यह बहुत जरूरी है। हमारी प्राथमिक शिक्षा में इस प्रकार की चीजों को जोड़ना चाहिए और बच्चों के माता-पिता को समझना चाहिए कि मिशनरियों की शिक्षा और भारत की शिक्षा में बड़ा अंतर है। इस कार्य को करते ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।
आपके अनुसार भिन्नता में एकता के लिए स्थान की संस्कृति कहीं है तो भारत में है। ऐसे में आईएसआईएस या ईसाईकरण की खबरें, लोगों को एक रंग में रंगने की सनक को आप कैसे देखते हैं?
यह हमारी हिन्दू व्यवस्था के लिए खतरनाक बात है कि हम एक कुछ माने। हमने कभी एक चीज, एक देवता,एक ग्रन्थ नहीं माना। तो हमारे लिए यह गलत है और इस प्रकार की चीजों को समर्थन तो दूर, हम सहन भी नहीं कर सकते। क्योंकि हम विविधताओं को मानने वाले हैं और इसको आज तक भलीभांति संभलाते आ रहे हैं जिससे आजतक इसका संतुलन स्थापित है।
आपने कहा कि गलत चीजों को हम सहन नहीं कर सकते। परन्तु हिन्दू के बारे में एक पर्याय शब्द गढ़ा गया कि हिन्दू सब सहन कर सकता है, सहिष्णु है। कुछ भी कहो या करो यह सहन करता रहेगा?
यह हमारी कमजोरी है। गुप्तकाल तक हिन्दू सशक्त था और इसका कोई भी कुछ बिगाड़ने वाला नहीं था। उसके बाद हिन्दू जात-पात में बंटा और बंटता चला गया। हमने उन हिन्दुओं को अंगीकार नहीं किया जो जबरन या किसी विघटनकारी परिस्थिति के चलते हिन्दू समाज से दूर हुए थे। यह बहुत बड़ी गलती रही। जिस प्रकार शिवाजी महाराज खुलेआम जो हिन्दू किसी कारणवश किसी अन्य मत-पंथ में चले जाते थे, लेकिन सुध आने पर जैसे ही वे घर वापसी करते थे शिवाजी उनको उसी सम्मान के साथ वापस लाते थे। लेकिन उनके बाद यह बंद हो गया। इससे हम कमजोर हुए। सहोदर घर लौटते हैं तो उन्हें हमें सम्मान देना चाहिए। अस्वीकार और तिरस्कार की सामाजिक बेडि़यां तोड़नी चाहिएं।
यदि कहा जाये कि मातृभूमि की शक्ति मातृभाषा है। इस तर्क के आप पक्षधर हैं?
बिल्कुल पक्षधर हूं। ऐसा ही है।
क्या विविधताओं वाले इस देश में शिक्षा की भाषा और पाठ्यक्रम एक जैसा होना चाहिए? आप क्या कहते हैं?
मेरा मानना है कि अपने-अपने प्रदेशों के मुताबिक पाठ्यक्रम होना चाहिए। अगर आप गोवा के निवासी हैं तो पुर्तगाली और उत्तर हिन्दुस्थानी हों तो मंगोलों के विषय में पता होना चाहिए कि यह कैसे आए, फिर यहां कैसे किन तरीकों का प्रयोग करके लोगों को ईसाई बनाया गया, यह सब इस राज्य के लोगों को पढ़ाया जाना चाहिए। ऐसे ही अलग-अलग राज्यों का जो इतिहास, भूगोल है उसे पढ़ाया जाना चाहिए। आज के पाठ्यक्रम में जो होना चाहिए वह होता ही नहीं है। इसकी बजाय जो निरर्थक होता है वह प्रमुखता से पढ़ाया जाता है। जैसे, इंग्लैंड में संसद कैसे चलती है, हिटलर ने क्या किया… यह हमारे लिए काम की बात नहीं हैं। काम की बातें यह हैं कि हमारे देश के अच्छे-अच्छे लोगों ने क्या किया। यह पाठ्यक्रमों में पढ़ाना चाहिए।
एक राय यह भी है कि कुछ तथाकथित शिक्षाविदों ने हमारे इतिहास को ग्लानिपूर्ण बनाने का प्रयास किया। वे हमेशा बाहर की शिक्षा, बाहर की बोली, बाहर की चीजों से आकृष्ट हुए। उन्होंने यहां के विषय में एक हीनता का भाव दर्शाया। आपको लगता है ऐसा कुछ हुआ है?
स्पष्ट कहें तो प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक जो भी इतिहास पढ़ाया जाता है वह पूरी तरह से झूठा लिखा हुआ लगता है। इसमें सच न के बराबर है। इसलिए क्योंकि इनके जो स्रोत हैं वह एक तो बाहरी होते हैं, उन्हें यहां की समझ नहीं होती है। आपने जिसके बारे में भी लिखा है वह भाषा भी आपको आनी ही चाहिए। पर ऐसा कम ही होता है। इसलिए हमारे यहां इतिहास गलत है और यही पढ़ाया जाता रहा है।
आपको कभी लगा कि इसमें भी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी रही?
राजनीतिक इच्छाशक्ति की बहुत कमी है। हमारे यहां। सबसे गलत बात है कि आज तक हम एक भाषा नहीं कर सके। संस्कृत इतनी उत्कृष्ट और बड़ी भाषा थी वह भी लगभग समाप्त होने पर आ गई है। दूसरी जो राष्ट्रभाषा चाहिए थी वह भी हम नहीं ला सके। इसी कारण अंग्रेजी बढ़ रही है। यही प्रमुख विफलता है।
संस्कृति के बारे में कुछ लोग आत्ममुग्धता की स्थिति तक जाते हैं और कुछ इसे सिरे से खारिज करते हैं। जब आप जड़ों तक जाते हैं तो किन्हें आक्रान्ता गिनते हैं?
हम इतिहास देखें तो पाते हैं कि यहां आक्रमण होते आए हैं। ग्रीक, शक, पुर्तगाली, मुगल, अंग्रेज यह सब आक्रान्ता ही थे। और जो भी ऐसे लोग यहां आए उनका मूल्यांकन कर ही उन्हें जाना जा सकता है कि इन लोगों ने यहां क्या किया। अधिकतर आक्रान्ताओं ने यहां आकर लोगों को बांटा और दिग्भ्रमित किया। हमारे यहां अधिक नुकसान अंग्रेजों ने किया। यहां उन्होंने जात-पात में बांटना शुरू कर दिया। हमारे यहां जो मुसलमान भी हुए वे पहले खुद को मुसलमान नहीं कहते थे। वह अपने को पंजाबी, खटीक, जुलाहा कहते थे। उनसे पूछा जाता था कि आप का पंथ क्या है तो उन्हें इसके बारे में कुछ पता ही नहीं होता था। धर्म को पहले कर्म से जोड़ते थे, जैसे- यह काम पिता का नहीं है, बच्चे का नही है। अलग होने पर भी खुद को एक मानने के कारण हम अखंड रहे।
ल्ल आपातकाल के बाद संविधान में शब्द जोड़ा गया सेकुलरिज्म। इस शब्द ने कितना नुकसान किया इस देश का?
मैं सेकुलर शब्द, इसकी व्याख्या और विचार के बहुत ही खिलाफ हूं। मैं इसका मतलब ही नहीं समझता। इस संस्कृति में मैं पहले से जैसा था मुझे वैसा ही रहना चाहिए। बुद्धिजीवियों से आग्रह है कि हमें विदेशी शब्द मत ओढ़ाइए, बांटने वाले अर्थ मत समझाइए।
यानी, जिन्होंने यह शब्द गढ़ा, उन्होंने इसे किसी खास मंतव्य से गढ़ा?
ये कम बुद्धि के लोग थे। ऐसे लोगों ने इंग्लैंड में जो शिक्षा पाई और वहां के लोगों के विषय में पढ़ा तो उन्हें लगा कि यह बड़े लोग हैं। लेकिन जो इंग्लैंड गए उन्हें यह पता ही नहीं था कि हमारे यहां कपिल, पतंजलि, पाणिनी और कणाद ऋषि भी हुए हैं। जिस मैकाले की बात वे करते हैं उसे खुद उसके ही देश में पागल तक कहा गया। भारत में ऐसी गलत शिक्षा लाने का काम ईस्ट इंडिया कंपनी का रहा और उसने यहां शिक्षा में जो चाहा वह भरा। जबकि हमारे यहां सभी विषयों की शिक्षाओं का उच्च से उच्च भंडार है।
ल्ल आपने कहा कि पीछे जाएं तो भारतीय ज्ञान का खजाना खुलता है। पिछले दिनों दिल्ली में विश्व वेद सम्मेलन हुआ जहां यह बात हुई भी। किन्तु मीडिया के एक हिस्से में इस कार्यक्रम की खिल्ली उड़ायी गई?
मैं ऐसे मीडिया द्वारा परोसी गई चीजों को पढ़ता ही नहीं हूं, यही उनको मेरा जवाब है। मैंने कहा कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय बंद करने चाहिएं तो कुछ ने कहा कि ये अंग्रेजी को हटाना चाहते हैं। पर मैंने ऐसा नहीं कहा। हमने कहा कि माध्यम मातृभाषा ही हो। लेकिन जानबूझकर यह मीडिया उन चीजों को बढ़ाता है क्योंकि उनके लिए अंग्रेजी ही पेट भरने का साधन है।
हाल में नागपुर में हुई रा.स्व.संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने प्रस्ताव पारित किया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा में हो। आपका क्या कहना है?
यह बहुत ही अच्छी और आनन्द की बात है। मैं रा.स्व. संघ के इस प्रस्ताव का पूरा समर्थन करता हूं। संभव हुआ तो मैं इसका प्रचार भी करूंगा, जबकि यह मेरा काम नहीं है। इस प्रस्ताव को सभी जगह लागू करना चाहिए। इससे जो नई पीढ़ी आ रही है उसका दिमाग अच्छा होगा क्योंकि इससे देश की व्यवस्था बचेगी।
आपकी राय में इस देश को एकसूत्र में बांधने वाली बात क्या है? आपने अपनी पुस्तक का शीर्षक हिन्दू ही क्यों सोचा?
हमारी हिन्दू संस्कृति ही सबको एक रख सकती है। क्योंकि यही एक संस्कृति है जो सर्वसमावेशक है और किसी में भेद नहीं करती जो भी संस्कृति यहां है उसे मैं हिन्दू समझता हूं। यहां सब लोग हिन्दू ही हैं। मुसलमान भी खुद को हिन्दू समझते हैं। अकबर, औरंगजेब आदि भी अपने को हिन्दू ही समझते थे। हिन्दू-मुसलमान के बीच जो खाई आयी उसके सूत्रधार अंग्रेज हैं।
विश्व में एक नई खिलाफत की स्थापना, आईएसआईएस का बढ़ता प्रभाव इन सब को आप कैसे देखते हैं?
जिन लोगों ने उन्हें पाला है उन्हें खामियाजा भुगतना होगा। मैं नहीं समझता कि यह वैश्विक समस्या है। हमारे यहां इस तरीके की हिंसा की जगह नहीं है। अगर इस प्रकार का कुछ होता है तो हमारे यहां प्रतिकार भी होता है। हां यह अलग बात है हम ही उनके आने का वातावरण तैयार करें तो फिर अलग बात है। यहां अच्छी चीजें ज्यादा हैं इसलिए यहां गलत चीजें नहीं बढ़ेंगी।
ल्ल आज भूमण्डलीकरण की बात होती है, आप देशीकरण की बात करते हैं। लोग कहेंगे कि क्या पुराने जमाने की बात कर रहे हैं?
जितना भी भूमण्डलीकरण हो जाए उसमें भी आपका एक गांव का बाजार, दुकान रहेगा। यही हमारे लिए बहुत होगा क्योंकि हम बाहरी दुकानों का क्या करेंगे? अपना संभालना और आगे बढ़ाना जरूरी है। साहित्य का भी देशीकरण हो। हम दूसरी शताब्दी से ही नॉवेल लिख रहे हैं। हम लोगों की स्मृतियां सदियों से लिख रहे हैं। लेकिन दु:ख इस बात का है कि फ्रांस, जर्मनी में अच्छी नॉवेल आई, अमरीका में आई और भी अन्य देशों मंे नॉवेल आई पर भारत में एक भी अच्छी नहीं आईं। फणीश्वरनाथ रेणु, प्रेमचंद को छोड़ दें तो और इस बारे में कुछ अधिक नहीं आया।
हिन्दी द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को अपनाने में संकोच और क्लिष्ट शब्दों से चिपके रहने की शुद्धतावादी बहस को आप कैसे देखते हैं?
इसने बड़ा नुकसान किया। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए थी। हमारी सभी राज्यों की भाषाएं अंदर से एक ही हैं।
अभी अंग्रेजी के विषय में कहते हैं कि यह बाजार के हिसाब से चलती है। पढ़ने वाले सीमित हैं। परन्तु हिन्दी पट्टी और बाकी सब में पढ़ने की गुंजाइश बढ़ रही है। आपको लगता है कि बाकी भाषाओं में जो विपुल साहित्य रचा गया है उसको हिन्दी के जरिये मुख्य धारा में आना चाहिए?
बिल्कुल आना चाहिए। यह बहुत ही आसान है। हिन्दी तो हर स्थान पर पढ़ी जाती है। हिन्दी तो एक तरीके से वैश्विक भाषा है और लोगों के लिए यह अजब नहीं है। हिन्दी में साहित्य आए और समाज जुड़े तो यह सेकुलरिज्म से बहुत बड़ा काम हो सकता है। जो संस्कृत के बाद हमारी परंपरा खंडित हुई है उसे हिन्दी ही अखंड कर सकती है।
हिन्दू संस्कृति का प्रसार अगर होता है तो क्या सेकुलरिज्म के मुकाबले यह ज्यादा फायदेमंद होगा?
हां बिलकुल यह फायदेमंद होगा और यह हमारे इतिहास और लोगों के लिए भी अच्छा होगा।

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