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..डॉ. हेडगेवार और गांधी
ना.ह. पालकर
र।ष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों में अनेक स्थानों से स्वयंसेवक अपने व्यय से गणवेश इत्यादि बनाकर तथा अपना बिस्तर आदि सामान लेकर एकत्र होते थे। 1934 के वर्धा के शिविर में एक हजार पांच सौ स्वयंसेवकों ने भाग लिया था। शिविर की व्यवस्था तथा तम्बू आदि को गाड़ने के लिए पन्द्रह-बीस दिन पूर्व से ही स्वयंसेवकों का उस स्थान पर आना-जाना प्रारंभ हो गया था।
इस स्थान के पास ही महात्मा गांधी जी का उस काल का सत्याग्रह आश्रम था। वे उसी में एक दुमंजिले बंगले में रहते थे। नित्य प्रात: घूमने के लिए जाते समय उन्हें शिविर की व्यवस्था में संलग्न स्वयंसेवक देखने को मिलते। उनके मन में सहज ही उत्सुकता हुई कि यहां कौन सी परिषद या सम्मेलन होने वाला है। दिनांक 22 दिसम्बर को शिविर का उद्घाटन हुआ। उस समय पद्धति के अनुसार नगर के प्रमुख एवं प्रतिष्ठित सज्जनों को आमंत्रित किया गया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनमें महात्मा जी तथा सत्याग्रह-आश्रमवासी अन्य सज्जन भी सम्मिलित थे।
शिविर में गणवेशधारी स्वयंसेवकों के कार्यक्रम प्रारंभ हो गये। घोष की भी गर्जना होने लगी। महात्मा जी अपने बंगले पर से इन सब कार्यक्रमों को सहज ही देख सकते थे। उनसे वे अत्यन्त प्रभावित हुए तथा उन्होंने महादेवभाई देसाई के पास शिविर देखने के लिए जाने की इच्छा व्यक्त की। इस पर महादेव भाई देसाई ने वर्धा जिला के संघचालक श्री आप्पा जी जोशी को पत्र लिखा कि आपका शिविर आश्रम के सामने ही होने के कारण स्वभाविक ही महात्मा जी का ध्यान उधर गया है। उसे देखने की उनकी इच्छा है। अत: कृपा कर सूचित करें कि आपको कौन सा समय सुविधाजनक होगा। वे अत्यन्त कार्यव्यस्त हैं फिर भी वे समय निकालेंगे। यदि आप आकर समय निश्चित कर सकें तो और भी उत्तम होगा। इस पत्र के मिलते ही आप्पा जी आश्रम में गये तथा महात्मा जी से कहा, आप अपनी सुविधा के अनुसार समय बता दीजिये। हम उसी समय आपका स्वागत करेंगे। महात्मा जी का उस दिन मौन था अत: उन्होंने लिखकर बताया कि मैं कल दिनांक 25 को प्रात: छह बजे शिविर में आ सकूंगा। वहां डेढ़ घण्टा व्यतीत कर सकूंगा। आप्पा जी ने समय की स्वीकृति देकर बिदा ली। दूसरे दिन प्रात: ठीक छह बजे महात्मा जी शिविर में आये। उस समय सभी स्वयंसेवकों ने अनुशासनपूर्वक उनकी मानवन्दना की। उनके साथ श्री महादेव भाई देसाई, मीराबेन तथा आश्रम के अन्य व्यक्ति भी थे। उस भव्य दृश्य को देखकर महात्मा जी ने आप्पा जी के कन्धे पर हाथ रखकर कहा मैं सचमुच प्रसन्न हो गया हूं। सम्पूर्ण देश में इतना प्रभावी दृश्य मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा। इसके बाद उन्होंने पाठशाला का निरीक्षण किया। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पन्द्रह सौ स्वयंसेवकों का भेाजन एक घण्टे में बिना किसी गड़बड़ के पूरा हो जाता है, एक रुपए तथा थोड़े से अनाज में नौ समय का भोजन दिया जाता है तथा घाटा हुआ तो स्वयंसेवक ही उसे पूरा कर देते हैं।
इसके उपरान्त उन्होंने रुग्णालय तथा स्वंयसेवकों के निवास भी देखे। रुग्णालय में रोगियों का हालचाल पूछते हुए उन्हें यह भी पता चला कि संघ में गांव के किसान तथा मजदूर वर्ग के स्वयंसेवक भी हैं। ब्राह्मण, महार, मराठा आदि सभी जातियों के स्वयंसेवक एक साथ घुल-मिलकर रहते हैं तथा एक ही पंक्ति में भेाजन करते हैं, यह जानकर उन्होंने इस तथ्य की जांच पड़ताल करने के उद्देश्य से कुछ स्वयंसेवकों से प्रश्न भी किये। स्वयंसेवकों के उत्तरों में उन्हें यही मिला कि ब्राह्मण, मराठा, दर्जी आदि भेद हम संघ में नहीं मानते। अपने पड़ोस में किस जाति का स्वयंसेवक है इसका हमें पता भी नहीं तथा यह जानने की हमारी इच्छा भी नहीं होती। हम सब हिन्दू हैं और इसलिए भाई हैं। परिणामस्वरूप व्यवहार में ऊंच-नीच मानने की कल्पना ही हमें नहीं समझ में आती है।
इस पर महात्मा जी ने आप्पा जी से प्रश्न किया, आपने जातिभेद की भावना कैसे मिटा दी? इसके लिए हमलोग तथा अन्य कई संस्थाएं तो जी जान से प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु लोग भेदभाव भूलते नहीं। आप तो जानते ही हैं अस्पृश्यता नष्ट करना कितना कठिन है। यह होते हुए भी आपने संघ में इस कठिन कार्य को कैसे सिद्ध कर लिया?
इस पर आप्पाजी का उत्तर था, सब हिन्दुओं में भाई-भाई का संबंध है यह भाव जागृत करने से सब भेदभाव नष्ट हो जाते हैं। भ्रातृभाव शब्दों में नहीं, आचरण में आने पर ही यह जादू होता है। इसका सम्पूर्ण श्रेय डॉक्टर हेडगेवार को है। इसी समय घोषवादन हुआ तथा सभी स्वयंसेवक सीधे दक्ष में खड़े हो गये और ध्वजोत्तोलन हुआ। ध्वजारोहण होने पर आप्पाजी के साथ महात्मा जी ने भी संघ की पद्धति से भगवाध्वज को प्रणाम किया।
ध्वजप्रणाम के बाद महात्मा जी शिविर के अन्तर्गत संध वस्तु भण्डार में गये। वहां एक ओर सूक्तियों, छायाचित्रों, घोषवाद्यों, आयुधों आदि की एक छोटी सी प्रदर्शनी लगायी गयी थी। उसके बीचोंबीच सबकी निगाह अपनी ओर आकृष्ट करने वाला एक चित्र सजाकर लगाया हुआ था। महात्मा जी ने उसे गौर से देखकर पूछा, यह किसका चित्र है?
ये ही पूजनीय डॉक्टर केशवराव हेडगेवार हैं, आप्पा जी ने उत्तर दिया।
अस्पृश्यता नष्ट करने के संबंध में जिनका आपने उल्लेख किया, वे डॉक्टर हेडगेवार ये ही हैं? इनका संघ से क्या संबंध है? महात्मा जी ने पूछा।
वे संघ के प्रमुख हैं। उन्हें हम सरसंघचालक कहते हैं। उनके नेतृत्व में संघ का सब कार्य चल रहा है। उन्होंने ही संघ प्रारंभ किया था, आप्पा जी ने कहा।
क्या डाक्टर हेडगेवार जी से भेंट हो सकेगी? यदि यह भेंट हो सकी तो उनके द्वारा ही संघ संबंधी जानकारी
कल डॉक्टर हेडगेवार इस शिविर में जाने वाले हैं। आपकी इच्छा हो तो वे आपके दर्शन करेंगे आप्पा जी ने बताया।
इस प्रकार वार्तालाप के बाद महात्मा जी अपने आश्रम को लोट गये। जाते-जाते वह यह मत व्यक्त करना नहीं भूले कि यह कार्य केवल हिन्दुओं तक सीमित है, इसमें सबको छूट होती तो अधिक अच्छा होता। इस पर कुछ चर्चा हुई तथा उन्होंने यह मान्य किया कि दूसरों का द्वेष न करते हुए केवल हिन्दुओं का संगठन करना राष्ट्र विधातक नहीं।
दूसरे दिन प्रात: डॉक्टर जी वर्धा आये। उस समय वर्धा स्टेशन पर ही सैनिक पद्धति से उनका अभिवादन किया गया तथा तदनन्तर सभी स्वयंसेवक संचलन करते हुए शिविर में आये। डॉक्टर जी के शिविर में आते ही स्वामी आनन्द जी ने आकर महात्मा जी से मिलने के लिए डॉक्टर जी को निमंत्रित किया तथा रात्रि को साढ़े आठ बजे का समय निश्चित किया। उसी दिन सायंकाल पूना के धर्मवीर श्री अण्णासाहब भोपटकर की अध्यक्षता में शिविर का समारोह कार्यक्रम अत्यन्त जोरदार ढंग से सम्पन्न हुआ। इसके बाद डॉक्टर जी, आप्पा जी तथा भोपटकर तीनों महात्मा जी से मिलने के लिए आश्रम में गये। महात्मा जी दुमंजिले पर अपनी बैठक में थे। श्री महादेव देसाई ने द्वार पर ही सबका स्वागत किया तथा उन्हें ऊपर ले गये। महात्मा जी भी आगे आकर सबको अन्दर ले गये तथा अपने बगल में ही गद्दे पर बैठा लिया। लगभग एक घण्टा महात्मा जी तथा डॉक्टर जी के बीच चर्चा हुई। श्री अण्णा साहब भोपटकर ने भी चर्चा में कभी-कभी थोड़ा सा भाग लिया। इस सम्भाषण का कुछ प्रमुख एवं महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार था।
महात्मा जी – आपको पता चल गया होगा कि कल मैं शिविर में गया था।
डॉक्टर जी – जी हां, आप शिविर में गये यह स्वयंसेवकों का महद्भाग्य ही है। मैं उस समय डपस्थित नहीं था, इसका दु:ख है। लगता है आपने एकाएक शिविर में आने का निर्णय लिया। मुझे यदि पहले से पता होता, तो उस समय आने का अवश्य प्रयत्न करता।
महात्मा जी – एक दृष्टि से अच्छा ही हुआ कि आप नहीं थे। आपकी अनुपस्थिति के कारण ही आपके विषय में मुझे सच्ची जानकारी मिल सकी। डॉक्टर, आपके शिविर में संख्या, अनुशासन, स्वयंसेवकों की वृत्ति, स्वच्छता आदि अनेक बातों को देखकर बहुत संतोष हुआ। आपका बैण्ड तो मुझे सबसे अधिक पसन्द आया।
इस प्रकार प्रास्ताविक संभाषण के बाद महात्मा जी ने संघ दो तीन आने में भेाजन कैसे दे सकता है, हमें क्यों अधिक खर्च आता है? क्या कभी स्वयंसेवकों को पीठ पर सामान लादकर बीस मील तक संचलन करवाया है आदि प्रश्न पूछे। श्री अण्णासाहब भोपटकर का महात्मा जी से निकट का परिचय एवं संबंध होने के कारण डॉक्टर जी द्वारा प्रथम प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व ही उन्होंने कहा, आपको अधिक खर्च आता है उसका कारण आप सब लोगों का व्यवहार है। नाम तो रखते हैं। पर्णकुटी पर अन्दर रहता है, राजशाही ठाठ। मैं अभी संघ में सबके साथ दाल-रोटी खाकर आया हूं। आपके समान वहां विभेद नहीं है। संघ के अनुसार चलोगे तो आपको भी दो तीन आने ही खर्च आयेगा। उसमें डॉक्टर हेडगेवार क्या करेंगे। आपको तो ठाठ चाहिए और खर्च भी कम चाहिए। ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकेंगी? अण्णा साहब की ये फब्तियां सब लोगों के मुक्त हास्य में विलीन हो गयीं।
इसके उपरान्त महात्मा जी ने संघ का विधान, समाचारपत्रों में प्रचार आदि विषयों पर जानकारी के लिए प्रश्न पूछे। इसी समय मीराबेन ने गांधी जी को घड़ी दिखाकर बताया कि नौ बज गये हैं। इस पर डॉक्टर जी ने यह कहते हुए कि अब आपके सोने का समय हो गया है उनसे विदा मांगी, पर महात्मा जी ने कहा, नहीं नहीं अभी आप और बैठ सकते हैं। कम से कम आधा घण्टा तो मैं सरलता से और जाग सकता हूं। अत: चर्चा जारी रहेगी।
महात्मा जी – डॉक्टर आपका संगठन अच्छा है। मुझे पता चला है कि आप बहुत दिनों तक कांग्रेस में काम करते थे। फिर कांग्रेस जेसी लोकप्रिय संस्था के अन्दर ही इस प्रकार का स्वयंसेवक संगठन क्यों नहीं चलाया? बिना कारण ही अलग संगठन क्यों बनाया?
डॉक्टर जी – मैंने पहले कांग्रेस में ही यह कार्य प्रारंभ किया था। 1920 की नागपुर कांग्रेस में मैं स्वयंसेवक विभाग का कार्यवाह था तथा मेरे मित्र डॉ. परांजपे अध्यक्ष थे। इसके बाद हम दोनों ने इस बात के लिए प्रयत्न किया कि कांग्रेस में ऐसा संगठन हो किन्तु सफलता नहीं मिली। अत: यह स्वतंत्र प्रयत्न किया है।
महात्मा जी – कांग्रेस में आपके प्रयत्न क्यों सफल नहीं हुए? क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली?
डॉक्टर जी – नहीं, नहीं, पैसे की कोई कठिनाई नहीं थी। पैसे से अनेक बातें सुकर हो सकती है, किन्तु पैसे के भरोसे ही संसार में कोई बात सफल नहीं हो सकती। यहां तो प्रश्न पैसे का नहीं, अन्त:करण का है।
महात्मा जी – क्या आपका यह कहना है कि उदात्त अन्त:करण के व्यक्ति कांग्रेस में नहीं थे अथवा नहीं हैं?
डॉक्टर जी – मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है। कांग्रेस में अनेक अच्छे व्यक्ति हैं, किन्तु प्रश्न तो मनोवृत्ति का है। कांग्रेस की मनोरचना एक राजनीतिक कार्य को सफल करने की दृष्टि से हुई है। कांग्रेस के कार्यक्रम इस बात को ध्यान में रखकर ही बनाये जाते हैं तथा उन कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए उसे स्वयंसेवकों की आवश्यकता होती है। स्वयंप्रेरणा से कार्य करने वालों के बलशाली संगठन से सभी समस्याएं हल हो सकेंगी, इस पर कांग्रेस का विश्वास नहीं है। कांग्रेस के लोगों की धारणा तो स्वयंसेवकों के संबंध में सभा परिषदों में बिना पैसे के मेज-कुर्जी उठानेवाले मजदूर की है। इस धारणा से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने वाले स्वयंस्फूर्त कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न हो सकेंगे? इसलिए कांग्रेस में कार्य नहीं हो सका।
महात्मा जी – फिर स्वयंसेवक के विषय में आपकी क्या कल्पना है?
डॉक्टर जी – देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए आत्मीयता से अपना सार-सर्वस्व अर्पण करने के लिए सिद्ध नेता को हम स्वंयसेवक समझते हैं तथा संघ का लक्ष्य इस प्रकार के स्वयंसेवकों के निर्माण का है। इस संगठन में स्वयंसेवक और नेता यह भेद नहीं है। हम सभी स्वयंसेवक हैं यह जानकर ही हम एक दूसरे को समान समझते हैं तथा सबसे समान रूप से प्रेम करते हैं। हम किसी प्रकार के भेद को प्रश्रय नहीं देते। इतने थोड़े समय में धन तथा अन्य साधनों का आधार न होते हुए भी संघ कार्य की इतनी वृद्धि का यही रहस्य है।
महात्मा जी – बहुत अच्छा। आपके कार्य की सफलता में निश्चित ही देश का हित सन्निहित है। सुनता हूं कि आपके संगठन का वर्धा जिले में अच्छा प्रभाव है। मुझे लगता है कि यह प्रमुखता से सेठ जमनालाल बजाज की सहायता से ही हुआ होगा।
डॉक्टर जी – हम किसी से आर्थिक सहायता नहीं लेते।
महात्मा जी – फिर इतने बड़े संगठन का खर्च कैसे चलता है?
डॉक्टर जी – अपनी जेब से अधिकाधिक पैसे गुरुदक्षिणा रूप में अर्पण कर स्वयंसेवक ही यह भार वहन करते हैं।
महात्मा जी – निश्चित ही विलक्षण है। क्या आप किसी से धन नहीं लेंगे?
डॉक्टर जी – जब समाज को अपने विकास के लिए यह कार्य आवश्यक प्रतीत होगा, तब हम अवश्य आर्थिक सहायता स्वीकार करेंगे। यह स्थिति होने पर हमारे न मांगते हुए भी लोग पैसे का ढेर संघ के सामने लगा देंगे। इस प्रकार की आर्थिक सहायता लेने में हमें कोई अड़चन नहीं, परन्तु संघ की पद्धति हमने स्वावलम्बी ही रखी है।
महात्मा जी – आपको इस कार्य के लिए अपना संपूर्ण समय खर्च करना पड़ता होगा। फिर आप अपना डॉक्टरी का धंधा कैसे करते हैं?
डॉक्टर जी – मैं व्यवसाय नहीं करता।
महात्मा जी – फिर आपके कुटुम्ब का निर्वाह कैसे होता है?
डॉक्टर जी – मैंने विवाह नहीं किया।
यह उत्तर सुनकर महात्मा जी कुछ स्तंभित हो गये। उसी प्रवाह में वे बोले, अच्छा आपने विवाह नहीं किया? बहुत बढि़या। इसी कारण इतनी थोड़ी अवधि में आपको इतनी सफलता मिली है। इस पर डॉक्टर जी यह कहते हुए कि मैंने आपका बहुत समय लिया। आपका आशीर्वाद रहा तो सब मनमाफिक होगा। अब आज्ञा दीजिए, चलने के लिए उठे। महात्मा जी उन्हें द्वार तक पहुंचाने आये तथा बिदा करते हुए बोले, डॉक्टर जी,अपने चरित्र तथा कार्य पर अटल निष्ठा के बल पर आप अंगीकृत कार्य में निश्चित सफल होंगे। डॉक्टर जी ने महात्मा जी को नमस्कार किया और चल दिये।
(पुस्तक 'डॉ. हेडगेवार चरित' से साभार)
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