|
मुजफ्फर हुसैन
फ्रांस की कार्टून वाली घटना ने यूरोप और इस्लाम के बीच चले आ रहे संघर्ष की कहानी को एक बार फिर से ताजा कर दिया है। यूरोप ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में मुस्लिम और अन्य मतावलंबी देशों में जो खींचतान चल रही है वह कहां जाकर समाप्त होगी, यह तो अभी कहना कठिन है लेकिन फ्रांस की घटना ने एक बार फिर से ऐसा वातावरण बना दिया है जिसमें मुसलमान राष्ट्र एक छोर पर हैं तो अन्य मतावलंबी देश दूसरे छोर पर। यहूदी और ईसाई तो अब तक थे ही लेकिन भारत जैसा पंथनिरपेक्ष देश भी अब इस समस्या पर सोचने लगा है। भारत में पिछले दिनों लव जिहाद और कन्वर्जन की जो क्रिया-प्रतिक्रिया देखने को मिली है उसने विश्व शांति और देश की राष्ट्रीय एकता के सम्मुख अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं। बीबीसी से जुड़ी धार्मिक संबंधों की पत्रकार केरोलिन व्हाइट का इस संबंध में एक विस्तृत आलेख प्रकाशित हुआ है।
पिछले दिनों प्रकाशित कार्टूनों को लेकर जो कुछ हुआ उसने अनेक सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। एक बात तो निश्चित है कि दोनों के बीच टकराव की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ी हैं। यूरोप ही एक ऐसा महाद्वीप है जिसमें पिछले दिनों इस्लाम और ईसाइयत के अनुयायी आपस में टकराए हैं। यूरोप ही वह महाद्वीप है जहां सेकुलरवाद नामक शब्द का जन्म हुआ। इसका अर्थ जब अनर्थ में बदलने लगा तो पंथों के बीच टकराव बढ़ जाना स्वाभाविक बात थी। सेकुलर का अर्थ धर्म विरोधी न होकर अन्य पंथों के मामले में तटस्थता बरतने से था। साथ ही अन्य पंथ वाले को पराए पंथ की आलोचना अथवा घृणा से दूर रहने की नीयत उसमें निहित थी। लेकिन जब धर्म और प्रेस की आजादी का मिला-जुला स्वरूप सामने आता है तो इस मामले में धीरज हाथों से छूट जाता है। राजनीतिज्ञ अपना वोट बैंक बनाने और जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए धर्म की मनमानी व्याख्या करने लगते हैं। जब इस मामले में सीमाएं टूटती हैं तो फिर हिंसा का जन्म लेना स्वाभाविक हो जाता है। एक बात सर्वविदित है कि सभी पंथों की जननी एशिया महाद्वीप है, लेकिन विज्ञान और आधुनिकता का अधिकतम रिश्ता यूरोप से जुड़ा हुआ रहा है। दोनों क्षेत्रों में संतुलन बनाए रखना जब कठिन हो जाता है तो हिंसा का स्थान सर्वोपरि हो जाता है। एशिया पंथों की भूमि है लेकिन यूरोप विज्ञान की भूमि है। इसलिए जब किसी को सत्ता हड़पनी होती है तो वह इन दोनों के परे जाकर अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए हाथ पैर मारने लगता है। यहीं से संघर्ष प्रारम्भ होता है। आधुनिकता की व्याख्या से इस प्रकार के टकराव केवल अन्य पंथों से ही नहीं, बल्कि उनके अपने पंथ और सम्प्रदाय भी आपस में झगड़ते हंै और समय आने पर युद्ध के मैदान में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकते। इसलिए शिया सुन्नी टकराव तो इस्लाम के बहुत प्रारम्भ में ही शुरू हो गया था। यह टकराव खिलाफत को लेकर हुआ था। वहां से सुन्नी और शिया के रूप में मुसलमानों का बंटवारा होता चला गया। जब सत्ता मिलने लगी तो भी उनका यह बुखार नहीं उतरा बल्कि दिनों दिन बढ़ता चला गया। आज भी विश्व राजनीति में शियाओं का नेता ईरान है और सुन्नियों का सऊदी अरब। मामला शिया सुन्नी तक के विभाजन का होता तो यह मान लिया जाता कि अन्य पंथों की तरह यहां भी वैचारिक और व्यक्ति के आधार पर दो फाड़ हो गए। लेकिन इस्लाम तो इतने फिरके और पंथ में बंटा है कि सारी हदों को पार कर गया है। हर फिरके की अपनी सोच है जो कहीं न कहीं राजनीति से जुड़ी हुई है। अपने पंथ की हुकूमत कायम हो जाए बस यही उलझन बनी रहती है।
दुनिया का शायद ही कोई धर्म हो जिसका दो फाड़ हुआ हो लेकिन इस्लाम के पंथ तो इतनी बड़ी तादाद में हैं कि अब उनकी गिनती भी कठिन है। न जाने कौन सा मौलवी उठे और अपनी सनक के अनुसार फिर एक नया फिर्का बना ले। इसके पीछे मजहबी भावना कम और सत्ता हड़पने की भावना अधिक होती है। भले ही वह किसी देश या जमीन के भाग पर अपनी सल्तनत स्थापित न कर सके लेकिन व्यक्तियों के समूह पर तो अपने विचार लादकर अपने मन को शांत कर ही सकता है! इसलिए मामला राष्ट्रीय हो या अंतरराष्ट्रीय अथवा स्वयं इस्लाम के पंथ और सम्प्रदाय के बीच वह दो भागों में विचारधारा के नाम पर बहुत जल्द बंट जाता है। अधिक तादाद होने पर वह किसी देश की मांग करने लगता है। इसलिए धरती का बंटवारा जो राष्ट्रों के बीच में हुआ है, उन्हें तो येन-केन प्रकारेण अपने देश चाहिए जहां वे अपने नियमों और सिद्धांतों के आधार पर भौतिक सुखों का आनंद ले सकें। कहने को कहा जाता है कि दुनिया में 56 मुसलमान राष्ट्र हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि एक देश में जितनी विचारधारा के मुसलमान हैं वे अपनी सत्ता स्थापित करने की जुगाड़ लगाते रहते हैं। इसलिए इन देशों में मुसलमानों के अनेक गुट सत्ता हथियाने के लिए लड़ने और युद्ध करने के लिए, हमेशा तैयार रहते हैं। जिन देशों में उनकी संख्या कम होती है वे पहले तब्लीग और कन्वर्जन के नाम पर अपना संख्याबल बढ़ाते हैं। इस संख्या को बढ़ाने के लिए कन्वर्जन से लगाकर अधिक बच्चे पैदा करने की मुहिम चलाकर वे अपना संख्याबल बढ़ाते हैं और फिर कुछ ही वषार्ें में एक नए देश की मांग करने लगते हैं। एशिया को विजय कर लेने के बाद वे अफ्रीका की ओर बढ़े। अवसर मिला तो यूरोप में भी घुसे, लेकिन वे वहां के देशों को तोड़ नहीं सके। इसलिए यूरोप में ईसाई जनसंख्या अधिक रही। लेकिन मुसलमानों की इस मुहिम को किसी ने रोका है तो ईसाइयत इसमें सफल रही। पोप के नेतृत्व में ईसाई साम्राज्य कायम होते चले गए। इनमें कैथोलिक चर्च अग्रणी रहा। यूरोप में ईसाइयत का जोर अधिक रहा इसलिए ईसाई मुसलमानों पर हावी रहे। ईसाइयत भी कन्वर्जन में विश्वास रखती है रोमन कैथोलिक पोप एवं तत्कालीन ईसाई सत्ताधीशों ने कन्वर्जन एवं महायुद्धों में अपना वर्चस्व स्थापित कर इस्लाम को जनसंख्या के आधार पर द्वितीय स्थान पर पहुंचा दिया। आज इस्लाम परस्तों की यह लालसा है कि वे नम्बर एक पर पहंुच जाएं। इसलिए हर प्रकार का हथियार अपनाकर वे विश्व की राजनीति एवं प्राकृतिक स्रोतों पर अपना कब्जा जमाने का प्रयास करते हैं। इसलिए इस्रायल का मामला हो या फिर भारत में पंथ निरपेक्षता का सिद्धांत उनके गले नहीं उतरता और वे किसी न किसी बहाने युद्ध को निमंत्रण देते रहते हैं।
पिछले दिनों शार्ली एब्दो पर हमलाकर फ्रांस में अराजकता पैदा करने का भी मुख्य कारण यही था कि कहीं फ्रांस लीबिया पर पुन: अधिकार न जमा ले। फ्रांस में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या से इन आतंकवादियों के हौसले बुलंद हुए। इस बीच उन्हें मोहम्मद साहब पर कार्टून बनाने और छापने का बहाना मिल गया। इसलिए उन्होंने हमला करके यूरोप को यह संदेश दे दिया है कि इस्लाम के पुनरुज्जीवन का आंदोलन अब यूरोप में थमेगा नहीं। उन्हें विश्वास है कि इस प्रकार के हमलों से यूरोप भयभीत हो जाएगा। दक्षिण पूर्वी एशिया के देश जहां बहुत बड़ी गैर मुसलमानों की आबादी है उस जापान और चीन से लगाकर हिन्दुस्थान तक को तो जीतना कठिन है लेकिन यूरोप के इन छोटे देशों को एक करके वे इस्लाम का झंडा फहरा सकते हैं। इस्रायल की तरह वे अपनी ताकत का विस्तार एशिया में भी कर सकते हैं।
इस्रायलियों जैसा सफल कन्वर्जन वे नहीं करवा सके हैं। इसलिए केवल अराजकता फैलाकर अथवा सैनिक हमले करके ही वे ईसाइयत की कमर तोड़ सकते हैं। इसलिए फ्रांस पर जिस प्रकार का हमला हुआ उसी प्रकार के अन्य बहाने तलाश करके वहां भी मुस्लिम आतंकवादी अपना खेल- खेल सकते हैं। इसलिए फ्रांस जैसी घटना अन्य देशों में घटे तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह मुस्लिम कट्टरवादियों की बुनियादी रणनीति है जिस पर चलकर मुस्लिम जनता को युद्ध के लिए तैयार किया जा सकता है।
टिप्पणियाँ