भारतीय संस्कृति,धर्म और कला का संगम है गीता प्रेस का भव्य द्वार
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भारतीय संस्कृति,धर्म और कला का संगम है गीता प्रेस का भव्य द्वार

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Feb 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Feb 2015 12:55:35

गीता प्रेस के मुख्य द्वार को गीता कहा जाता है। गीता द्वार की रचना के प्रत्येक पाद में भारतीय संस्कृति, धर्म व कला की गरिमा को सन्निहित करने का प्रयास किया गया है। इस मुख्य द्वार के निर्माण में देश की गौरवमयी प्राचीन कलाओं तथा विख्यात प्राचीन मंदिरों से प्रेरणा ली गयी है और इनकी विभिन्न शैलियों का आंशिक रूप में दिग्दर्शन करने का प्रयास किया गया है। गीता प्रेस का प्रवेश द्वार भूमि से शिखर तक 13 मीटर 10 सेमी. ऊंचा है, इसकी चौड़ाई मुख्य द्वार के दोनों पादों में स्थित नव निर्मित भाग के अंतिम छोर तक 12 मीटर है। द्वार का मुख्य भाग तीन तल्लों का बना है ।
प्रवेश द्वार के सामने मुख करके खड़े होने पर आप उत्तर मुख खड़े होंे। ठीक सम्मुख द्वार को देखने पर पूरा द्वार तीन तल्लों का स्पष्ट रूप से दीखता हैं प्रथम खण्ड भूमि पर है, उसके दोनों ओर दोनों खंभे ध्यान देने योग्य हैं। ये खंभे दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध गुफा मंदिर एलोरा के खंभों की अनुकृति पर बने हैं। इसी खड़ के ऊपर प्रेस का नाम तथा स्थापना काल हिन्दी एवं अंग्रेजी में लिखा गया हैं प्रथम खण्ड के ऊपर दूसरा खंड है, जिसे द्वार का मुख्य खण्ड कहा जाता है, क्योंकि इसी खण्ड में संगमरमर का बना वह चार घोड़ों का रथ है जिस पर भगवान श्रीकृष्ण़्ा की प्रतिमा इस मुद्रा में बनी है। यह पूरा रथ लगभग 14 कुन्तल 40 किलोग्राम का है यह मूर्ति जयपुर से बनवायी गयी है और सुरक्षा की दृष्टि से इसे प्लास्टिक के पारदर्शी उज्ज्वल आवरण़्ा में रखा गया है, वह मंडलाकार है जिसके सम्मुख रथ स्थापित है। प्रसिद्ध गुहा-मंदिर अजंता के मुखभाग के आधार पर बनाया गया है। इस मंडल के दोनों ओर शिखरों से युक्त तीन-तीन खिड़कियों वाले छोटे-छोटे मंदिरों के दोनों ओर जो मंदिर के ढंग की छतरियां हैं उनमें कई मंदिरों की कलाओं का संकलन करने का प्रयास किया गया है। उनके शिखर पर त्रिशूल और ऊपर वाले कमल का मुख ऊपर और नीचे वाले कमल का मुख नीचे है, उनके संयोग से एक डमरू की आकृति बनती दिखाई पड़ती है। इस कमलाकार अंश के सहित उससे नीचे का पूरा भाग ब्रह्मा (बरमा) के किसी पैगोडा (उपासनागृह) का स्मरण दिलाता है। इन छतरियों के ऊपर चारों कोनों पर वृषभ मूर्तियां बनी हैं और उनके बीच-बीच में तीन-तीन फनों की नाना मूर्तियां हैं। इन छतरियों के नीचे उपनिषदों के दो वाक्य 'सत्यान्न प्रमदितव्यम्' एवं 'धर्मान्न प्रमदितव्यम्' अंकित है, उनके आधार रूप दोनों नासिकाओं (ब्राकटों) में तीन-तीन टोडि़यों की याद दिलाती है। मध्य खण्ड में जो किनारों पर दोनों ओर शिखर युक्त मंडप हैं, उनमें भी कई मंदिरों की कला एकत्र करने की कोशिश की गयी है। उनके ऊपर का चक्र केवल विष्णु मंदिरों के ऊपर का चक्र नहीं है, वह पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर के 'नील चक्र' का भी प्रतीक है। उसके नीचे जो कला युक्त तुंग शिखर हैं वे भुवनेश्वर के प्रख्यात कलापूर्ण मंदिर लिंगराज की स्मृति दिलाते है द्वार के तीसरे व अंतिम खंड में नीचे जनकपुर धाम के श्रीजानकी मंदिर की छतरियों के नमूने सी छतरी बनी है।
इनके दोनों ओर उपनिषद के दो और पवित्र वाक्य 'सत्यं वद्' एवं धर्म चर' लिखे हुए हैं। छतरी के अतिरिक्त सीढि़यों के आकार का शिखर भी कोणार्क के सूर्य मंदिर शैली का नमूना है। शिखर भाग के ऊपर मध्य में शीशे पर बना शक्ति का चित्र है और चित्र के दोनों ओर भगवान के आयुध बने हुए हैं। बायीं ओर सबसे पहले श्रीराम के आयुध धनुष एवं बाणयुक्त तुणीर, दूसरी ओर भगवान बालकृष्ण़्ा के आयुध मोर मुकुट, बांसुरी एवं बजारे की सींग, दाहिनी ओर पहले भगवान विष्णु के आयुध चक्र, शंख, चक्र एवं कमल तथा अंत में भगवान शंकर के आयुध त्रिशुल एवं डमरू बने हुए हैं। इसके ठीक ऊपर शिखर वाले भाग के मध्य भाग में भगवान नारायण की मूर्ति है। मूर्ति के नीचे उनका मंत्र 'नमो नाराय़णाय' अंकित हुआ है। शिखर भाग दक्षिण भारत में स्थित मुदुरै के मीनाक्षी मंदिर के शिखर की याद दिलाता है। शिखर के चारों ओर चार सिंह मुख निर्मित हैं द्वार के वाम पार्व (पूर्व दिशा में) स्थित मंडप में पुरी के जगन्नाथ मंदिर का नील चक्र है। मुख्य भाग में शिखर के नीचे सूर्य का चित्र है और उसके ऊपर भगवान शंकर की मूर्ति है। मूर्ति के नीचे उनका मंत्र 'नम: शिवाय' अंकित हुआ है। इस पार्श्व में दो उपनिषद वाक्य 'मातृदेवो भव' व 'पितृ देवो भव' अंकित हैं। द्वार के दक्षिण पार्श्व 'पश्चिम दिशा में' के दूसरे तल्ले में खिड़की है, यह अमृतसर के मनोहर सिख मंदिर 'स्वर्ण मंदिर' की खिड़कियों की अनुकृति है। द्वार के तीसरे खण्ड में शिखर के नीचे मंडप में चन्द्रमा का चित्र है।
उस मण्डप को खजुराहो के कलापूर्ण मंदिरों के कुछ अंशों से साम्य देने की चेष्टा की गयी है। इस मंडप के ऊपर मुख्य द्वार का शिखर भाग है जिसके मध्य में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की मूर्ति है एवं उसके नीचे उनका मंत्र 'रां रामाय नम:' उत्कीर्णित हुआ है। द्वार के भीतर जाकर द्वार की ओर मुख कर खड़े होकर द्वार की उत्तर दिशा को देखा जा सकता है द्वार की उत्तर दिशा में दूसरे तल्ले के निम्न भाग में एक घेरा दिखाई देता है जो पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं को घेरे हए हैं। यह घेरा सांची के प्रसिद्ध स्तूप के घेरे की शैली पर बना है इसके अलावा बीच-बीच में शंख युक्त चक्र भी बना दिये गये हैं। इस घेरे के ऊपर एक कलापूर्ण लहरदार तोरण़्ा (मेहराब) है, यह आबू में स्थित दिलवाड़ा मंदिर के भीतरी तोरण़्ा की कलापूर्ण शैली का आंशिक अनुकऱण है। उसके ऊपर जो एक द्वार बना है, उसपर एक धनुषाकार तोरण है तोरण पर तीन कंूरे बने हैं। इस प्रकार का कंूरेदार तोरण राजस्थान के छोटे मंदिरों के शिखरों की याद दिलाता है। इसी तोरणयुक्त द्वार के पार्श्व में एक ओर 'न मे भक्त: प्रणश्यंति' और दूसरी ओर 'मामेकंशरणं व्रज' ये दो श्रीमद्भगवदगीता के वाक्य लिखे हुए हैं। इसी दिशा में द्वार के तीसरे खण्ड में मध्य स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण़्ा का चित्र है, जिसके दोनों पाश्वार्ें में भक्ति के प्रतीक-पूजा के उपकरण बने हुए हैं। बायीं ओर हाथ में जपमाला, पुष्पांजलि समर्पण की आकृति, खुली हुई पुस्तक तथा उसके आधार रूप में कमल का पुष्प बना हुआ है। इसके पार्श्व में दीपक युक्त दीपाधार एवं धूप पात्र दिखायी देता है।
चित्र के दाहिनी ओर दाएं हाथ में आरती, बायें हाथ में घंटी, नीचे फलपू़र्ण नैवेद्य की थाली एवं थाली का आधार बना हुआ है। इनके पार्श्व में क्रमश: मृदंग तथा करतालों एवं मजीरों की जोड़ी बनी है। शिखर में नीचे गणेशजी की मूर्ति है। मूर्ति के नीचे उनका मंत्रा गं गणपतये नम:' अंकित है। इसके अलावा गीता द्वार में उज्जैन के महाकालेश्वर, उत्तराखण्ड के केदारनाथ तथा बुद्ध के प्राचीन मंदिरों की कला को भी स्थान देने का प्रयास किया गया है। ल्ल

दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण प्रकल्प
गीता प्रेस का एक बड़ा योगदान अनेक दुर्लभ पांडुलिपियों को संरक्षित करने का भी है। 1950 में भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 'कल्याण' के हिन्दू संस्कृति अंक में एक विज्ञापन निकाल कर देश भर के पाठकों से आग्रह किया की यदि उनके पास कोई दुर्लभ पाण्डुलिपि हो और वे उसका समुचित संरक्षण न कर पा रहे हों, तो उसे गीता प्रेस को भेज दें। जवाब में देश भर से अनेक योगदान आये। इस समय गीता प्रेस के पांडुलिपि प्रकल्प में 2580 दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं। इनमें से 7 ताड़ पात्र पर हैं और 300 के लगभग चमड़े की जिल्द वाली हैं। यहां सुनहरे बर्डर वाली 225 पृष्ठों की हस्तलिखित गीता पंचरत्न और 240 पृष्ठों वाला राजस्थानी शैली के अनेक रंगीन चित्रों से युक्त इसके गुटका संस्करण भी हैं।

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