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राम और कृष्ण सदैव भारतीय जनमानस की प्राणवायु रहे हैं। वे हिन्दू जीवन प्रणाली की अभिव्यक्ति हैं। रामायण भारतीयों का आदर्श है तथा महाभारत उनका यथार्थ। रामायण हमारे सामाजिक जीवन तथा सांस्कृतिक जीवन की विरासत है तथा महाभारत हमारे जीवन मूल्यों तथा राजनीतिक जीवन का दिग्दर्शन। रामायण हमारे व्यक्तिगत जीवनादर्शों का प्रतिबिम्ब है, महाभारत हमारे देश के राष्ट्रीय तथा सामूहिक जीवन की गाथा है। राम के बिना भारत के लिए विश्व को देने के लिए कोई सन्देश नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम भारतीय जन-जीवन की संजीवनी बूटी हैं। राम भारत के प्रतिनिधि पुरुष तथा भारतीय जीवनधारा का एक विशिष्ट अंग हैं।
राष्ट्रीय नेताओं के राम
महात्मा गांधी का कथन है कि रामायण तथा भगवद्गीता से अपरिचित हिन्दू आगे चलकर एक प्रौढ़ तथा आस्थावान नागरिक नहीं बन सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने लिखा 'जिस चीज ने मेरे दिल पर गहरा असर डाला था वह था रामायण का परायण' (देखें महात्मा गांधी 'आत्मकथा' अध्याय दस) रामराज्य का आदर्श ही है हिन्दू-मुसलमान तथा राष्ट्रीयता का आधार। स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी ने लिखा, राम के बिना हिन्दू धर्म को समझा नहीं जा सकता। (देखें, उनकी रामायण, 1957 की भूमिका) फिर अगले संस्करण में लिखा, रामायण तथा महाभारत हमारे पूर्वजों के मस्तिष्क तथा आत्मा का विवरण हैं। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने एक अक्तूबर 1960 को कहा, राम जैसा मर्यादित जीवन कहीं, न इतिहास में, न कल्पना में है। (अवधूत लोहिया, पृ. 338) उन्होंने चित्रकूट में प्रथम अन्तरराष्ट्रीय रामायण मेले की नींव स्थापित की थी। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि इस देश की पहचान राम से है बाबर से नहीं। पूर्व शिक्षामंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने रामायण को राष्ट्र का हृदय स्पन्दन कहा है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर से लेकर अनेक प्रबुद्ध भारतीय साहित्यकारों ने राम को अपना आराध्य, प्रेरणा पुरुष, शास्नो पुंज तथा जीवन दृष्टि देयता माना है।
विश्व में राम
राष्ट्रपुरुष राम तथा राम कवि विश्वव्यापी हैं। देश-विदेश में उनके जीवन पर सैकड़ों ग्रंथ हैं, लाखों व्यक्ति उनका नित्य अध्ययन, श्रवण तथा मनन करते हैं। रामायण हजारों वर्षों से प्रचलित है। राम कथा अब विश्व की सम्पत्ति है। विद्वान उसे एशिया के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों में मानते हैं। विश्व में भारत के प्रचार का कारण, मूलत: सांस्कृतिक आदान प्रदान रहा, न कि आर्थिक अथवा राजनीतिक प्रभुत्व। भारत की वाल्मीकि रामायण तथा तुलसीकृत रामचरितमानस विश्व में सुन्दरतम उपहार बने। राष्ट्रपुरुष राम न केवल अयोध्या अथवा भारत के बल्कि विश्व के करोड़ों मानवीय भावनाओं के प्रतीक बन गये। विश्व में राम का प्रचार उनकी विश्वव्यापी लोकप्रियता का स्वर्णिम अध्याय है। अनेक देशों मे ंराम का जीवन प्रेरणा का केन्द्र बना है। उदाहरणत: थाइलैण्ड में सैकड़ों मुद्रा पत्रों तथा डाक टिकटों पर राम की मूर्ति, वहां की प्राचीन राजधानी का नाम अयोध्या तथा राजाओं की सर्वोच्च उपाधि राम रही है। इण्डोनेशिया में रामलीला राष्ट्र का महोत्सव है। लाओस में राम की धूम है। कम्बोडिया में अंगकोरवाट में राम के भित्ति चित्र मुख्य आकर्षण का हेतु हैं। राम कथा म्यांमार, मंचूरिया मलेशिया जापान में प्रचलित है। फीजी, मारीशस, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद के लोग राम के आदर्श जीवन से भलीभांति परिचित हैं। इतना ही नहीं रूस तथा चीन में रामायण तथा रामचरितमानस के अनुवाद हुए। अमरीका में आज रामायण बैले होते हैं। गत 1984-2010 के बीच विश्व में 25 अन्तरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन हुए हैं।
विकृत मस्तिष्क के राम
उल्लेखनीय है कि भारत की स्वतंत्रता के पश्चात तेलंगाना हिंसात्मक विद्रोह की असफलता के पश्चात पाकिस्तान की मांग के समर्थक, भारतीय कम्युनिस्टों ने अपना पुराना चोला बदला। धर्म, ईश्वर, आत्मा में अविश्वास रखने वाले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने भी, गांधी जी की छाया हटते ही समाजवादी समाज को अपना लक्ष्य बताया। भारत के कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने संस्कृति विरोधी तथा हिन्दू विरोधी लेखन का बीड़ा उठाया। प्रत्यक्ष रूप से शब्दावली पंडित नेहरू की ही अपनाई जैसे पाश्चात्य ढंग की धम र्िनरपेक्षता की वकालत, हिन्दू को साम्प्रदायिक बताना, मिलीजुली संस्कृति का प्रचार तथा भारत का प्राचीन संस्कृति से नाता तोड़ना आदि। परन्तु मूल रूप से मार्क्सवाद के सिद्धांतों को भारतीय इतिहास के ढांचे में फिट करने का पूरा, पर असफल प्रयास किया गया गया। भारतीय संस्कृति, धर्म तथा दर्शन की विकृत व्याख्या, तथ्यहीन इतिहास को भविष्य के अनुरूप गढ़ना तथा भारत के महान पुरुषों का चरित्र हनन करना उनकी स्वाभाविक योजना का अंग रहा है। यदि केवल राष्ट्रपुरुष राम के जीवन को देखें, तो उनकी घिनौनी तथा संकीर्ण मानसिकता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।
1960 के दशक से ही इन पूर्वाग्रहों से ग्रसित एनसीईआरटी की इतिहास संबंधी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से राष्ट्र पुरुष राम के जीवन को काल्पनिक, तथ्यहीन बताया गया तथा रामायण को एक महाकाव्य मात्र बताया गया। रोमिला थापर तथा सतीशचन्द्र ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से बालकों के कोमल मस्तिष्क को विकृत करने की प्रक्रिया शुरू की। 1966 में रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक में लिखा कि राम एक काल्पनिक तथा गैर-ऐतिहासिक व्यक्ति था। अयोध्या नाम की किसी नगरी का अस्तित्व था ही नहीं। रामायण केवल एक महाकाव्य है। (देखें रोमिला थापर, ए हिस्ट्री आफ इंडिया, भाग एक पृ. 28,30, 181) कांग्रेस शासन के सक्रिय सहयोग से 1969-1999 तक अर्थात आगामी तीस वर्षों तक भारत के बालकों को ये पुस्तकें विकृत
करती रहीं।
1973 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपनी राजसत्ता बनाये रखने के लिए इन कम्युनिस्ट इतिहासकारों से हाथ मिलाया। परिणाम आइसीएचआर का गठन हुआ। जाने माने कम्युनिस्ट इतिहासकारों को योजनापूर्वक प्रमुख स्थान दिया गया। राष्ट्रवादी भारतीय चिंतकों को हटा दिया गया। भारत में जब रामजन्मभूमि मंदिर- बाबरी मस्जिद ढांचे का विवाद बढ़ा तो भारतीय कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने प्रामाणिक ऐतिहासिक तथा साहित्यक साधनों को धत्ता बताकर तथा मनगढ़ंत पुरातत्व साधनों के आधार पर इसके विरुद्ध देशव्यापी वातावरण बनाने में कोई
कसर न रखी।
कम्युनिस्ट इतिहासकारों को पहला झटका तब लगा जब जनवरी 1987 में रामायण नामक रामानन्द सागर का टीवी धारावाहिक प्रत्येक रविवार को दिखाया जाने लगा। इसे भारत में रिक्शाचालक, मजदूर, किसान, सामान्य कर्मचारी से लेकर प्रत्येक वर्ग के लगभग आठ करोड़ व्यक्तियों ने बड़े चाव तथा भावपूर्ण श्रद्धा से देखा। स्वयं अपने को विख्यात इतिहासकार कहने वाले कम्युनिस्टों को अपनी जमीन खिसकती दिखने लगी। अपनी इस निराशा को स्वयं रोमिला थापर तथा अमरीकी लेखिका पाउला रिचमैन ने स्वीकार किया है। देशभर में तथा बाहर बाल्मीकि रामायण तथा तुलसीदास की रामचरितमानस के प्रतिकूल वातावरण बनाने का योजनापूर्वक प्रयास किया गया। विरोधी लेखकों से संबंध जोड़े। इसी बीच 1989 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दिग्गज इतिहासकारों ने इतिहास का बयान नाम से एक देशव्यापी फतवा जारी किया। (देखें, इतिहास का बयान, अक्तूबर-नवम्बर 1989, असली भारत, पृ. 42,43 व 96) इसमें कहा गया है कि राम कोई ऐतिहासिक पुरुष नहीं है और न ही पहले कोई अयोध्या थी। यदि थी भी तो वह सरयू के किनारे नहीं बल्कि गंगा के किनारे थी। रामायण मात्र महाकाव्य है। रामायण को महाभारत के बाद बताया तथा इसका काल आठवीं शताब्दी ई. पूर्व के आसपास बतलाया। कम्युनिस्ट इतिहासकारों के विश्वव्यापी प्रयास चलते रहे। परिणामत: 1991 में पाउला रिचमैन ने ऑक्सफोर्ड प्रेस से एक पुस्तक मैनी रामायन्स: द डायनेस्टी आफ ए नरेटिव ट्रेडीशन इन साउथ एशिया तथा 2000 में एक दूसरी पुस्तक क्वसिनिंग रामायण: ए साउथ इंडियन ट्रेडीशन लिखी। दोनों का प्राक्कथन रोमिला थापर ने लिखा। दोनों में वाल्मीकि रामायण तथा तुलसी कृत रामचरितमानस पर बेबुनियाद तथा तर्कहीन आक्षेप लगाये। इसी बीच 1993 में कम्युनिस्ट इतिहासकारों के सहयोग से अयोध्या के सांस्कृतिक इतिहास नामक विषय पर प्रदर्शनी की। जनमानस ने इसे अस्वीकार ही नहीं किया बल्कि नष्ट कर दिया।
1999-2004 के दौरान श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में आने से एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में परिवर्तन हुए। कम्युनिस्ट इतिहासकार उबल पड़े। एक ने यहां तक कहा जब हमने पूरी तरह सत्य इतिहास लिख दिया था, इसे क्यों हटाया गया? शिक्षामंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी पर मनमाने आरोप लगाये गए।
अक्तूबर 2008 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की बीए आनर्स इतिहास की पुस्तक में रामानुजन का बेतुका लेख 'थ्री इण्डेड रामायण' हटाया गया तो पुन: कम्युनिस्ट छात्रों ने जेएनयू तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में भौंडे प्रदर्शन किये। हाय तौबा मचाई। कांग्रेस शासन भी उन्हें बचा न सका। इसी काल में 2009 में शिकागो की एक प्रोफेसर वेडी डोनियर ने एक पुस्तक द हिन्दुत्व: ऐन आल्टरनेटिव हिस्ट्री लिखी। उसने भी राष्ट्रपुरुष राम पर आधारहीन कल्पनाओं का सहारा लिया। उसने स्वयं माना कि जब लन्दन में रामायण पर उसका भाषण हुआ तो श्रोताओं ने उस पर अण्डे फेंके तथा इण्टरनेट पर गालियां दीं। कम्युनिस्ट इतिहासकारों के लिए सबसे बड़ा झटका तब लगा जब अगस्त 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय ने राष्ट्रपुरुष की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया। न्यायालय ने अपना निर्णय 10-11 हजार पृष्ठों में लगभग 500 कानून की पुस्तकों के अध्ययन के बाद दिया। इन इतिहासकारों ने अकबर के बाद के सभी ब्रिटिश साक्ष्यों को नकार दिया था।
इसके साथ वेडी डोनिंगर की पुस्तक पर उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने पर शिक्षाविद् दीनानाथ बतरा को भी अपशब्द कहने प्रारंभ कर दिये। (देखें, रोमिला थापर का तृतीय निखिल चक्रवर्ती स्मारक भाषण) संभवत: वे सब जानते हैं, सिवाय हिन्दू के। अच्छा होगा इसका वे पुन: अध्ययन करके भारत के राष्ट्रपुरुष राम का, सही रूप जो प्रजापालक, सर्वहितैषी में है, उन्हें विश्व शांति तथा कल्याण के मार्गदर्शक के रूप में अपनाएं। भारत का सांस्कृतिक विभाग विश्व में रामायण के एक सांस्कृतिक राष्ट्रमंडल की स्थापना करे तथा रामायण के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान हों, निश्चय अन्तरराष्ट्रीय शांति, सहयोग तथा जनकल्याण होगा। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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