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प्रो. योगेश चन्द्र शर्म
होली के अवसर पर मथुरा वृन्दावन के मन्दिरों में गाए जाने वाले सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में एक गीत इस प्रकार है:-
राग रंग गहगड़ मच्यौ री, नन्दराय दरबार।
गाय खेलि हंसि लीजिए, फाग बड़ौ त्योहार।।
तिन में मोहन अति बने, नाचत हैं सब ग्वाल।
बाजे बहुविधि बाजहीं, रुंज- मुरज-ढफ-ताल।।
मुरली मुकुट विराजहीं, कटि, पर बांधै पीत।
नृत्यत आवत 'ताज' के, प्रभु गावत होरी गीत।।
इस गीत को गाने वालों में शायद बहुत कम लोग इस तथ्य पर ध्यान दे पाते हैं कि होली के इस लोकप्रिय गीत की रचयिता बेगम 'ताज' एक मुसलमान महिला थीं, जो वाजिद अली शाह (बाज बहादुर) की समकालीन थीं तथा जिन्हें 'मुस्लिम मीरा' के नाम से जाना जाता है।
होली की मस्ती के दीवाने हमारे यहां हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी बहुतायत में रहे हैं। अनेक मुसलमान शायरों ने होली की रंगीनियों में डूबकर अपनी रचनाएं लिखी हैं, जो हमारे मन्दिरों में तथा गली चौराहों में आज भी बड़े प्रेम से गायी जाती हैं। शाह आलम की कलम का यह चमत्कार होली का कितना आकर्षक चित्र प्रस्तुत करता है-
नार नवेली की हाथ भली
अब रंग भरी पिचकार सुहाई,
खेलत हैं सब रंग भरी
कहा आपस में करके चतुराई।
रीझ रहीं तबही सुनके
जब बांसरी कान कन्हैया बजाई,
देखत लाल को फाग खयाल को
बाल अबीर, गुलाल भर-भर झोरियां
और केसर रंग लिए पिचकारियां
सब मिल करि हैं किलोल नारियां
एक-एक अंग संग दे दे तारियां
श्याम कन्हैया ने बांह गही
तब भूल गईं सब खेलन हारियां।।
प्रियतम के स्पर्श के उपरान्त प्रियतमा को और कुछ याद रह भी कैसे सकता है? कितना सरस और मनोवैज्ञानिक वर्णन है। होली के मद भरे माहौल में वैसे भी किसका मन वश में रह पाता है। इस वातावरण में तो अपनी सहज सुलभ लज्जा को भी नारी संभाल नहीं पाती। इसी स्थिति का सरस वर्णन प्रसिद्ध मुसलमान शायर रसखान ने इन शब्दों में किया:-
फागुन लाग्यो सखी जबतैं
तब तैं ब्रज मंडल धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नहीं एक
विसेष इहैं सबै प्रेम अंच्यौ है।
को सजनी निलजी न भई
अस कौन भटु जिहिं मन बच्यौ है।।
होली के मौसम में युवक और युवतियां कितने मतवाले हो जाते हैं, इसका बड़ा सरस वर्णन 'रसखान' के ही शब्दों में इस प्रकार है-
आवत लाल गुलाल लिए
मग सूने मिली एक नारि नबीनी
त्यों रसखानि लगाई हिए पटु
मौज कियो मनमांह अधीनी
सारी फटी सुकुमारि हटी
आंखियां दरकी सरकी रस भीनी
लाल गुलाल लगाइ लगाइके
अंग रिझाई बिदा करि दीनी।
होली का मजा तब हैै, जब प्रियतम साथ हो। जिसके पति परदेश में हों, उसकी होली तो पति की प्रतीक्षा में कौवे उड़ाते-उड़ाते ही बीत जाएगी। ऐसी ही नायिका को संकेत करते हुए अब्दुर्रहीम ने लिखा-
लोग लुगाई हिलमिल खेलत फाग।
पर्यो उड़ावन मोकों सब दिन काग
विरह पीडि़त नायिका की होली का वर्णन मुस्लिम सन्त कवि मौजुद्दीन ने भी इन पंक्तियों में बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है-
फागुन आयो झांझ ढफ बाजै,
भीर भई अति भारी।
मोहि तो आस तिहारे मिलन की,
भूल गई सुध सारी।
मोहि गुलाल लाल बिन तोरे,
भई है रैन अंधियारी।
अंसुवन को अब रंग बनौ है,
नैन बने पिचकारी।
वृन्दावन को अब रंग बनौ है,
नौ बने पिचकारी।
दे हो दरस मोहि अपनी 'मौज' से,
हे प्रभु कृष्ण मुरारी।
पिया मोहि आस तिहारी।
संगीत सम्राट तानसेन यदा-कदा स्वयं गीत लिखते भी थे। उनके इस कवि स्वरूप से होली कैसे बच पाती? अपने स्वामी बादशाह जलालुद्दीन अकबर का सन्दर्भ देकर उन्होंने लिखा-
होली खेले ई बनेगी, रूसैं अब नै बनेगी।
मेरो कहो तू मान नवेली, जब जा रंग सनेगी।
नाही मानत ऊंची करि ठोड़ी, भौंहें तनेंगी।
साहि जलालुद्दीन फगुआ दीजै,
आपु तैं आपु मनेगी।।
मुगल सम्राट शाह आलम सानी भी मुस्लिम शायरों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। होली की मस्ती भरी भावनाओं में भरकर उन्होंने भी लोगों का पुरजोर ढंग से आह्वान किया-
मुहैया सब है असबाब उठाओ
यारों भरो रंग से झोली।
गुलाल अबीब से भर के ढोली
पुकारो यक ब यक होली है, होली।।
प्रसिद्ध शायर नजीर ने होली का वर्णन सीधेसादे मगर प्रभावशाली शब्दों में इस प्रकार किया-
नजीर होली का मौसम जो जग में आता है,
वह ऐसा कौन है, जो होली नहीं मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है, कोई गाता है,
जो खाली रहता है, वह देखने को जाता है।
नजीर अकबराबादी के ही शब्दों में होली का यह चित्र भी कितना सटीक और मोहक है-
बाजार गली और कूचों में,
गुल शोर मचाया होली ने।
या स्वांग कहूं या रंग कहूं,
या हुस्न बताऊं होली का।
हर आन खुशी में आपस में,
सब हंस हंस रंग छिड़कते हैं।
रुखसार गुलालों से गुलगूं,
कपड़ों से रंग टपकते हैं।
अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर भी बहुत अच्छे शायर थे। वे सभी मुस्लिम त्योहारों के साथ हिन्दू त्यौहारों में भी बड़ी रुचि के साथ भाग लेते थे। अन्य साहित्यकारों के समान उन्हें भी मस्ती भरा होली पर्व विशेष प्रिय था। उन्होंने देश की दुरावस्था को होली के पर्व के साथ जोड़ते हुए लिखा-
हिन्द में कैसी फाग मच्यो री जोराजोरी
केसर का तख्त हिन्द बना था,
केसर की सी क्यारी,
कैसो फूटो भाग्य हमारे,
लुट गयी जान हमारी।
गोलन के गुलाल बनायो,
तोपन की पिचकारी
उड़ेरी, हमारो मुख पर,
ऐसी तक तक मारी।
आधुनिक युग में अन्य साहित्यकारों के समान ऊर्दू शायरों ने भी होली को प्रेम और भाईचारे की भावना से देखा। हसरत रिसालपुरी के इस गीत में यही भावना उजागर होती है-
मुख पर लाल गुलाल लगाओ।
नैन को नैनों से मिलाओ।।
बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ।
सबको आत्मज्ञान सिखलाओ।।
प्यार की बोलें बोली।
हौले हौले खेलें होली।।
निरन्तर बढ़ती महंगाई और कठिन हो रहे जीवन से होली भी अछूती नहीं रही। शायद अहमद अली शौक ने अपनी इन पंक्तियों में इसी तथ्य को उजागर किया है-
न पूरी कचौरी, न आलू न अरबी
दुहाई है होली, दुहाई है होली।
ये अफलास देखो, ये टैक्स और महंगाई
ये क्यों आई है बौखलाई सी होली।।
इनके अतिरिक्त भी रंगरेजिन शेख सआदत खां 'रंगीन', फायज देहलवी, हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, नदीम मुरादाबादी तथा जैदा आदि मुस्लिम शायर और शायराओं ने होली के मस्ती भरे पर्व की प्रशंसा में अनेक रचनाएं लिखीं। इन शायर-शायराओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि हास-विलास का यह पर्व केवल हिन्दुओं तक सीमित नहीं है, अपितु यह एक राष्ट्रीय पर्व है, जिसमें सभी देशवासियों को आगे बढ़कर सक्रियता से भाग लेना चाहिए। ल्ल
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