संस्कृति सत्य - डर्बन परिषद और भारत को फिर से गुलाम बनाने की उम्मीदें पाले यूरोपीय देश
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संस्कृति सत्य – डर्बन परिषद और भारत को फिर से गुलाम बनाने की उम्मीदें पाले यूरोपीय देश

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Feb 16, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Feb 2015 14:28:20

ब्रिटिश शासकों का भारत में कार्यकाल देखा जाए तो मुख्य रूप उनकी नीति रही थी-बांटो और राज करो। एक राजा को दूसरे राजा के विरोध में खड़ा करना एवं दोनों राजाओं से कर वसूली करना, यही उनका काम था। ऐसा नहीं था कि उनकी यह 'डिवाइड एण्ड रूल पॉलिसी' केवल भारत तक सीमित थी और केवल ब्रिटिश ही इसे अपनाए हुए थे। असल में विश्व के 125-150 देशों पर राज करने वाले सभी यूरोपीय देशों की दीर्घकालीन कार्यपद्धति यही थी। यह आज स्वतंत्रता प्राप्ति के अनेक दशकों बाद स्पष्ट हो रहा है। वास्तव में यह नीति केवल 'डिवाइड एण्ड रूल' नहीं थी बल्कि यह 'डिवाइड, रूल एण्ड लूट' नीति थी। लूट यानी विश्व में बड़े पैमाने पर लगातार साधन-संसाधनों को लूटना ही उनका उद्देश्य था। उनकी यह नीति साफ दिखने पर भी उन 125 देशों में से कोई भी देश संगठित रूप से उनका प्रतिकार नहीं कर सका। इसका कारण था, छोटे-छोटे गुटों से लेकर बड़े देशों तक हर एक घटक को उन्होंने आपस में लड़ाए रखा था।
1950 के पूर्व पांच वषार्ें और बाद के पांच वषार्ेंं में उपरोक्त में से बहुतांश देशों में स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया जारी थी, लेकिन उन 'यूरोसेंट्रिक' महासत्ताओं का प्रतिकार कोई नहीं कर सका। जो कुछ प्रयोग हुए भी तो वे सीमित साबित हुए। दूसरी तरफ 'यूरोसेंट्रिक' विश्व यानी यूरोपीय देश, वहां के चर्च संगठन, ब्रिटेन जैसी किसी समय की महासत्ता और मुख्यत: अमरीका द्वारा विश्व में 'डिवाइड, रूल एंड लूट' के प्रयोग जारी रहे। 200 से लेकर 400 वर्ष तक यूरोपीय वर्चस्व के अधीन रहे इन देशों की स्थिति इतनी दयनीय हो गई थी कि माना यूरोपीय देशों के उस नाटक में सहभागी होने में ही भला उन्होंने आज 60-70 वर्षों बाद परिस्थिति काफी बदल चुकी है, फिर भी 'यूरोसेंट्रिक' महासत्ताओं के प्रयोग जारी हैं। इनमें चर्च संगठनों के प्रयोग अन्य देशों की तरह राजनैतिक न होते हुए भी 'यूरोसेंट्रिक' राजनीति को पूरी ताकत से मदद करने वाले साबित हुए हैं।
डर्बन में सन् 2001 में हुई संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद इस दृष्टि से ऐसा उदाहरण है जिसका अध्ययन किया जाना चाहिए। यह परिषद 'विश्व में नस्लीय-विद्वेष, नस्लीय भेदभाव और असहिष्णुता' विषय पर थी। लेकिन इस परिषद में भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास किया गया। भारत को 'विश्व में वर्ण एवं नस्ल-विद्वेष के सबसे बड़े स्रोत' के रूप में पेश किया गया एवं भारत के बारे मेंे ऐसा बताया गया मानो 'यह देश एक देश के तौर पर बने रहने लायक नहीं है'।
इस परिषद के आधार पर अगले दस वर्षों के लिए उन्होंने जो कार्यक्रम बनाया, उससे उनका यही उद्देश्य स्पष्ट होता है। डर्बन परिषद में भारत के संदर्भ में 'वंचितों' से जुडे़ विषय एवं 'द्रविड़' विषय रखे गए। उस समय भारत सरकार एकदम अडिग रही, लेकिन बाद के 10 वषार्ें में इस विषय को वैश्विक रूप दिया गया, जिससे भारत को विश्व में सबसे बदनाम देश के तौर पर देखा जाए। यही उसके पीछे की सोच थी। आज भी ये वैश्विक संगठन अनेक देशों को बदनाम बताकर प्रचारित करते हैं। इसके कारण उन देशों के सामने अपनी साख बचाना मुश्किल हो जाता है। ऐसा काफी देखने में आया है। भारत की भी ऐसी ही स्थिति बनाने का उनका इरादा था।
इस विषय की एक और पृष्ठभूमि थी। उस समय यानी 2001 में भारत में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी। उस समय भी ऐसा लगने लगा था कि अब कांग्रेस समाप्ति की ओर है इसलिए श्री वाजपेयी जिन विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे, आगे उन्हीं का प्रभाव रहेगा। उस संभावना को समाप्त करने के लिए और भारत अपने भविष्य के बारे में ऊंचा न सोच सके, इसके लिए वह सब षड्यंत्र रचा गया था। आज यह बात पूरी तरह सामने आ गई है। उन षड्यंत्रों की असलियत समझ आने की वजह से ही आज उस विचारधारा की फिर से सरकार बनी है जिस पर श्री वाजपेयी चलते थे। इस सरकार के भी कुछ दीर्घकालीन कार्यक्रम दिख रहे हैं। ऐसे में 'यूरोसेंट्रिक' विश्व फिर से वैसे ही कोई संयुक्त या स्वतंत्र प्रयास कर सकता है, जिनसे सचेत रहना स्वाभाविक है। यह विषय सामने रखने के लिए 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक के दोनों लेखकों ने जो परिश्रम किया है, वह प्रशंसनीय है। विश्व की महासत्ताएं अपना अपना सामर्थ्य बनाए रखने के लिए किस हद तक जाकर कौन सी नीतियां सामने रखती हैं, इससे उनकी सोच स्पष्ट होती है। किसी बड़े देश के वार्षिक बजट के बराबर बजट तो महासत्ताओं की हजारों में से किसी एक छोटी सी कंपनी का होता है। सतत बढ़ते रहने के अपने उद्देश्य के लिए वे तीसरी दुनिया के देशों यानी 60-70 वर्र्ष पूर्व स्वतंत्र हुए देशों को किस तरह खिलौने की तरह देखते हैं, इसका उदाहरण डर्बन परिषद से साफ झलकता है। डर्बन परिषद को सामने रखकर द्रविड़ एवं वंचित विषयों को एक-दो वर्ष पहले किस कदर आगे बढ़ाया गया, उस पर गौर करना चाहिए। ये दोनों ही विषय बड़े मामूली ढंग से और मामूली स्तर पर शुरू किए गए। लेकिन ये इस तरह रचे गए थे कि वैश्विक स्तर पर उछाले जा सकें एवं इनके आधार पर भारत को कठोर पाबंदियों का सामना करना पड़े।
द्रविड़ विषय के पीछे अंतरराष्ट्रीय स्तर के तीन संगठन जुटाए गए थे। इनमें यूरोप एवं अमरीका के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के दक्षिण एशिया अध्ययन विभागों का समावेश था। वंचित विषय के लिए भी लूथेरन वर्ल्ड फेडरेशन, जिनेवा, वर्ल्ड काउंसिल ऑफ चर्चेस और ग्लोबल मिशन ऑफ इवांजेलिकल लूथेरन चर्च, अमरीका को पूरी तैयारी करने के लिए कहा गया था। जिस तरह से उन्होंने इसकी तैयारी की, उससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला गया बल्कि जब सन् 2010 में उसका परिणाम खोजने की बारी आई तब जाकर वह स्पष्ट हुआ। सन् 1998 में 'दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क' नामक संस्था स्थापित की गई थी। उसी से सन् 2000 में 'इंटरनेशनल दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क' संस्था निकली एवं उसका मुख्यालय डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में रखा गया। उसी समय तमिलनाडु में द्रविड़ विषय पर सन् 2000 में इंडियन इंस्टीट्यूट की ओर से 'द्रविड़ पंथ जात-पात नष्ट कर सकता है' विषय पर एक छोटा सा सेमिनार आयोजित किया गया। उसकी भी सारी तैयारी डर्बन परिषद में ही की गई थी। वास्तव में यूरोपीय देशों की उनके पूर्व गुलाम देशों को लेकर बनाई गई नीति के बारे में आज भी अनेक विश्वविद्यालयों में अध्ययन शुरू करने की जरूरत है। '19वीं सदी के यूरोप का इतिहास ही विश्व का इतिहास है', यह बात विश्व पर थोपने के लिए यूरोपीय देशों ने विश्व के 300-400 से अधिक विश्वविद्यालयों में अध्ययन शुरू किए। ऐसे में, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन देशों में ब्रिटिशों एवं अन्य यूरोपीय आक्रामकों ने 'पुन: लौटने के लिए' कौन सी नीतियां जारी रखी हैं, इसका अध्ययन होना जरूरी है। अन्य छोटे-छोटे देशों की तो छोडि़ए, भारत में भी इस दिशा में कुछ खास प्रयास होते हुए नहीं दिखते। यूरोपीय लोगों द्वारा 'भारत में लौटने के प्रयासों' की दृष्टि से डर्बन परिषद अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें चर्च, ब्रिटिश सरकार, अमरीका और अन्य यूरोपीय देश संगठित रूप से काम कर रहे थे। इस परिषद में उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। लेकिन फिर भी उन्होंने उसी के आधार पर पूरे विश्व में सैकड़ों स्थानों पर यह विषय रखना शुरू किया। इसमें गौर करने की बात यह है कि वास्तविक वंचित आंदोलन अथवा द्रविड़ आंदोलन का कोई प्रतिनिधि उन सेमिनारों में शामिल नहीं था। जो थे वे चर्च संगठनों के कार्यकर्ता थे। उसी के लिए 'नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स' जैसे संगठन बनाए गए। 'इंटरनेशनल दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क' का नियंत्रक पॉल दिवाकर ही इस दूसरे संगठन का आमंत्रक था। उसी तरह जेसुइट सेमिनरी से तैयार हुआ मार्टिन उनका सह-आमंत्रक था। मार्टिन का वैसे तो गुजरात में वंचितों के लिए काम करने वाला एक संगठन था। लेकिन वहां उसकी छवि यानी 'काम कम और राजनीति अधिक' की ही थी। सन् 2003 में उसने नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका में वंचितों के संदर्भ में एक आलेख लिखा था। तबसे उसकी छवि 'डा़ अंबेडकर के बाद वंचितों के लिए अधिक प्रभावी काम करने वाले' इंसान की बनाई गई थी। 'भारत में वंचितों पर अत्याचार होते हैं', इस तरह की मार्टिन की एक रपट के हवाले से पूरी दुनिया में शाखाओं वाले क्रोक इंस्टीट्यूट-नोटरेडेम संगठन ने यह मुद्दा उठाया। उसके द्वारा वह विषय अंतरराष्ट्रीय बनाया गया। विश्व के अनेक रेडियो स्टेशनों और टीवी चैनलों ने यह विषय उठाया। उसमें पॉल दिवाकर ने मांग की कि वर्ल्ड बैंक जैसे विश्व के बहुराष्ट्रीय संगठनों को यह विषय उठाना चाहिए, इसी के लिए हमारा सारा प्रयास है।
इसमें गौर करने की बात यही है कि श्री वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में ये संगठन इतने आक्रामक थे तो आज जब विश्व के अनेक देश भारत की तारीफें करने में लगे हैं, ऐसे में उनके पिछले इतिहास को नजरअंदाज करना सही नहीं होगा। भारत में आज केन्द्र में यूरोपीय देशों द्वारा भारत में अलगाववाद पैदा करने की कोशिशों का विरोध करने वाली बहुमत प्राप्त सरकार है। ऐसे में जहां तमाम देश भारत की तारीफें कर रहे हैं तो हमारा ध्यान इस पर भी रहना चाहिए कि कहीं इसके पीछे उनकी कोई और मंशा तो नहीं है! यूरोपीय देशों ने आज तक तीसरी दुनिया के गरीब देशों की कोई भी समस्या नहीं सुलझाई है, बल्कि उस समस्या की राजनीति करते हुए उन देशों में विभाजन के बीज बोने को लेकर ही विचार किया है। इस दृष्टि से भी डर्बन परिषद का अध्ययन करना जरूरी है। -मोरेश्वर जोशी

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