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आज से ढाई दशक पहले भारत में 'धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता' पर बहस शुरू हुई थी। इस बहस में एक तरफ वे लोग थे जिन्हें वास्तव में किसी वाद से कोई विशेष मतलब नहीं था, लेकिन उनकी तुष्टीकरण और सामाजिक विभाजन की राजनीति का हित साधने के लिए उन्हें 'सेकुलरिज्म' का पश्चिमी सिद्धांत ठीक जान पड़ता था। हालांकि उन्होंने इस बात का भी कभी उत्तर नहीं दिया था कि जब मूल संविधान में संविधान-निर्माताओं को पंथनिरपेक्ष शब्द स्वीकार्य और पर्याप्त सामर्थ्यवान लगा था तो फिर उन्होंने उसको विकृत करके 'धर्मनिरपेक्ष' क्यों बना दिया था। क्योंकि सनातन काल से भारत में धर्म का अर्थ अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति को भी स्पष्ट थ। और वह था अपने स्वभाव और परिस्थितियों के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन। आप किसी दूरदराज गांव के किसी व्यक्ति से पूछ सकते थे कि पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, शिक्षक का धर्म, राजा का धर्म आदि का क्या मतलब होता है। और वह अचकचा जाता यदि आप उसे कहते, कि हम भारत को 'धर्मनिरपेक्ष' बनाने पर आमादा हैं। लेकिन 'धर्मनिरपेक्ष' के नाम पर खूब अधर्म होता रहा। अर्थात राजनीति अपने कर्तव्यों से विमुख होती रही। फिर ये शब्द पिटने लगा। लोग समझ गए कि 'धर्मनिरपेक्ष' का अर्थ होता है चुनाव परिणामों से भयभीत दलों के अनैतिक गठबंधन को जोड़ने वाला गोंद, जो दो-तीन मौसम भी नहीं झेल पाता, जिसकी गुणवत्ता लोकसभा और विधानसभा की सीटों की गिनती से आंकी जाती है। कहा भी गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अत: एक नया शब्द खोजा गया 'असहिष्णुता'। जब असहिष्णुता की बहस खड़ी हुई तो आम भारतीय ने भी तत्क्षण चौंककर अपने आस-पास देखा होगा। 'असहिष्णुता' को खोजा होगा। लेकिन जब उसे कहीं भी असहिष्णुता के दर्शन नहीं हुए तो सारे दुष्प्रचार की हवा निकल गई। लोग मजाक करने लगे कि 26 जून 2014 के पहले सब ओर सुख-शांति थी। लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे। न कोई झगड़ा था, न दंगा-फसाद। साक्षात सतयुग था। फिर जैसे ही नए प्रधानमंत्री ने शपथ ली कि कलयुग प्रारम्भ हो गया। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। दांव खाली ही नहीं गया, बल्कि उल्टा पड़ गया। छद्म सेकुलरिज्म की राजनीति और वामपंथी बुद्धिजीविता का दु:स्वप्न शुरू हो चुका है। क्योंकि तथाकथित असहिष्णुता की ये बहस अब 'सहिष्णुता क्या है', इस ओर मुड़ गई है। यहीं से वैचारिक भ्रष्टाचार के पराभव की शुरुआत होती है।
27 नवंबर को लोकसभा में 'असहिष्णुता' मुद्दे पर बोलते हुए पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा कि हिन्दू समाज बेहद सहनशील है। हिन्दू समाज में जितनी सहिष्णुता है वह दुनिया में किसी और देश में नहीं है। पाकिस्तान और सीरिया में मुस्लिम भी मारे जाएं तो कोई विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता। महबूबा के बयान के इस हिस्से को मुख्यधारा मीडिया ने प्राय: उपेक्षित कर दिया। लेकिन मुद्दा तो हवाओं में है, और बना रहने वाला है। फिल्म गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर, जो अक्सर पाकिस्तान को 'हिंदुत्व की प्रयोगशाला' कहते हैं, हाल ही में एक समाचार चैनल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के मंच पर थे। सवाल-जवाब के क्रम में जावेद अख्तर ने जो कहा उसे विस्तार से उद्धृत करने की आवश्यकता है।
अख्तर ने पहले तो ये घोषणा की कि वे नास्तिक हैं और किसी भी 'रिलीजन' अथवा ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। आगे उन्होंने कहा-'पीके (फिल्म) में हिन्दू धर्म पर नहीं धर्म का धंधा करने वालों पर चोट की गई थी। हिन्दू संस्कृति और परंपरा के बारे में सबसे खूबसूरत बात यही है कि वो इजाजत देती है कि कुछ भी कहो, कुछ भी सुनो, कुछ भी मानो। और यही परंपरा और मूल्य हैं जिसके कारण इस मुल्क में लोकतंत्र है। देश से बाहर निकलेंगे तो फिर भूमध्यसागर तक लोकतंत्र नहीं मिलता। ़.़.मगर मुझे हैरत होती है जब लोग मिलते हैं और कहते हैं कि 'साहब! पीके में आपने हिन्दू धर्म के बारे में तो इतनी लिबर्टी ले ली। क्या मुसलमानों के साथ ऐसा कर पाते?' क्या आप मुसलमानों जैसे बनना चाहते हो? अरे भाई कोशिश करो कि वे तुम्हारे जैसे बनें। बजाय इसके कि तुम उनके जैसे हो जाओ। यहां तो खून में है कि हम जो चाहे कह सकते हैं।़…दिलीप कुमार की एक फिल्म है दाग, जिसमें वो भगवान की मूर्ति को उठा लेता है और कहता है कि ये हमारा भगवान नहीं है, ये तो सेठ का भगवान है। मैं इसे नाली में फेंक दूंगा। और फिल्म सुपरहिट थी। आज आप ऐसी फिल्म बनाने की कल्पना कर सकते हो? ये जो सेमेटिक मजहबों (इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी) की असहनशीलता हिन्दू समाज में आ गई है, (उसके कारण) आप बर्बाद हो जाएंगे। आप इन्हें ठीक कीजिये, खुद इनके जैसे मत बनिए। ये मुल्क बहुत महान मुल्क है। इसकी परंपरा कमाल है। ये अजीब जगह है। हम अलग हैं उन लोगों से जिनमें सहनशीलता नहीं है। हममें वो खराबी नहीं आनी चाहिए।'
सबसे पहले तो, जावेद अख्तर ने हिन्दू परंपरा की सहनशीलता के बारे में जो कहा वह कोई नयी बात नहीं है। दुनिया ये कहती आई है। लेकिन भारत के सार्वजनिक जीवन में इस बात को कहने से कन्नी काटने की भी परंपरा पिछले कुछ दशकों में डाल दी गई है। सो उन्हें साधुवाद तो देना ही होगा। हिंदू संस्कृति ही एकमात्र संस्कृति है जहां उपासना और अभिव्यक्ति को अनंत स्वतंत्रता दी गई है। और हिंदुत्व के कारण ही भारत में लोकतंत्र की व्यवस्था इतने अच्छे से चल रही है। अन्यथा वही डीएनए (आनुवांशिक गुण 'रक्त सम्बन्ध), वही खानपान होने के बावजूद पाकिस्तान और बंगलादेश के समाज और राजनीति में उथल-पुथल और मारकाट क्यों मची है? हिन्दुओं की सोच का ये खुलापन कोई नहीं बदल सकता। लेकिन पहला सवाल यहीं से उठता है जावेद साहब कि, आप पाकिस्तान को 'हिंदुत्व की प्रयोगशाला' क्यों कहते आये हैं? हालांकि आपका संभावित उत्तर भी बतलाया जा सकता है कि आप कुछ दल विशेष और कुछ विशेष प्रकार के लोगों की बात कर रहे थे। उसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
जावेद अख्तर ने हिन्दुओं से एक सवाल पूछा है कि 'क्या मुसलमानों जैसे बनना चाहते हो? अरे भाई कोशिश करो कि वो तुम्हारे जैसे बनें। बजाय इसके कि तुम उनके जैसे हो जाओ।' इसी सवाल के संदर्भ में एक सवाल, उन सभी लोगों से, जो 'सेकुलरिज्म' का हलफ उठाकर इस शब्द का दुरुपयोग करते आये हैं। मुसलमानों को 'हिन्दुओं जैसा सहिष्णु बनाने' के लिए क्या करना होगा? ये कैसे संभव होगा, जब वन्देमातरम् के गायन को इस्लाम विरोधी घोषित किया जाए और विशुद्ध राष्ट्रीय विषय को राजनीतिक स्वार्थ के लिए 'मुसलमानों का मजहबी मामला' बता दिया जाए? जब इस्लाम के नाम पर शाहबानो और इमराना के साथ मजहबी लोगों और राजनीतिज्ञों द्वारा अन्याय किया जाए और 'बुद्धिजीवियों' के मुंह पर ताले लग जाएं? जब इंजीनियरिंग और दूसरे तकनीकि विषयों में उच्च शिक्षा ले रहे मुस्लिम युवक इस्लामिक स्टेट के जिहाद में हिस्सा लेने सीरिया पहुंच जाएं लेकिन मुस्लिम विद्वानों में इक्कीसवीं सदी में सशस्त्र जिहाद के औचित्य अथवा अनौचित्य पर चर्चा न हो? 'सेमेटिक मजहबों की असहिष्णुता' के बारे में जावेद अख्तर ने इशारा किया है। क्या भारत की मुख्यधारा की चर्चा में कोई गैर मुस्लिम या गैर ईसाई, सेमेटिक मजहबों को असहिष्णु कह सकता है? अख्तर जो चूक कर रहे हैं वह ये है कि वे प्रतिक्रिया और स्वभाव को एक ही मानकर चल रहे हैं। जावेद जी! अगर 'दाग' सुपरहिट थी तो पीके भी व्यावसायिक रूप से खूब सफल रही। अब ये आप जैसे बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बनती है कि इस्लाम में निहित विडम्बनाओं पर भी सवाल उठाएं। हिन्दू समाज कभी असहनशील बन नहीं सकता, लेकिन हिन्दू मन में छद्म सेकुलरवाद को लेकर सवाल जरूर खड़े हो गए हैं।
ये अच्छी बात है कि 'असहिष्णुता' की ये बहस 'सहिष्णुता' की ओर मुड़ गयी और अनेक जाने-माने मुसलमानों, जैसे महबूबा मुफ्ती, पत्रकार तारेक फतेह, तसलीमा नसरीन और जावेद अख्तर आदि ने हिन्दू समाज की उदारता को खुले मंचों पर स्वीकार किया और आवाज दी। लेकिन छद्म सेकुलरपंथियों, विशेषकर वामपंथी धड़ों से आज भी 'हिन्दू आतंकवाद' और 'हिन्दू तालिबान' जैसे शब्द सुने जा सकते हैं। ये तथाकथित बुद्धिजीवी वैचारिक संघर्ष में तकार्ें की बजाय दुष्प्रचार पर भरोसा करते आये हैं। इस्लामी आतंकियों के विरुद्ध वैचारिक लड़ाई को कमजोर करना, इसके लिए दुष्प्रचार का सहारा लेना, भ्रम पैदा करने के लिए नए-नए शब्द गढ़ना, ये छद्म सेकुलर बुद्धिजीविता का पुराना इतिहास रहा है। हिन्दू समाज में एक दूसरे प्रकार की 'असहनशीलता'अवश्य व्यापक हो रही है। वह है इस बौद्धिक लांछन और छद्म सेकुलरिज्म के ढकोसलों को सहन न करना। जो कि एक अच्छा संकेत है। वामपंथ के ढहते बुर्ज और सिमटते आंकड़े, अपने को गर्वपूर्वक नास्तिक कहने वाले नेताओं की मंदिरों पर हाजिरी, 'हिन्दू आतंकवाद' का शिगूफा छोड़ने वालों का खुद ही उससे किनारा कर लेना, सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध को कांग्रेस अध्यक्षा के एक करीबी और पूर्व केंद्रीय मंत्री द्वारा गलत बताना आदि देश के बदलते मिजाज की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। इसी में सबका भला भी है। मुसलमानों का भी, जो दशकों से तुष्टीकरण की राजनीति का शिकार हंै और अपने मजहबी नेताओं की ताकत और सत्ता की भूख शांत करने के लिए जाने-अनजाने सियासत का चारा बने हुए हैं।
आसार अच्छे दिख रहे हैं। सच की यही विशेषता है। उसे कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है लेकिन मिटाया नहीं जा सकता। सच सर चढ़कर बोलता है।
प्रशांत बाजपेई
भारत एकमात्र देश है जो बतलाता है कि भविष्य में राष्ट्र राज्यों को कैसा होना चाहिए और किस प्रकार भाषाओं, नस्लों एवं उपासना पद्घतियों को सारी कठिनाइयों के बावजूद स्थान देना चाहिए। एक मुस्लिम के रूप में मुझे यह सम्मोहक लगता है कि कैसे यह दुनिया में एकमात्र स्थान है जहां मुस्लिम बिना किसी भय के अपनी जगह बना सकते हैं। भारत में मुसलमान पाकिस्तान और बंगलादेश से ज्यादा सशक्त हैं।
— तारेक फतह
अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार एवं लेखक
भारत में ज्यादातर 'सेकुलर' मुस्लिम परस्त और हिंदू विरोधी हैं।
—तसलीमा नसरीन
बंगलादेशी लेखिका
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