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ब्रिटेन, तुर्की, पेरिस… विश्व मंच पर जब जहां जरूरी था, भारत एक नई चमक, नई साख के साथ मौजूद दिखा। क्या यह अनायास है? जी नहीं, इसके लिए अथक प्रयास किए गए हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दायित्व संभालने के बाद पहले वर्ष में 17 देशों में 53 दिन की यात्राएं की हैं। वैसे तो यह आंकड़ा संप्रग-2 के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा 12 देशों की 47 दिन की यात्रा से ज्यादा बड़ा नहीं है, किन्तु यह सच है कि पिछले डेढ़ वर्ष में ही दुनिया का भारत को आंकने का नजरिया बदलने लगा है। इस बाहरी चमक में देश के भीतर छेड़े गए अभियानों-योजनाओं का भारी योगदान है।
राष्ट्रीय नेतृत्व और उनकी टोली द्वारा प्रदर्शित असामान्य ऊर्जा से भरा यह समय ऐसा है जब दुनिया अनुभव कर रही है कि विभिन्न वैश्विक मुद्दों पर भारत नेतृत्व की स्थिति में आ रहा है।
सौर ऊर्जा के लिए 120 देशों के अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की बात हो, विश्व व्यापार में कृषि और खाद्यान्न से जुड़े जटिल मुद्दों को सुलझाने का मसला हो या दुनिया को असीम कारोबारी संभावनाओं का फलक दिखाने की बात, भारत राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं और वैश्विक संभावनाओं के केन्द्र के तौर पर उभर रहा है। यह पहली बार है जब अंतरराष्ट्रीय संपर्क की ताकत देश की साख और इसके आर्थिक विकास की संपूरक शक्ति के तौर पर इतनी तेजी से उभरी है।
गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुंदर पिचाई की पहली आधिकारिक भारत यात्रा को ही लीजिए। पिचाई का यह दौरा दो दृष्टि से महत्वपूर्ण है- पहला, यह उन गौरव के क्षणों को जीने का मौका देती है जो भारतीय मेधा ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर हमारे लिए अर्जित की है। दूसरा, यह शीर्ष अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भारत में निवेश स्थितियों पर भरोसेमंद मुहर भी है।
भारत के भीतर यह बदलाव इतना स्पष्ट और तर्कपूर्ण है जिसे वैश्विक साख, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और सार्वजनिक उपक्रमों की जागती ताकत जैसी कसौटियों पर परखा जा सकता है।
दुनिया को बदलाव और विकास के संकेत इस देश के भीतर से मिल रहे हैं। मृत, मंद और मंथर गति से काम करते रहे सार्वजनिक उपक्रम आज अच्छे प्रदर्शन के संकल्प के साथ बढ़ने का संकेत देने लगे हैं। (देखें-सफेद हाथी या विकास के सारथी, पृष्ठ-18)
वैसे, वैश्विक संबंधों की मजबूती इस बात पर भी निर्भर करती है कि देश की अर्थव्यवस्था कितनी मजबूत है। दो देशों के बीच संबंध अच्छे हों और उसके लाभ द्विपक्षीय या बहुपक्षीय हों तो क्षेत्रीय विकास का ताना-बाना खड़ा होने लगता है।
काशी-क्योटो की संकल्पना, जापान के साथ सहज शतार्ें पर बुलेट ट्रेन का सौदा, विकास और अर्थव्यवस्था को शक्ति देने वाली विदेश नीति का उदाहरण है। विकसित देशों से हाथ मिलाना और जरूरत में पड़ोसी देशों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना, भारत की यह नीति क्षेत्रीय विकास के नए सौहार्दपूर्ण समीकरण तैयार कर रही है। भारत ने नेपाल के साथ सड़क, सिंचाई और पनबिजली योजनाओं पर 66 अरब रुपए से ज्यादा के रियायती ऋण की घोषणा की है।
भूटान का सहज स्वाभाविक सहयोगी पड़ोसी होने के कारण भारत ने भूटान की कई पनबिजली परियोजनाओं को भी हाथ में लिया है। दोनों देश 2020 तक 10 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन करना चाहते हैं। परंपरागत स्रोतों से इतर साफ-सुथरी और पर्याप्त ऊर्जा विकास की रफ्तार को बनाए रखने के लिए जरूरी है। स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, यह सब 'एनर्जाइज इंडिया' यानी शक्तिपूरित भारत के बिना संभव नहीं है। यह बात समझते हुए भारत ने खुद अपने लिए ऐसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य हाथ में लिए हैं जिनकी कल्पना भी दो वर्ष पहले तक असंभव थी।
सब बातें अच्छी हैं, लेकिन परिवर्तन के इस दौर में कुछ नए, गैर परंपरागत खतरे भी हैं। उदाहरण के लिए, देश की साख को विश्व बिरादरी में बदनाम करने की कोशिशें।
भारत के सकल घरेलू विकास की दर और व्यवस्थागत अड़चनों में क्या कोई अंतरसंबंध है? असहिष्णुता जैसे जुमले, छद्म मुद्दों पर खड़ी की गई सुविधा की लामबंदियों का विश्लेषण इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है।
फिलहाल तो राष्ट्रीय नेतृत्व की दृढ़ता इन बाधाओं को परास्त कर रही है। श्रेष्ठ भारत का सपना श्रम की नींव पर खड़ा है। कड़ी मेहनत के बाद इस सपने के सूत्र जुड़ने लगे हैं। सुस्त, भ्रष्ट, वंशवादी राजनीति की गिरफ्त में फंसे राष्ट्र की छवि से दशकों बाद भारत बाहर निकल रहा है।
'महान परंपराओं की सीख, वैश्विक परिवार का भाव और बड़ी जिम्मेदारियों के लिए बड़ी तैयारी', बदलाव की बेला में भारत इस मंत्र के साथ जाग रहा है।
अच्छे दिनों की यह आहट अच्छी है।
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