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कुनबे पर देशहित कुर्बान

by
Dec 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Dec 2015 13:19:24

5 लाख रुपए से शुरू हुई कंपनी 50 लाख रुपए का कर्ज देती है और घुमा फिराकर पांच हजार करोड़ की संपदा 'परिवार' की झोली में डाल दी जाती है।  सोनिया-राहुल की 'यंग इंडिया' द्वारा पं. नेहरू द्वारा स्थापित एसोसिएटेड जर्नल्स को हथियाने और कांग्रेस पार्टी को औजार की तरह इस्तेमाल करने की इस कहानी में किसी आपराधिक उपन्यास जैसे पेच हैं।  2012 में डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने दिल्ली की एक सत्र अदालत में इसके विरुद्ध याचिका दायर की थी।  दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोनिया-राहुल को अन्य आरोपियों के साथ 19 दिसम्बर, 2015 को अदालत में हाजिर होने का आदेश जारी किया तो मामला बुरी तरह गरमा गया। सबसे पुरानी पार्टी के शीर्ष परिवार की परेशानी गहराने के साथ ही कांग्रेस के सांसदों ने संसदीय कार्यवाही को ठप कर डाला। परिवारहित को देशहित से आगे रखने का यह नजरिया हैरान करने वाला है और न्यायिक कार्रवाई के लिए राजनीति को जिम्मेदार ठहराने का तर्क बेहूदा। प्रस्तुत हैं इस पेचीदा मामले से जुड़े वे महत्वपूर्ण सवाल जिनके जवाबों ने कांग्रेस पार्टी और इसके शीर्ष परिवार की जान सांसत में डाल रखी है।'

    क्या है नेशनल हेराल्ड प्रकरण। यह पारिवारिक संपत्ति में हेरफेर का मामला है या एक राजनीतिक पार्टी द्वारा अपने धन के दुरुपयोग का?
दरअसल, यहां सब गड्डमड्ड है। एसोसिएटेड जर्नल्स नामक कंपनी पं. जवाहरलाल नेहरू ने बनायी थी इसलिए मामले के सूत्र पारिवारिक कहे जा सकते हैं, लेकिन क्योंकि कांग्रेस पार्टी से अनुचित तरीके से ब्याजमुक्त कर्ज मिला इसलिए यहां मामला राजनीतिक पार्टी द्वारा धन के दुरुपयोग का भी है।
यह वास्तव में आजादी से पूर्व का प्रकरण है और पं. नेहरू ने कई अंशधारकों की हिस्सेदारी और आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को जनता द्वारा दिये गये चंदे से खड़ा किया था। एसोसिएटेड जर्नल्स नामक कंपनी के अंतर्गत संचालित नेशनल हेराल्ड 9 सितम्बर, 1938 को लखनऊ में स्थापित हुआ। स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस के गरम दल के नेताओं को वैचारिक पटखनी देने अर्थात प्रत्यक्ष रूप से पार्टी के अंदर अपने विरोधियों का सीधा विरोध न कर उन्होंने इसके माध्यम से अपना एजेंडा बढ़ाया। जब देश आजाद हुआ तब अपनी विचारधारा और कार्यप्रणाली को जनता तक पहुंचाने के लिए पं. नेहरू ने इसका खूब उपयोग किया। नेहरू अप्रत्यक्ष रूप से हेराल्ड के संपादक ही नहीं थे वरन् प्रधानमंत्री बनने के पूर्व तक वे हेराल्ड के निदेशक मंडल के अध्यक्ष बने रहे। वे अपने विचार और नीतियों को भी हेराल्ड में स्थान देते रहे। 1954 में परमाणु परीक्षण की चिंता पर उनका एक लेख 'डेथ डीलर' उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही प्रकाशित हुआ था। दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर जहां हेराल्ड हाऊस स्थित है वह उस जमाने में दिल्ली का 'फ्लीट स्ट्रीट' कहलाता था।
1938 में पं. नेहरू ने के.रामाराव को नेशनल हेराल्ड का प्रथम संपादक बनाया। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय जब अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगाया तब यह अखबार भी 1945 तक लगभग 3 वर्ष बंद रहा। 1946 में उन्होंने मणिकोंडा चेलापति राव को इसका संपादक बनाया और स्वतंत्र रूप से सारे सम्पादकीय दायित्व राव को सौंप दिए। उस जमाने में कुछ लोग यह मानने लग गये थे कि हेराल्ड नेहरू का नहीं वरन् राव का अखबार है। यह भी उल्लेखनीय है कि फिरोज गांधी को इसी कालख्ंाड में 1946 से लेकर 1950 तक अखबार के प्रबंध निदेशक के रूप में हेराल्ड की आर्थिक स्थिति सुधारने  का जिम्मा सौंपा गया था। नेहरू युग के बाद उनकी पुत्री इंदिरा भी हेराल्ड को आगे बढ़ाती गयीं। इसी कड़ी में नेशनल हेराल्ड 1968 से लखनऊ के साथ-साथ दिल्ली से भी प्रकाशित होने लगा। 2008 में बंद होने से पूर्व एसोसिएटेड जर्नल्स द्वारा अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के अलावा उर्दू में कौमी एकता और हिन्दी में नवजीवन पत्रों का प्रकाशन होता था।

    पार्टी का प्रचार या पत्रकारिता, अखबार किसलिए था ?
मजेदार बात यह है कि जिस अखबार को देश की राष्ट्रीयता के साथ जुड़े होने का तर्क नेहरू देते थे, उनकी पुत्री इंदिरा देती थीं। उसमें कभी किसी अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय विचार अथवा मुद्दे पर कोई प्रभावी एवं चर्चित सामग्री छपने की चर्चा नहीं सुनायी पड़ती। सत्ता में रहते हुए इसके माध्यम से सार्वजनिक संपत्ति एकत्रित करने के उपायों पर शायद ज्यादा सोचा गया बजाय इसके कि इसमें देश और समाज से जुड़ी हुई उपयोगी सामग्री प्रकाशित हो। इसलिए यह अखबार पाठकों के संकट के साथ विज्ञापनों का अभाव भी झेलता रहा और कांग्रेस पार्टी के कुप्रबंधन और बौद्धिक असमर्थता में इन तथ्यों ने ढाल का काम किया। आपातकाल के बाद 1977 में दो वर्ष के लिए इंदिरा की हार के बाद हेराल्ड को बंद कर दिया गया। इसके बाद 1986 में जब इंदिरा के पुत्र राजीव गांधी सत्ता में आये तो उन्होंने हेराल्ड को गति देने का प्रयास शुरू किया। 1998 में हेराल्ड के लखनऊ संस्करण को बंद कर दिया गया। अदालत के आदेश पर कंपनी और अखबार के बकाया ऋणों व देनदारियों को चुकाने के लिए इसकी परिसंपत्तियों की नीलामी हुई।
    
संपत्ति को पारिवारिक कैसे बनाया गया?
जनवरी 2008 में जब केन्द्र में सोनिया गांधी द्वारा संचालित संप्रग नेतृत्व वाली सरकार सत्तासीन थी तब नेशनल हेराल्ड के तत्कालीन प्रधान संपादक टी.व्ही. वेंकटचलम ने नेशनल हेराल्ड को बंद करने की विधिवत घोषणा की थी। दलीलें वही थीं जिनको स्वयं रचा गया मान सकते हैं- कुप्रबंधन, प्रसार का अभाव और राजस्व प्राप्ति अर्जित करने में असफल रहना। कांग्रेस की लगभग चार पीढि़यों की भावनात्मक कम, राजशाही से उपजी स्वामित्व की भावना ने इस प्रकरण को तब गरमाया जब कांग्रेस पार्टी ने एसोसिएटेड जर्नल्स को अपना वैचारिक अधिष्ठान व नेशनल हेराल्ड को राष्ट्रीय भावना का प्रतीक तथा पार्टी के उद्देश्यों के लिए समर्पित बताते हुए इसे नब्बे करोड़ रुपए का ऋण उपलब्ध कराया। मार्च 2010 तक इस कंपनी में 1057 अंशधारक थे। जिस कंपनी को नेहरू ने कई अंशधारकों के दान और हजारों लोगों के चंदे से खड़ा किया था वह अंतत: गांधी परिवार की झोली में डाले जाने के लिए तैयार थी। देशभर में समाचारपत्र कार्यालय के नाम पर सरकार से जगह ली थी। जिन भूखंड या भवनों को खड़ा करते वक्त वैचारिक तर्क और आधार गिनाए गए थे अंतत: उन्हें व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए आगे बढ़ा दिया गया।
    
क्या यह दो जेबों को अलग-अलग दिखाने और माल किसी एक ही जगह जाने का मामला है?
पहली नजर में कहा जा सकता है, हां। एसोसिएटेड जर्नल्स के बोर्ड में और कांग्रेस पार्टी द्वारा इस कंपनी को ब्याजमुक्त कर्ज का फैसला लिये जाने में कुछ साझे नाम हैं। मसलन सोनिया गांधी और मोतीलाल वोरा। 26 फरवरी 2011 को जब केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार थी तब इस कंपनी की नब्बे करोड़ की देनदारियों के बहाने बिना ब्याज के नब्बे करोड़ की बड़ी धनराशि कांग्रेस पार्टी के खाते से दी गयी। इसके अलावा सोनिया गांधी के सरकारी आवास,10 जनपथ का उपयोग व्यावसायिक बैठक के लिए करना भी गले नहीं उतरता। कांग्रेस के वकील नेताओं ने दलील दी कि यह अंदरूनी मामला है। बाहरी व्यक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
    यंग इंडिया ने एसोसिएटेड जर्नल्स के अधिग्रहण का फैसला किस आधार पर किया?
आधार स्पष्ट नहीं है क्योंकि यंग इंडिया कंपनी और कामकाज के तौर पर एसोसिएटेड जर्नल्स से एकदम भिन्न प्रकार की कंपनी है और अखबार जगत से जिसका बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। एसोसिएटेड जर्नल्स अपने मूल स्वरूप में ढेरों अंशधारकों के साझी स्वामित्व वाली  ऐसी कंपनी रही जिसका फैलाव काफी था। और जिसके पास भारी मात्रा में व्यावसायिक संपत्तियां थीं। जबकि यंग इंडिया का मामला इसके उलट है। पांच लाख रुपए से शुरू की गयी 'यंग इंडिया' कंपनी में 76 प्रतिशत की भागीदारी गांधी परिवार की और बाकी परिवार के दो शुभचिंतकों- मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीस की ही है। इस लिहाज से इसे गांधी परिवार की जेबी कंपनी भी कहा जा सकता है। गांधी परिवार के अर्थशास्त्र के पंडितों ने अच्छा गणित सुझाया और एसोसिएटेड जर्नल्स के दस-दस रुपए के नौ करोड़ शेयर लेकर नई कंपनी यंग इंडिया को पुरानी कंपनी की सारी संपत्तियों को कब्जाने का सुरक्षित उपक्रम तैयार कर दिया। इस प्रकार पुरानी कंपनी के 99 प्रतिशत शेयर प्राप्त कर यंग इंडिया ने मुफ्त में एसोिएटेड जर्नल्स का मालिकाना हक प्राप्त कर लिया। पूर्व केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इसी दलील पर अदालत में जनहित याचिका दायर की थी कि कर छूट के अंतर्गत कांग्रेस पार्टी ने नब्बे करोड़ की राशि में बड़ा घालमेल किया। जबकि एसोिएटेड जर्नल्स के अधिग्रहण को टालने या घाटे को कम करने के कुछ और उपाय भी हो सकते थे, सार्वजनिक सुझाव भी मांगे जा सकते थे।
    
नेशनल हेराल्ड को बिना ब्याज इतनी बड़ी राशि क्यों दी गयी? और इसे पार्टी कोष का सहज 'फ्लो' कैसे बता दिया गया?
जब कांग्रेस पार्टी के वकीलों ने अदालत में डॉ. स्वामी की याचिका को अनुचित बताया और यह तर्क प्रस्तुत किया कि यह पार्टी का अंदरूनी मामला है, इसमें डॉ. स्वामी मुकदमा नहीं कर सकते तब अदालत ने तल्खी भरे स्वर में स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार को निषिद्ध नहीं माना जा सकता। इतने बड़े 'सौदे' को सहजता से अंजाम देने वाले गांधी परिवार को जब प्रवर्तन निदेशालय द्वारा टैक्स नोटिस दिया गया तो सोनिया गांधी ने इस आरोप को सरासर राजनीति एवं बदले की भावना से प्रेरित बताया था।
    
व्यक्तिगत विवाद राष्ट्रीय मुद्दा कैसे बना?
नहीं बनना चाहिए था, लेकिन बनाया गया। संसद के अंदर कांग्रेस सदस्यों ने धमाचौकड़ी मचायी और दिल्ली समेत देश के सभी इलाकों में प्रायोजित कार्यक्रम चलाये गए। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने वक्तव्य दिया- 'हम इस तानाशाही के खिलाफ दोनों सदनों में विरोध करेंगे, लोकतंत्र खतरे में है।' चंद रोज पहले गड़बड़ी पाए जाने पर हथकड़ी लगाने के लिए ललकारने वाले राहुल गांधी भी सहज नहीं दिखे। इसे कार्यकर्ताओं को उकसाने वाले परोक्ष संकेत के तौर पर समझा गया।
 सूर्य प्रकाश सेमवाल 

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