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अपनी बात-वह कल्पना और यह व्यवहार

by
Dec 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Dec 2015 10:31:36

लोकतंत्र में शासकीय व्यवस्था का आधार है परस्पर विश्वास, सहयोग और सहभागिता। आपस में कंधे मिलाकर, हाथ बंटाते हुए चला जाए और समय के साथ इस बारे में समझ मजबूत होती जाए, लोकतंत्र की यही मांग है। किन्तु दुर्भाग्य से हाल की कुछ घटनाएं इसके उलट संकेत देने वाली रहीं। इस सप्ताह कम से कम तीन घटनाएं ऐसी रहीं, जिन्होंने सातवें दशक से गुजर रहे गणतंत्र की विकास यात्रा को सवालों के कठघरे में ला दिया।
पहली झलक पश्चिम बंगाल में दिखी। हुगली जिले के आरामबाग में एक जनसभा को संबोधित करते हुए राज्य की मुख्यमंत्री इस बात पर नाराज दिखीं कि केंद्र सरकार ने बाढ़ प्रभावित तमिलनाडु की मदद में इतनी तत्परता क्यों दिखाई? केन्द्र सरकार पर सौतेले बर्ताव का आरोप लगाते हुए भले ही ममता बनर्जी कहें कि चेन्नैै के लिए दिखाई गई चुस्ती पर उनके मन में जलन नहीं है, वे केवल पश्चिम बंगाल के लिए भी आवश्यक सहायता राशि की अपेक्षा रखती हैं, लेकिन उनकी आपत्ति देशभर को चुभने वाली है। आपत्ति जताने के लिए उन्होंने जिस मौके और मंच का चुनाव किया वह अपने आप में आपत्तिजनक है। सदी की सबसे बड़ी बाढ़ त्रासदी झेल रहे चेन्नै, कांचीपुरम, कड्डलूर आदि क्षेत्रों में जिस समय हजारों घर हाहाकार में डूबे थे उस समय मदद की सराहना की बजाय सार्वजनिक मंच से दो राज्यों के बीच वैमनस्य पैदा करने वाली बात छेड़ने का क्या मतलब है? क्या अपनी-अपनी पहचान रखने वाले विभिन्न राज्य उस परिवार के हिस्से नहीं हैं जिसे भारत कहा जाता है? क्या परिवार के सदस्यों में ऐसे ही संबंध होते हैं?
दूसरी घटना केरल की है। दो राज्यों के बीच लंबे विवाद का कारण रहे मुल्लापेरियार बांध में पानी का स्तर इसकी अधिकतम क्षमता के करीब पहुंचा तो तमिलनाडु ने केरल को बिना पूर्व सूचना दिए पेरियार नदी में अचानक पानी छोड़ दिया। कम या ज्यादा, दोनों ही राज्य लगातार बरसात और अनपेक्षित प्राकृतिक स्थितियों के मारे हैं। लेकिन राज्य की सीमा के बाहर एक-दूसरे के दर्द को समझने को राजी नहीं हैं। अपना खतरा दूसरे के आंगन में उड़ेलने वालों ने जिस आंगन को पराया समझा क्या वह उनका अपना ही घर नहीं है? क्या कागज पर खिंची लकीरें दो भारतीयों के बीच की सीमारेखा बन गई हैं?
तीसरी घटना देश की संसद में दिखी। एक परिवार को न्यायालय ने हाजिर होने का हुक्म क्या दिया परिवार के पूजकों ने संसद सिर पर उठा ली। देश के नीति-निर्देशक मसौदौं पर चर्चा का बहुमूल्य समय 'मां-बेटे' के लिए हाय-हाय मचाते हुए बर्बाद कर दिया गया। नेशनल हेराल्ड घपले का मामला अदालत देख रही है। कुछ लोग इस मामले में सीधे आरोपी हैं। लेकिन नहीं, परिवार के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन राष्ट्रहित की चर्चाओं से भी ज्यादा जरूरी है।
एक संविधान के अंतर्गत एक सशक्त देश का सपना संजोने वालों ने क्या 'हम भारत के लोग' कहते हुए ऐसी स्थितियों की कल्पना भी की होगी?
ऐसी राजनीति जहां विपत्ति में भी स्थानीय स्वार्थ तलाशे जाएं! पड़ोसी राज्यों में ऐसी खटपट कि साझी समस्याएं मिल-बैठकर सुलझाने के नाम से ही त्योरियां चढ़ जाएं! लोकतंत्र में ऐसी वंशपूजा जिसके लिए न्यायपालिका की अवमानना से लेकर राष्ट्रहित तक की अनदेखी कर दी जाए!
तीनों घटनाओं का स्थान भले अलग हो, विडंबना एक ही है- एक सबल राष्ट्र के सपने से इतर संकीर्ण राजनीतिक व्यवहार ने संविधान के रचनाकारों के सपने को निश्चित ठेस पहुंचाई होगी। कागज पर खिंची लकीरें जब दिलों को बांटने लगें तो समझिए, कुछ गड़बड़ जरूर है।

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