इतिहास दृष्टि- विदेश में जन्मे ये भारत-भक्त
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इतिहास दृष्टि- विदेश में जन्मे ये भारत-भक्त

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Nov 9, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Nov 2015 12:17:44

फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान क्रूजर ने भारत के बारे में कहा था, 'यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है, जो स्वयं को मानव जाति का पालना होने की घोषणा करने का अधिकारी है अथवा प्रारंभिक सभ्यता का द्रष्टा है, जिसकी सभ्यता की किरणों ने प्राचीन विश्व के सभी भागों को आलोकित किया है, जिसने ज्ञान के वरदान से मनुष्य को द्विज बनाया है, प्राकृत से संस्कृत किया है, तो वह देश वास्तव में भारतवर्ष है।'
ऐसे सुविचार भारत के बारे में समय-समय पर अनेक विदेशी विद्वानों, विचारकों तथा साहित्यकारों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान से अभिभूत हो, भारत की आराधना, वन्दना तथा यशोगान किया है। अनेक ने अपनी आस्था भारत को विश्वगुरु के रूप में मानकर व्यक्त की है। कदाचित ही विश्व में कोई देश ऐसा हो जहां के लोगों ने किसी न किसी क्षेत्र में भारत का ऋणी होना अनुभव न किया हो। स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति भाषा, साहित्य, विज्ञान, कला, इतिहास सभी क्षेत्रों में इसका विशद वर्णन किया है।
1757 ई. में प्लासी की लड़ाई के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर कब्जा कर लिया था। कंपनी के प्रारंभिक अधिकारी भारत की विभिन्न क्षेत्रों में चहुंमुखी प्रगति को देखकर आश्चर्यचकित तथा भावविह्वल हो गये। विनम्रतापूर्वक भारत की प्रशंसा की, यहां की प्राचीन संस्थाओं, संस्कृति, सभ्यता तथा आर्थिक समृद्धि का वर्णन किया। एक विद्वान अधिकारी जॉन एच हालवैल (1710-1790 ई.) ने लिखा, भारतीय हिन्दुओं के सिद्धांत ग्रंथ पुरानी ईसाइयत व ओल्ड टेस्टामेंट से ज्यादा प्रभावी ढंग से, प्रकटीकरण करते हैं। उसने कहा, पौराणिक कथाओं तथा विश्व उत्पत्ति के सिद्धांतों को, मिस्रवासियों, ग्रीकों तथा रोमवासियों से नहीं, ब्राह्मणों के सिद्धांतों से प्राप्त किया था। नार्थेनियल हाल्डेड ने मानव इतिहास में भारतीयों द्वारा वर्णित चार युगों-सत, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का वर्णन किया है। क्यू कुरुफर्ड ने 1790 ई. में लिखा, 'भारत न केवल मिस्र या ग्रीस की कलाओं तथा विज्ञान का मूल स्थान, बल्कि एक सुसंस्कृत तथा सभ्य राष्ट्र था।' (देखें, सेकेचिंग चीफली रीलेटिंग टू द हिस्टोरिक लर्निंग्स एण्ड मैनर्स ऑफ द हिन्दूज, लंदन 1790, पृ. 71-74)। विलियम हौजेस ने 1780-83 ई. के दौरान अपनी भारत यात्रा में भारत की स्थापत्य तथा मूर्तिकला की अत्यधिक प्रशंसा की है (ट्रेवलर्स इन इंडिया ड्यूरिंग द ईयर्स 1780-83, लंदन, 1793) एडेनवर्ग में स्काटलैंड विश्वविद्यालय के ब्रिटिश इतिहासकार राबर्ट्सन ने भारतीय कानूनों की भरपूर प्रशंसा कर इन्हें विश्व के राष्ट्रों की न्यायिक व्यवस्थाओं में एक अत्यंत सभ्य राष्ट्र बतलाया (ऐन हिस्टोरिकल डिस्क्यूशन कन्सर्निंग द नॉलेज विद द ऐन्सेंट इंडिया, लंदन 1791)। इसी भांति अलेक्जेण्डर डो ने तीन भागों में 'हिस्ट्री ऑफ हिन्दुस्तान' लिखी।
धर्म तथा दर्शन
यदि हम अध्यात्म संस्कृति, धर्म तथा दर्शन के क्षेत्रों का संक्षिप्त अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि विदेश के अनेक विद्वानों ने भक्ति भावना से भारत का वर्णन किया है। जर्मनी में बोन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध दार्शनिक प्रो. श्लेगल ने अपने ग्रंथ 'हिस्ट्री ऑफ लिटरेचर' में लिखा, 'यूरोप का सर्वोच्च दर्शन बौद्धिक अध्यात्मवाद, जो यूनानी दार्शनिकों से प्रारंभ हुआ, प्राच्य अध्यात्मवाद के अनन्त प्रकाश एवं प्रखर तेज के सम्मुख ऐसा प्रतीत होता है जैसे मध्याह्न के प्रखर सूर्य के भरपूर तेज के सम्मुख एक मन्दाग्नि चिंगारी हो जो धीरे-धीरे टिमटिमा रही हो और जो किसी भी समय बुझ सकती है।' अमरीका के विश्वप्रसिद्ध विद्वान विल डयूरेंट ने भारत के अध्यात्म से भावविभोर हो लिखा, 'हे भारत! तू इससे पहले कि पश्चिम अपनी घोर नास्तिक और भोगवादी सभ्यता से निराश हो, शांति के लिए तरसता हुआ, तुम्हारी शरण में आये, कहीं भूल से अपनी लंबी राजनीतिक पराधीनता के लिए अपने श्रेष्ठ अध्यात्म को ही दोषी मानकर अपने घर को फूंक मत डालना' (देखें, स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन) जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने लिखा, 'यदि मुझसे पूछा जाए कि किस गगन के नीचे मानव मन ने ऊंची-ऊंची प्रतिभाओं का विकास किया है। जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर विचार कर ऐसे ऊंचे समाधान ढूंढे कि जो प्लेटो तथा कांट का अध्ययन करने वाले विद्वान को भी आकर्षित करने का अधिकार रखते हैं, तो वह महान देश भारत है।' उसने पुन: लिखा, 'अगर मैं अपने से पूछूं कि हम यूरोपवासी, जो अब तक ग्रीस, रोमन तथा यहूदी विचारों में पलते रहे कि ससाहित्य से प्रेरणा ले, जो हमारे भीतरी जीवन का परिशोधन करे, उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करे, व्यापक बनाये, विश्वसनीय बनाये, सही अर्थों में मानवीय बनाये जिससे हमारे जीवन को ही नहीं, हमारी आत्मा को प्रेरणा मिले तो वह भारत है।' (देखें, व्हाट कैन इंडिया टीच अस, पृ.6) दार्शनिक क्षेत्र में मैनिनिंग ने लिखा, 'सभ्यता की उच्चता में भारतीय दर्शन प्राचीन काल की भांति आज भी उच्च है। हिन्दुओं के मानव मस्तिष्क का विकास उतना व्यापक था, जितना मानव द्वारा संभव है।' (एन्सेंट एण्ड मिडिवल इंडिया, भाग एक, पृ.114) सर विलियम डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर (1840-1900) जो कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति रहे का विचार है, 'भारतीय दर्शन ने असमझ दार्शनिक गुत्थियों के संभावित समाधान ढूंढ लिए थे। ये गुत्थियां प्रारंभ में यूनानियों, रोमनों, मध्यकालीन यूरोपीय चिंतकों को परेशान करती रही थीं और आज भी वैज्ञानिकों को उलझन में डाले हुए हैं।'
फ्रांस के नोबल पुरस्कार विजेता दार्शनिक रोमां रोला ने विश्व में हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ माना है। उन्होंने लिखा, 'मैंने यूरोप और मध्य एशिया के सभी मतों का अध्ययन किया है, परंतु मुझे उन सब में हिन्दू धर्म ही सर्वश्रेष्ठ  दिखाई देता है … मेरा विश्वास है कि इसके सामने एक दिन समस्त जगत को झुकना पड़ेगा। पृथ्वी पर केवल एक स्थान है जहां के जीवित व्यक्तियों ने प्राचीन काल में अपने स्वप्नों को साकार किया, वह है भारत।  (प्रोफेट्स ऑफ द न्यू इंडिया, प्रील्यूड, पृ. 51) प्रो. हीरेन ने माना, भारत ज्ञान तथा धर्म का स्रोत है। न केवल एशिया के लिए, बल्कि संपूर्ण पाश्चात्य जगत के लिए। (हिस्टोरिकल रिसर्चेज, भाग दो, पृ. 45) अनेक विदेशी विदुषी महिलाओं-भगिनी निवेदिता, एनी बेसेंट तथा श्री मां ने हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार किया। भगिनी  निवेदिता ने हिन्दू धर्म तथा दर्शन को भारतीय जीवन की कुंजी बतलाया। एनी वेसेंट ने हिन्दू धर्म को विश्व का सर्वोच्च धर्म बतलाया। भारत के सभी मत-पंथों की जननी कहा। उसने हिन्दू धर्म में पूर्णत: विज्ञान तथा धर्म में सामंजस्य पाया। उसका कथन है कि बिना हिन्दुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है।
भाषा तथा साहित्य
संस्कृत को विश्व की जननी भाषा तथा विश्व संस्कृतियों, सभ्यताओं, परंपराओं के विकास क्रम को समझने के लिए अनिवार्य माना है। विश्व के अनेक भाषाविद्, पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, दार्शनिक विश्व के सूक्ष्म अध्ययन तथा विश्लेषण के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक मानते हैं। संस्कृत के बिना न केवल भारत का अपितु विश्व का अतीत नहीं समझा जा सकता। प्रो. बाप ने एक समय संस्कृत को विश्व की एकमात्र भाषा, ड्यूवास ने संस्कृत को आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का उद्गम, मैक्समूलर ने विश्व की महानतम भाषा कहा है। विल ड्यूरेंट ने कहा, भारत हमारी वंशीय माता और संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की माता है। संस्कृत भारत को विश्व से जोड़ने की भाषा है। ईस्ट इंडिया कंपनी तथा शासन की स्थापना के बाद सर विलियम जोन्स, एच.एच. विल्सन, ऐल्फिन्स्टन ने संस्कृत भाषा को अत्यधिक महत्व दिया। उदाहरण के लिए एच एच विल्सन ने एक भारतीय विद्वान के पत्र के उत्तर में संस्कृत के बारे में लिखा, 'अमृत बहुत मीठा होता है।
संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विन्ध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा तथा गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।' प्रो. श्लेगन ने संस्कृत भाषा तथा भारत को अत्यधिक उच्च स्थान दिया है (देखें, अपोन द लैंग्वेजेज एण्ड विजडम ऑफ द हिन्दूज, 1865)। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्राचीन भारत का संस्कृत साहित्य अमर माना गया है। वेदों से लेकर रामायण-महाभारत तक विश्व के अनेक दार्शनिकों ने इसका यशोगान किया है। गीता उपनिषद सूत्र स्मृति अनेकों की प्राणवायु रही है। प्रसिद्ध विद्वान पं. भगवद दत्त ने इस पर विस्तृत रूप से लिखा है। सर हेनरी कोलब्रुक ने वेद पर लेख लिखे। मैक्समूलर ने ऋग्वेद का अनुवाद किया। शोपेन हावर ने उपनिषदों के लैटिन अनुवाद को पढ़ा तथा मानव बुद्धि की पराकाष्ठा की उपज बतलाया। अपने जीवन की परम शांति तथा मृत्यु के बाद भी शांति बतलाया। इम्वोल्ट ने गीता को सबसे गहरा तथा विश्व की सबसे लंबी वस्तु बताया। डॉ. गोल्ड स्ट्रेकर ने वेदांत की महिमा का गान किया।
आर्थिक क्षेत्र
 विश्व के दार्शनिक, साहित्यकार तथा अन्य विद्वान, न केवल भारत के आध्यात्मिक क्षेत्रों में देन से चकित थे, बल्कि भौतिक जगत में भारत की आर्थिक प्रगति देखकर भी लालयित थे। वास्कोडिगामा जैसे प्रथम यूरोपीय घुसपैठिये ने भी भारत को स्वर्णिम भारत कहा। विश्व में अनेकों का लक्ष्य तो भारत की अतुल धन संपदा प्रदान करना रहा। (देखें, डॉ. सुरेन्द्रनाथ गुप्ता, ब्रिटिश द मैग्निफिसेंट एक्सप्लोरेटर्स दिल्ली, 1974)। शेक्सपीयर ने भारत को महान अवसरों की भूमि कहा। महाकवि मिल्टन ने अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना 'पैराडाइज लोस्ट' में भारत के धन की महिमा गाई है। (देखें, पैराडाईज लोस्ट बुक दो, दूसरी पंक्ति) जर्मन दार्शनिक हीगेल ने भारत को इच्छाओं की भूमि कहा है (देखें, द फिलोसॉफी ऑफ हिस्ट्री, न्यूयार्क, 1956 संस्करण, पृ. 142) स्विस लेखक विजोरिन लैण्डस्ट्रोन ने लिखा, 'भारत पहुंचने के मार्ग अनेक थे परंतु लक्ष्य एक ही था कि भारत की उपजाऊ भूमि तक पहुंचना। एक देश जो बहुमूल्य सोने चांदी, कीमती रत्नों, मसालों तथा कीमती कपड़ों से लबालब भरा है। (देखें, द क्वेस्ट फॉर इंडिया) एडम स्मिथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'द वैल्थ आफ नेशन' में प्राचीन देशों में भारत को सबसे अमीर देशों में बतलाया है। अनेक विद्वानों ने 18 वीं शताब्दी तक भारत को समस्त विश्व की औद्योगिक राजधानी माना है।
विज्ञान तथा कला
विज्ञान तथा कला के क्षेत्र में विदेशी विद्वानों ने भारतीय देन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। आयुर्वेद, गणित, नक्षत्र, विद्या, कालगणना, रासायनिकी, भौतिकी, धातुशास्त्र में भारत की अद्भुत देन को सभी ने माना है। 10वीं शताब्दी में विदेशी यात्री अलबरुनी ने भारत की वैज्ञानिक प्रगति का वर्णन किया। 11वीं शताब्दी में सईद-उल-अन्दुली ने अपनी पुस्तक 'तबकाते-उल-उमाम' में आठ देशों का वर्णन किया जिसमें भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रथम बतलाया है। शल्य चिकित्सा जिसके प्रणेता महर्षि धन्वंतरि तथा सुश्रुत माने जाते हैं। जर्मनी के विद्वान थोरवाल्ड ने जिन्होंने सर्जरी पर कई ग्रंथ लिखे। उन्होंने अपने एक ग्रंथ 'साइंस एण्ड सीक्रेट्स ऑफ अर्ली मेडिसन इजिप्ट मेसोपोटामिया, इंडिया एण्ड चाइना (1962)' में धन्वंतरि की सर्जरी संबंधी शिक्षाओं का वर्णन किया है। एलोपैथी में कुछ लोग हारवे (1578-1657 ई.) को रक्त प्रवाह सिद्धांत का जनक मानते हैं जो भारत में 800 वर्ष ई. पूर्व से ज्ञात था। फिलाडोफिया के डॉ. जार्ज क्लार्क ने आचार्य चरक के अध्ययन के पश्चात आधुनक चिकित्सकों को चरक का मार्ग अपनाने की सलाह दी जो विश्व के लिए अधिक लाभकारी होगा। आज सभी गणित को भारत की देन मानते हैं। नक्षत्र विद्या में आर्यभट्ट, भास्कर तथा वराहमिहिर के मूल सिद्धांतों को स्वीकारा जाता है।
यह सत्य है कि वर्तमान में अणु हथियारों के संग्रह की होड़ है तथा विश्व में अशांति तथा परस्पर कटुता बढ़ रही है। इस हालत में अनेक विदेशी चिंतक इसके समाधान के लिए भारत की ओर निहार रहे हैं। अर्नाल्ड टायनवी का कथन है, 'यह बिलकुल स्पष्ट होता जा रहा है कि जिस अध्याय का अंत भारतीय उपसंहार में ही होगा, जिसका प्रारंभ पाश्चात्य है। यदि मानवजाति का आत्मविनाश में अंत न होता हो तो यहां (भारत में) हमारे पास वह दृष्टिकोण और भावना है जिससे मानवजाति के लिए एक परिवार के रूप में विकास की संभावना है और इस आण्विक युद्ध में सर्वनाश से बचने का एकमात्र विकल्प है।' प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन, जो गीता के मर्मज्ञ भी थे, ने कहा, 'विज्ञान के नए-नए संशोधन मानव के मन को जो शांति चाहिए और समाधान चाहिए, नहीं दे सकते। ऐसी अंत:शांति संशोधनों में नहीं है। सचमुच यदि शांति चाहते हैं तो आपको पूरब की ओर देखना पड़ेगा, विशेष तौर पर भारत की ओर। प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अणु बम के निर्माता राबर्ट ओपेनहायर को नागासाकी और हिरोशिमा के विनाश से शांति नहीं आई, बल्कि गीता के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक से उन्हें शांति मिली और वह गीता का भक्त बन गया। नि:संदेह आज भी विश्व के अनेक चिंतक विश्व में मानवजाति की शांति तथा रक्षा के लिए भारत की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं।     -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल

अमृत बहुत मीठा होता है। संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विंध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा तथा गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।
-एच. एच. विल्सन, प्रसिद्ध विदेशी विद्वान

मैंने यूरोप और मध्य एशिया के सभी मतों का अध्ययन किया है, परंतु मुझे उन सब में हिन्दू धर्म ही सर्वश्रेष्ठ  दिखाई देता है … मेरा विश्वास है कि इसके सामने एक दिन समस्त जगत को झुकना पड़ेगा। पृथ्वी पर केवल एक स्थान है जहां के जीवित व्यक्तियों ने प्राचीन काल में अपने स्वप्नों को साकार किया, वह है भारत।  
-रोमां रोला, प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान

अगर मैं अपने से पूछूं कि हम यूरोपवासी, जो अब तक ग्रीस, रोमन तथा यहूदी विचारों में पलते रहे, किस  साहित्य से प्रेरणा लें, जो हमारे भीतरी जीवन का परिशोधन करे, उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करे, व्यापक बनाये, विश्वसनीय बनाये, सही अर्थों में मानवीय बनाये जिससे हमारे जीवन को ही नहीं, हमारी आत्मा को प्रेरणा मिले, तो वह भारत है।
-मैक्समूलर, प्रसिद्ध विद्वान 

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