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उच्चतम न्यायालय का प्रकाश बनाम फूलवती मामले में विगत 16 अक्तूबर 2015 का घोषित फैसला समान नागरिक संहिता को अपनाए जाने की दिशा मेंं एक कारगर कदम है। इसमें न्यायपालिका ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक तथा विवाह विच्छेद की स्थिति में फिलहाल पर्याप्त अधिकार न होने पर सवाल उठाया है। उनको सुरक्षा तथा आत्मसम्मान मुहैय्या करना और संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की कसौटी पर अदालत द्वारा उनके प्रस्तावित आकलन से लगता है, पूरे देश में समान नागरिक संहिता के लागू होने के सपने के वास्तविकता में बदलने का समय अब नजदीक आ गया है।
एक प्रकार से न्यायाधीश अनिल दवे और आदर्श कुमार गोयल की संयुक्त न्यायपीठ के सामने आए प्रकाश बनाम फूलवती के मुकदमे से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार का प्रश्न प्रत्यक्ष रूप से असंबंधित था। फूलवती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को यह तय करना था कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम- 2005 में किए गए एक संशोधन के फलस्वरूप संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में कन्याओं को अधिकार किस तारीख से उपलब्ध होंगे?
दो जजों की पीठिका का फैसला न्यायमूर्ति गोयल द्वारा सुनाया गया। मूल मसले पर सर्वोच्च अदालत ने यह निर्णय किया कि 2005 के संशोधन का प्रभाव वाद के अनुसार ही होगा। महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में अधिकार के कानून में बदली का लाभ पिछली तिथि से देने की मांग को अदालत ने नामंजूर कर दिया। न्यायाधीशों ने यह माना कि यह कानून सामाजिक सुधार के रूप में है। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि उसको पहले तय हो चुके मामलों में लागू करके गढ़े मुर्दे उखाड़ना कानूनन सही नहीं होगा।
फूलवती के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित मसले पर तो फैसला दिया ही, लेकिन आगे बढ़ते हुए एक अहम समस्या की ओर इशारा किया। बहस के दौरान दोनों पक्ष के वकीलों ने कई बार सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान मुस्लिम महिलाओं की शोचनीय पारिवारिक स्थिति की ओर आकर्षित किया था। तलाक दिए जाने पर उन्हें पारिवारिक सम्पत्ति से हाथ धोना पड़ता है। साथ में सम्मान व व्यक्तिगत सुरक्षा के अभाव में उन्हें अपने आगे के दिन गरीबी और उपेक्षा में बिताने पड़ते हैं। न्यायालय में बहस के दौरान संविधान में वर्णित आश्वासन के बावजूद मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की बात उठायी गयी थी। यह चिंता व्यक्त की गयी थी कि मुस्लिम महिलाओं के लिए सबसे कठिन समस्या मनमाने तलाक तथा शादीशुदा होने के बावजूद अपने पति द्वारा द्वितीय विवाह से होने वाले आत्मसम्मान के हनन एवं असुरक्षा का सामना करना है। न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल ने इस फैसले में यह स्वीकारोक्ति की है कि इस मजहब की महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव समाज के लिए एक ज्वलंत मसला है।
प्रकाश बनाम फूलवती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के मुस्लिम विवाह विषयक इस दृष्टिकोण को एक अनोखा या बिल्कुल नया रुख बताना या उसके पीछे कोई राजनीतिक अर्थ ढूंढना देश के न्यायिक घटनाक्रम से आंख बंद करना होगा। पिछले दो दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार विभिन्न मत-पंथों एवं मतावलंबियों के विषय में एक समान व्यवस्था की स्थापना के लिए 1950 में संविधान निर्माताओं के अरमान पूरा करने पर जोर दिया है। भारतीय संविधान ने अपने अनुच्छेद 44 द्वारा पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता की संरचना को वांछनीय घोषित किया था। विभिन्न मतावलंबियों के लिए एक समान न्यायिक व्यवस्था संविधान के निर्माणकर्ताओं का चहीता सपना था। अनुच्छेद 44 के शब्दों में राज्य को निर्देश था कि भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्रदान की जाए। इस प्रकार जहां फौजदारी विषयक कानून सबके लिए एक है, उसी देश के विभिन्न मत-पंथों या जातियों के व्यक्तिगत कानूनों को भी एक समान होना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि व्यक्तिगत कानून की फेहरिस्त में विवाह, सम्बन्ध विच्छेद, दत्तक गोद लेना या रख-रखाव विषयक मामले शामिल हैं। यह दूसरी बात है कि यह अनुच्छेद संविधान के उस भाग में समाविष्ट है, जो राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से संबंधित है। भारत में समान नागरिक संहिता के अपनाए जाने की दिशा में सबसे बड़ी अड़चन इस्लाम की व्यक्तिगत विधि है। यह शरिया कानून पर आधारित है। इसके तहत एक पक्षीय तलाक या बहुविवाह की प्रथा का प्रचलन मान्य है। नागरिक संहिता को मुस्लिम संप्रदाय की मजहब संबंधी व्यवस्था में हस्तक्षेप करने के लांछन और उसकी राजनीतिक कीमत से डरकर सत्तारूढ़ नेता इस विषय में कोई नया कदम उठाने से कतराते रहे। संविधान के लागू होने के बाद समान नागरिक संहिता लागू किए जाने का मामला एक प्रस्ताव ही रहा। पिछले दो दशकों में केन्द्र सरकार की इस दिशा में अनिच्छा सर्वविदित थी। इस वास्तविकता को समझते हुए सरला मुद्गल मामले के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने 1955 में यह स्वीकारोक्ति की थी कि किसी भी सभ्य देश में पंथ और व्यक्तिगत कानून के बीच में कुछ लेना-देना नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 44 को लागू करने की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए यह स्वीकार किया था कि हिन्दू, बौद्ध तथा जैन मतावलम्बियों ने अपनी भावनाओं को दरकिनार करके राष्टÑीय एकता तथा अखण्डता को गले लगाया है, जबकि अन्य समुदायों ने नहीं। उस फैसले के संदर्भ में ‘अन्य समुदायों’ से आशय मुस्लिम समाज की ओर था।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रांगण में तीसरी बार यह प्रश्न 1997 में ‘अमदाबाद वुमेन एक्शन ग्रुप’ के मामले में सुनवाई के दौरान उठाया गया था। उस समय उच्चतम न्यायालय के विचार से इस दिशा में संसद द्वारा कानून बनाने का विकल्प बेहतर था। निर्णय में यह साफ शब्दों में कहा गया था कि मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव को अदालत के अनुसार कानूनी नजरिए से नहीं देखना चाहिए। यह मामला राज्य के अधिकार क्षेत्र में शामिल मसले के रूप में है। फिर भी आगे कोई कदम न लेकर न्यायालय ने केवल यह लिखना ही उचित समझा कि आखिरकार यह राज्य की नीति का मसला है। उस समय तक न्यायविदों ने अनुच्छेद 44 को निर्देशक तत्वों की सीमा से बाहर देखने का प्रयास किया। उनके सामने यह सवाल था कि क्या समान नागरिक संहिता के अभाव से संबंधित नागरिक अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं? इस प्रश्न पर कोई अधिकृत न्यायिक निर्देश नहीं था।
चार वर्ष बाद सितम्बर 2001 में डेनियल लतीफ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों वाली पीठ ने यह स्वीकारोक्ति की कि अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा का अधिकार सम्मान सहित जिन्दगी बिताने की अपेक्षा करता है। इस दलील की दुहाई देते हुए न्यायालय का इशारा यह था कि मुस्लिम महिलाएं भी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित होने पर अदालत का दरवाजा खटखटा सकती हैं। इस मामले के फैसले ने यह स्पष्ट घोषित किया था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पोषण के रूप में आर्थिक सहायता को पर्याप्त भुगतान समझना भूल होगा।
सर्वोच्च न्यायालय में यह दलील दी गई थी कि मुस्लिम मजहब में चार विवाह तक जायज हैं और उस हालत में दो से अधिक संतान होना भी सामान्य है। इस दृष्टि से उनके विचार से दो बच्चों से अधिक के अभिभावक पर चुनाव के लिए नामांकन पर रोक गैरकानूनी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को नामंजूर करते हुए हरियाणा के कानून को वैध करार किया। मुस्लिम कानून के अन्दर चार पत्नियों को रखने वाला दो से अधिक सन्तान पर कोई बन्दिश न होने की दलील का खण्डन करते हुए अदालत ने स्पष्ट किया कि मजहब में चार से अधिक विवाह करने या दो से कम बच्चे पैदा करने की कोई रोक नहीं थी। पूरे देश में दो से अधिक सन्तान होने पर कोई कानूनी निषेध न होने की दलील को ठुकराते हुए न्यायमूर्ति लाहोटी ने अपने फैसले में कहा कि इस प्रकार का प्रावधान अन्य प्रदेशों द्वारा बनाए गए किसी कानून में सम्मिलित किया जा सकता है। फैसले में इस मूल तर्क पर जोर दिया गया कि यदि कोई कानून किसी तरह का अधिकार प्रदान करता है, तो वह उसकी सीमा और प्रक्रिया भी निर्धारित कर सकता है।
देश के अन्दर विभिन्न मत-पंथों की महिलाओं के अधिकारों में भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 15 द्वारा प्रदान की गई अपेक्षित समानता तथा अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है। इसके अतिरिक्त ऐसा भेदभाव अन्तरराष्टÑीय समझौते एवं संधियों में इंगित अनुकूल अपेक्षाओं के विपरीत होगा। फिलहाल अदालत ने महाधिवक्ता तथा ‘नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी’ को 23 नवंबर तक सूचना देने के बाद मामले को आगे बढ़ाने का मार्ग निश्चित कर दिया। नि:संदेह इस मसले का नतीजा समान नागरिक संहिता को लागू किए जाने की दिशा में महत्वपूर्ण आयाम होगा।
मेजर जनरल (प्रो.) नीलेन्द्र कुमार
(लेखक एमिटी लॉ स्कूल के निदेशक हैं)
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