|
टीपू सुल्तान और विवादों का हमेशा ही चोली-दामन का साथ रहा है। जब भी टीपू का नाम उठता है विवाद उसका पीछा करते चले आते हैं। हाल ही में कर्नाटक सरकार द्वारा मनाई गई टीपू जयंती ने इन विवादों को खत्म करने के बजाय उन्हें बढ़ा दिया है। जयंतियां हम मनाते हैं महान हस्तियों को याद करने के लिए, लेकिन टीपू जयंती पर उनके समर्थकों और विरोधियों में महाभारत छिड़ गया है। सेकुलर और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा लिखी पाठ्यपुस्तकों में यही पढ़ाया जाता है कि टीपू सेकुलर, साम्राज्यवाद विरोधी और जनकल्याणकारी शासक था। उनकी मुख्य दलील होती है टीपू ऐसा शासक था जिसने उपनिवेशवादी अंग्रेजों से युद्ध किया। अंग्रेज भी उसका लोहा मानते थे। इसलिए वह अठारहवीं सदी का स्वतंत्रता सेनानी था। अपने शासनकाल में उसने जनता की भलाई के लिए कई काम किए। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का हवाला देते हुए ये लोग कहते हैं कि वह पहला 'मिसाइलमैन' था।
इसी आधार पर टीपू को महानायक घोषित कर कर्नाटक सरकार ने उसकी जयंती मनाई। उसके पीछे का उद्देश्य था मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण। लेकिन हुआ उल्टा ही। हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों ने उसका विरोध करना शुरू किया। इन संगठनों का कहना है टीपू सेकुलर नहीं, असहिष्णु, मतान्ध और अत्याचारी शासक था। वह दक्षिण का औरंगजेब था। उसने हिन्दू और ईसाइयों आदि गैर-मुस्लिमों पर बेहद जुल्म ढाए, लाखों लोगों का जबरन कन्वर्जन किया, हजारों मंदिर तोडे़, उसने चचार्ें को भी नहीं बख्शा। आरोप तो यहां तक लग रहे हैं कि जिस टीपू को देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी कहा जा रहा है वह असल में देशद्रोही था, जिसने कई विदेशियों को भारत पर हमला करने के लिए न्योता।
टीपू पर बहस 1990 में भी हुई थी जब संजय खान ने उस पर टीवी धारावाहिक बनाया था। उसमें भगवान गिडवानी के उपन्यास 'स्वॉर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' के आधार पर टीपू को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी और सेकुलर शासक के तौर पर चित्रित किया गया था। यह ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत था। उस समय एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुई थी, जिसमें टीपू का कच्चा चिट्ठा खोला गया था और कहा गया था कि यह धारावाहिक टीपू के बारे में ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत नहीं करता। तब सर्वोच्च न्यायालय ने संजय खान को हर कड़ी के पहले यह सूचना देने को कहा था कि यह धारावाहिक इतिहास पर आधारित नहीं है, वरन् 'स्वॉर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' उपन्यास का नाट्य रूपांतरण है। हाल ही में एक टीवी बहस में इतिहासकारों ने एक-एक कर टीपू का कच्चा चिट्ठा खोला तो वहां उपस्थित संजय खान के पास उसका कोई जवाब नहीं था। वे कहते रहे कि उन्होंने तो सिंध के हिन्दू महासभाई नेता के बेटे भगवान गिडवानी के उपन्यास पर धारावाहिक बनाया था। उस पर बेकार में विवाद पैदा किया जा रहा है। लेकिन बाकी सारे इतिहासकारों ने माना कि टीपू अत्याचारी और मतान्ध शासक था।
अब सवाल उठता है कि क्या कहते हैं इतिहासकार? संयोगवश टीपू के बारे में ज्यादातर तथ्य अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं। दुर्भाग्यवश टीपू जयंती का आयोजन करने वाली कर्नाटक सरकार ने उन तथ्यों को जानने की कोशिश ही नहीं की। अपने चंपू इतिहासकारों की बातें मानकर टीपू जयंती मनाने का फैसला कर डाला। इस चक्कर में टीपू जयंती गलत तारीख को मना डाली। टीपू का जन्मदिन 20 नवंबर को पड़ता है, लेकिन सरकार ने टीपू की जयंती 10 नवंबर को छोटी दिवाली के दिन मनाने का फैसला किया। दरअसल, यह वह दिन है जिस दिन टीपू ने 700 मेलकोट आयंगार ब्राह्मणों को फांसी पर चढ़ाया था। क्या कर्नाटक सरकार इस हत्याकांड की सालगिरह मना रही थी? केवल हिन्दू ही नहीं, ईसाई भी टीपू जयंती का विरोध कर रहे हैं। ईसाई नेता अल्बान मेनेजेस ने कहा कि टीपू ने 1784 में मंगलौर के मिलेग्रेस चर्च को तहस-नहस कर दिया था। टीपू ने अंग्रेजों के लिए जासूसी के शक में 60 हजार कैथोलिकों को बंदी भी बना लिया था और उन्हें मैसूर तक पैदल चलने के लिए मजबूर किया था, जिस वजह से 4 हजार कैथोलिकों की मौत हो गई थी।
कर्नाटक के अलावा केरल और तमिलनाडु भी टीपू के अत्याचारों का शिकार बने। मैसूर सल्तनत पर टीपू का शासन सन् 1782 से 1799 तक रहा और इस दौरान अंग्रेजों द्वारा शासित तमिलनाडु पर उसने कई बार चढ़ाई की थी। उस दौरान टीपू दुश्मन सेना के पकड़े गए सभी सैनिकों का कन्वर्जन करवाकर अपनी सेना में शामिल करता था। इसके अलावा टीपू के समय बड़ी संख्या में आम तमिलों को भी मुसलमान बनाया गया ।
टीपू ने केरल के मालाबार क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर कन्वर्जन करवाया था और इसकी पुष्टि खुद उसके लिखे पत्रों से होती है। 19 जनवरी, 1790 को बुरदुज जमाउन खान को एक पत्र में टीपू ने लिखा है, 'क्या आपको पता है कि हाल ही में मैंने मालाबार पर एक बड़ी जीत दर्ज की है और चार लाख से ज्यादा हिन्दुओं का इस्लाम में कन्वर्जन करवाया है?'19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार में अधिकारी रहे लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब 'मालाबार मैनुअल' में लिखा है कि कैसे टीपू ने अपने 30,000 सैनिकों के दल के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी। टीपू हाथी पर सवार था और उसके पीछे उसकी विशाल सेना चल रही थी। पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फांसी दी गई। उनके बच्चों को उन्हीं के गले में बांध पर लटकाया गया।
टीपू विरोधियों का कहना है कि टीपू ने कर्नाटक के कूर्ग और मैंगलोर इलाके में बड़े पैमाने पर हिन्दुओं की हत्या की थी और उन्हें जबरन मुसलमान बनाया था। इस दावे की पुष्टि इतिहास भी करता है। 1788 में टीपू की सेना ने कूर्ग पर आक्रमण किया था और इस दौरान पूरे के पूरे गांव जला दिए गए थे। टीपू के एक दरबारी और जीवनी लेखक मीर हुसैन किरमानी ने इन हमलों के बारे में विस्तार से लिखा है। ये सारे तथ्य मौजूद होने के बावजूद टीपू के समर्थक कहते हैं कि उस जमाने में यह सब सामान्य बात थी। राजा जब एक-दूसरे के राज्यों पर कब्जा करते थे तो लूटपाट और अत्याचार करते ही थे। लेकिन इतिहास में इस बात के भरपूर प्रमाण हैं कि टीपू ने जानबूझकर गैर-मुसलमानों के विरुद्ध जुल्म किए। टीपू ने मैसूर की गद्दी पर बैठने के बाद मैसूर को मुसलमान राज्य घोषित कर दिया। मुसलमान सुल्तानों की परम्परा के अनुसार टीपू ने एक आम दरबार में घोषणा की, 'मैं सभी काफिरों को मुसलमान बनाकर रहूंगा।' तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया।
टीपू ने अपने राज्य में लगभग 5 लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया। हजारों की संख्या में कत्ल कराए। टीपू के शब्दों में, 'यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए, तब भी मैं हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं रुकंूगा।'(फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल)।
कई जगहों पर उस पत्र का भी जिक्र मिलता है, जिसे टीपू ने सईद अब्दुल दुलाई और अपने एक अधिकारी जमान खान के नाम लिखा है। पत्र के अनुसार टीपू लिखता है, 'पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिन्दुओं को मुसलमान बना दिया है। केवल कोचिन स्टेट के सीमावर्ती इलाकों के कुछ लोगों का कन्वर्जन अभी नहीं कराया जा सका है। मैं जल्द ही इसमें भी कामयाबी हासिल कर लूंगा।'1964 में प्रकाशित किताब 'लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान' का जिक्र भी जरूरी है। इसमें लिखा गया है कि उसने तब मालाबार क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा हिन्दुओं और 70,000 से ज्यादा ईसाइयों को मुसलमान मत अपनाने के लिए मजबूर किया। इस किताब के अनुसार कन्वर्जन टीपू का असल मकसद था।
इन तथ्यों को सेकुलर इतिहासकार भी नकारते नहीं हैं, लेकिन वे कहते हैं कि अंग्रेज इतिहासकारों ने अपनी फूट डालो, राज करो की नीति के तहत इस तरह की बातें लिखी हैं। लेकिन जब उनसे कहा जाता है कि ऐसा ही टीपू के दरबारी इतिहासकारों ने भी लिखा है तो वे कहते हैं वे तो टीपू के कारनामों को बढ़ाचढ़ाकर दिखाना ही चाहते थे। टीपू के सेकुलर होने के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि टीपू ने कई मंदिरों को दान और जमीनें भी दीं, लेकिन एक तरफ लगभग आठ हजार मंदिरों को तोड़ना दूसरी तरफ चंद मंदिरों को अपने निहित स्वार्थ के कारण संरक्षण देना टीपू को सेकुलर तो नहीं बना सकता! 'दी मैसूर गजेटिअर' में लिखा है,'टीपू ने लगभग 1000 मंदिरों को ध्वस्त किया।'
टीपू के जमाने में केवल अंग्रेज ही नहीं, कई विदेशी ताकतों जैसे फ्रांस, डच,पुतर्गाली आदि ने भी भारत के कई इलाकों पर कब्जा किया हुआ था और ये ताकतें आपस में भी लड़ती रहती थीं। इनमें टीपू फ्रांसीसियों के साथ था। उसने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए फ्रांसीसियों के सहयोग से अत्याधुनिक सुसंगठित सेना खड़ी की थी। शुरुआत मे फ्रेंच लोगों ने उसका साथ दिया, लेकिन युद्ध के दौरान उसके द्वारा किए गए नरसंहार, जबरन कन्वर्जन और क्रूरतापूर्ण यातनाओं आदि अपराधों को देखकर वे स्तब्ध रह गए। टीपू के साथ लड़ने के लिए जो फ्रेंच अफसर भेजे गए थे उन्होंने लड़ने से इंकार कर दिया और वापस लौट गए। ऐसे पक्के ऐतिहासिक सबूत मिले हैं जिनके अनुसार उसने फ्रेंच शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भगाने और फिर उनके साथ भारत के बंटवारे की बात की। ऐसा भी जिक्र मिलता है कि उसने तब अफगान शासक जमान शाह को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दिया, ताकि यहां इस्लाम को और बढ़ावा मिल सके।
पिछले दिनों एक टीवी बहस में भारतीय इतिहास परिषद के सदस्य सरदेन्दु मुखर्जी ने आरोप लगाया था कि जिहाद को बढ़ावा देने के लिए कर्नाटक सरकार टीपू जयंती मना रही है। यह बात कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकती है, लेकिन टीपू ने अपनी तलवार पर भी खुदवाया था, 'मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि मैं संसार से काफिरों (गैर-मुसलमानों) को समाप्त कर दूं।' ऐसे कितने और ऐतिहासिक तथ्य टीपू को एक मतान्ध, निर्दयी, और हिन्दुओं का संहारक साबित करते हैं। टीपू पर छिड़ी बहस में सबसे निंदनीय भूमिका नाटककार और लेखक गिरीश कर्नाड की रही। उन्होंने कहा, 'मैं महसूस करता हूं कि अगर टीपू मुसलमान नहीं, हिन्दू होता तो उसे कर्नाटक में वही दर्जा मिलता जो महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज को हासिल है।' दरअसल, यह बयान पढ़ने के बाद लगता है कि कर्नाड ने सही ढंग से न तो शिवाजी के बारे में पढ़ा है, न ही टीपू के बारे में। वरना वे टीपू की तुलना शिवाजी से नहीं करते। शिवाजी पर तो मुसलमान भी असहिष्णुता बरतने का आरोप नहीं लगाते।
शिवाजी ने न तो मुसलमानों की मस्जिदें तोड़ीं, न ही जबरन कन्वर्जन कराया। ऐसे में शिवाजी की टीपू से तुलना करना अनुचित है। टीपू का विरोध उसके मुसलमान होने की वजह से नहीं, उसकी मतान्धता की वजह से हो रहा है। -सतीश पेडणेकर
टिप्पणियाँ