शियाओं का संहार और 'खुरासान' का अर्थ
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शियाओं का संहार और 'खुरासान' का अर्थ

by
Nov 2, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 02 Nov 2015 11:38:19

बाईस अक्तूबर, 2015 को कराची, पाकिस्तान में एक शिया मस्जिद पर हमला कर दस लोगों को मार डाला गया। यह कोई अपवाद या नई परिघटना नहीं है। हालिया दौर में सीरिया, इराक, कुवैत आदि क्षेत्रों में 'इस्लामी स्टेट' ने इसे लोमहर्षक जरूर बना दिया है, क्योंकि वे शियाओं, कुदोंर्, यजीदियों को बर्बरतापूर्वक मारकर उसका वीडियो भी जारी करते हैं।
उदाहरणार्थ, विगत 10 जून को इस्लामी स्टेट ने इराक के मोसुल में एक कैदखाने पर हमला कर कैदियों में से सभी शियाओं को चुनकर ट्रकों में भरा। उन शियाओं की संख्या कुल 679 थी। उन्हें एक सुनसान स्थान पर ले जाकर गोली मार दी गई। संयोगवश बीस लोगों ने मरने का नाटक कर अपनी जान बचा ली, जिनकी बाद में संयुक्त राष्ट्र अधिकारियों को जानकारी हुई। भारतीय मीडिया ऐसे समाचारों पर प्राय: गौर तक नहीं करता!
मगर यदि ऐसी घटनाओं की शंृखला सामने रखकर, उससे संबंधित बातों, घोषणाओं, सिद्धांतों का विश्लेषण करें, तब दिखेगा कि ये किस कदर हमारे मर्मभूत हितों से जुड़ी हैं। कम से कम इसलिए भी, क्योंकि इस्लामी स्टेट ने अपने नक्शे में भारत को 'खुरासान' घोषित कर भविष्य में कब्जाने की घोषणा कर रखी है। इसी संगठन से जुड़ने के लिए भारतीय मुसलमानों के बीच काम भी हो रहा है। कुछ समय पहले एक बड़े भारतीय 'आलिम' द्वारा 'लाखों की संख्या में' मुस्लिम लड़ाकों को इस्लामी स्टेट की 'सेवा' में भेजने की पेशकश के समाचार आए थे, जिस पर पाकिस्तानी अखबार में चर्चा हुई, लेकिन यहां मीडिया दिग्गजों को मोदी सरकार की छीछालेदारी लायक झूठे-सच्चे प्रसंगों के सिवाय कुछ विचारणीय नहीं लगता।
हालांकि यह मूलत: हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों की मंददृष्टि का ही विस्तारित रूप है। यदि लेखकों, कवियों ने इस बिन्दु पर कोई चिन्ता, संवेदना दिखाई होती, इसके विरुद्ध कोई सामूहिक अभियान चलाया होता, कि वे इस्लामी स्टेट के साम्राज्यवादी दावे और बर्बरता से आहत हैं, तो कुछ तो बात चलती!
मगर नहीं। हमारे मर्मभूत हितों से जुड़ने पर भी शिया हत्याएं भारतीय मीडिया, राजनीति और बौद्धिकता के रडार पर कहीं नहीं हैं। यह मर्मभूत इसलिए है, क्योंकि शियाओं की हत्याएं करने वाले उन्हें 'गैर-मुस्लिम' कह कर ये हत्याएं करते हैं। अर्थात, किसी का गैर-मुस्लिम होना उसे मार डालने का पर्याप्त और उचित कारण है! क्या यह दुनिया के सभी गैर-मुसलमानों के लिए विचारणीय चिन्ता नहीं होनी चाहिए? शियाओं को मारने वाले इस्लामी संगठन, चाहे वे पाकिस्तानी, अफगानी या इराकी हों, चाहे इस्लामी स्टेट, अलकायदा या लश्करे-झांगवी हों, सभी डंके की चोट पर कहते हैं कि 'काफिरों को मार डालना उन का अधिकार और कर्तव्य है', कि वे ऐसा करके 'इस्लामी उसूलों का पालन' कर रहे हैं।
दूसरे शब्दों में, वे खुले तौर पर पूरी दुनिया को गैर-मुस्लिमों से रहित कर देने का उसूल रखते हैं। यह केवल शाब्दिक घोषणा या चुनावी लफ्फाजी या किसी एक देश या किसी एक सुन्नी संगठन का लक्ष्य नहीं है, यही इन सालाना, सामूहिक, नियमित शिया हत्याओं से समझना आरंभ करना चाहिए। आरंभ का अर्थ यह कि यदि शियाओं का काम तमाम हो गया, तो दूसरे 'गैर-मुसलमानोंं' की बारी भी निस्संदेह, और पूरी तीव्रता तथा भारी भूख के साथ आएगी।
इसलिए, भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों और मीडिया-महारथियों की पहली मूर्खता इस तथ्य के प्रति नासमझी में है कि शियाओं की हत्या मुसलमानों की आपसी हत्याएं नहीं हैं। ये आपसी तब होतीं, जब सुन्नी संगठन व सिद्धांतकार पहले शियाओं को मुस्लिम मानते!
अत: इस बुनियादी सच की अनदेखी करना सभी गैर-मुसलमानों के लिए आत्मघाती भूल है। विशेषकर इसलिए कि इस सिद्धांत के अनुगामियों की ताकत, कटिबद्धता और अंधविश्वास अंतरराष्ट्रीय हैं। अकेले पाकिस्तान में हर साल सैकड़ों शियाओं की सामूहिक हत्याएं हुई हैं। लश्करे-झांगवी, सिपह-ए-सहाबा, जैश-उल-इस्लाम, पाकिस्तानी तालिबान आदि कई संगठन इसे अंजाम देते रहते हैं। उनके प्रवक्ता ठसक से कहते हैं, 'शिया लोग काफिर हैं। हम उन्हें मारते रहेंगे।'
यानी, शियाओं को गैर-मुस्लिम मानकर सारी हत्याएं होती हैं। इस पर अल-जजीरा चैनल पर एक घंटे का विमर्श आया था। मगर हमारे मीडिया में इसे साफ नजरअंदाज किया जाता रहा है। जब कि यह भी 'सांप्रदायिक', 'टारगेटेड वायलेंस' है। पर इन पर कोई चर्चा, बयानबाजी, आंदोलन आदि नहीं होता! क्या यह हमारे सामूहिक राष्ट्रीय अज्ञान और बौद्धिक-राजनीतिक दिवालिएपन का खुला इश्तहार नहीं है? आखिर इस और ऐसे अनेक संबंधित बिन्दुओं पर हमारे सेकुलर, लिबरल, सामाजिक न्यायवादी विचार क्यों नहीं करते? यह प्रश्न विशेषकर उन पत्रकारों, बौद्धिकों, राजनीति-कर्मियों के लिए ही है जो संघ-परिवार के विरुद्ध या गो-मांस भक्षण के पक्ष में, या 'ब्राह्मणवादी' मानसिकता के विरुद्ध लड़ते रहना ही अपना एकमात्र काम मानते हैं। वे चाहे अपने को हिन्दू न मानते हों, मगर वे 'गैर-मुस्लिम' तो हैं ही! इसलिए, देर-सवेर इस्लामी स्टेट और सिपह-ए-साहिबा के निशाने पर उनकी भी बारी आएगी। आखिर वे 'खुरासान' वाले नक्शे में ही तो कहीं रहते हैं।
इसीलिए, उन्हें और हमें, सबसे पहले इस पर विचार करना चाहिए कि गैर-मुसलमानों को मारना, खत्म करना किस विचारधारा के तहत होता है? चाहे मारे जाने वाले शिया, यजीदी हों या कोई भी गैर-मुस्लिम। सामूहिक संहार की इस अंतहीन, बर्बर शृंखला पर हमारे लेखकों, संपादकों, प्रोफेसरों और नेताओं की स्थाई चुप्पी बहुत कुछ कहती है।
सबसे प्रमुख बात यही है कि शियाओं का सामूहिक संहार करने वाले कोई मतिहीन, बिगड़े हुए, 'मुट्ठीभर सिरफिरे' भर नहीं हैंं, जो इस्लाम को नहीं समझते। यदि ऐसा होता, तो फिर चुप्पी नहीं रहती। खुलकर उनकी निंदा होती, कड़ी कार्रवाई की मांग की जाती, और कुछ कार्रवाई होती भी। हम बखूबी जानते हैं कि 'इस्लाम के विरुद्ध' कुछ भी होने पर हमारे मुस्लिम प्रवक्ता, वामपंथी, सेकुलर, लिबरल यानी सभी प्रगल्भ साधनवान बौद्धिक किस तरह, और किन तरीकों से आवेशित होते हैं। यानी, जिन पर वे गंभीर होते हैं। 

मगर शिया संहारों पर ऐसा कभी नहीं होता। क्या यह ठहरकर सोचने की बात नहीं? जबकि कई क्षेत्रों में शियाओं के पूर्ण संहार का खतरा मंडरा रहा है। क्वेटा के शिया अपने घरों, बस्तियों में बंद-से रहते रहे हैं। बाहर आए नहीं, कि मारे जाने का खतरा! यह वही शिया-हजारा समुदाय है, जिसके बालक-नायक हसन-को अफगानी मूल के लेखक खालिद हुसैनी ने अपने विश्व-प्रसिद्घ उपन्यास 'काइट रनर' में अमर कर दिया। उस कथा-क्रम में भी कई बार दिखता है कि सुन्नी लड़के शियाओं को पशु-वत् हेय समझते थे। कथा कई दशक पहले की पृष्ठभूमि में है। यानी, इस्लामी स्टेट जो कर रहा है, उस में कोई नई बात या विकृति नहीं।
सीरिया, इराक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान की घटनाएं दिखा रही हैं कि विचारों में नयापन नहीं, बल्कि केवल उसके क्रियान्वयन से हालत संगीन लगती है। अनेक संगठन शिया-संहार में लगे हैं। यह इतना नियमित है कि बलूचिस्तान के शिया नेता सैयद दाउद आगा कहते हैं, 'हम लोग तो बस कब्र खोदने वाले समुदाय बन गए हैं। वे हमारी मस्जिदों के सामने आ-आकर 'मार डालो' के आह्वान करते रहते हैं।'
हर शिया त्योहार के समय शिया-संहार का मौसम आरंभ हो जाता है! विशेषकर शिया तीर्थयात्रियों का, जो अपने श्रद्धास्थल जा रहे होते हैं। अर्थात् राजनीतिक नहीं, बल्कि मजहबी हत्याएं। अपमान अलग। यहां तक कि स्वयं मदीना के बाकी मजार (जहां पैगम्बर मोहम्मद के परिवार की कब्रें हैं) जाने वाले शिया श्रद्धालुओं को सऊदी पुलिस भी सताती है, जब वे अपनी प्रार्थनाएं पढ़ते हैं। सऊदी शासन के अनुसार वहां सुन्नी प्रार्थना ही पढ़ने की अनुमति है। यदि शिया लोग उससे भिन्न प्रार्थना पढ़ें, तो सऊदी पुलिस उन्हें ठोकर मारकर भगाती है।
मगर इन सभी बातों पर कोई अंतरराष्ट्रीय आवाज नहीं उठती। मुस्लिम आवाज भी नहीं, इसे नोट करें। विशेषकर हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन समुदाय के लोग इस बात पर ध्यान दें-कि आखिर क्यों दुनिया के मुस्लिम देश, संयुक्त राष्ट्र में या सड़कों पर उतरकर इस संहार के विरुद्ध नहीं बोलते हैं? उत्तर है: इसलिए क्योंकि दुनियाभर में अधिकांश मुसलमान सुन्नी हैं, और इसलिए शियाओं को गैर-मुस्लिम मानकर उनके मारे जाने पर चिन्ता महसूस नहीं करते। इसीलिए कोई शोर-शराबा, आवेश प्रदर्शन आदि         नहीं होता।
यदि यह तथ्य सभी हिन्दुओं, बौद्धोें, तथा सेकुलर-वामपंथी-दलितवादी हिन्दुओं के लिए भी रोंगटे खड़े करने वाली बात नहीं, तो और क्या है कि प्रतिनिधि इस्लाम, और उसके मानने वाले विश्वव्यापी समूह, आमतौर पर गैर-मुसलमानों को मार डालने योग्य मानते हों? शियाओं के नियमित संहार पर आम मुस्लिम मौन का इसके सिवाय कोई अर्थ नहीं। इस मौन की तुलना किसी पुलिस मुठभेड़ में एक संदिग्ध जिहादी या किसी भीड़ के हाथों किसी मुसलमान के भी मरने पर होने वाली व्यापक चीख-पुकार से करें, तो दंग रह जाना पड़ेगा!
क्या जानवरों की तरह सालाना मारे जाने वाले सैकड़ों शियाओं ('गैर-मुसलमानों') की जान एक सुन्नी आंतकी से भी सस्ती नहीं है?
शियाओं के नियमित, विश्व-व्यापी संहार को सही संदर्भ में देखें। तब यही अर्थ निकलेगा कि हमारे राष्ट्रपति समेत अधिकांश भारतीय गैर-मुस्लिम नेता, बुद्धिजीवी, लेखक आदि अपने को उन शियाओं जैसी ही सस्ती, महत्वहीन जान समझते हैं जिन्हें सैकड़ों, हजारों की संख्या में खत्म किया जाना कोई बड़ी बात नहीं! मगर हां, किसी एक 'मुस्लिम' को भी, किसी हाल में छुआ नहीं जाना चाहिए अन्यथा उनकी वेदना, संवेदना, उद्वेलना की सीमा नहीं रहती।  
उस संहारों को अंग्रेजी मीडिया भ्रमवश 'शिया-सुन्नी प्रतिद्वंद्विता' बताता है, जो गलत है। कभी शियाओं द्वारा सुन्नियों के संहार की खबर नहीं आती। जिन मुस्लिम देशों में शिया बहुमत है, वहां भी जुल्म शियाओं पर ही है। जैसे, इराक और बहरीन। सद्दाम हुसैन का शासन सुन्नी राज था और शिया दूसरे दर्जे के शासित थे। बहरीन में भी शिया बहुसंख्या पर सुन्नी खलीफा का कठोर शासन है। वहां लोकतंत्र की मांग करने वाले शियाओं पर गोलियां चलीं, और कइयों को अदालत ने भी मृत्युदंड दिया। किसलिए? जुलूस निकालकर बराबरी की मांग करने के लिए!
कुछ वक्त पहले बहरीन पुलिस ने शियाओं की 35 मस्जिदें, हुसैनिया और मजहबी स्थान तोड़कर ध्वस्त कर दिए। अब पुन: एक तुलना करें-बाबरी ढांचे (वह भी शियाओं का था) पर आक्रोश दिखाने वाले हमारे बौद्धिक लोग बहरीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अरब क्षेत्रों में भी ध्वस्त की जाने वाली मस्जिदों पर ऐसी मर्मभेदी चुप्पी कैसे रखते हैं? उत्तर है: घोर अज्ञान। वे इस्लाम को नहीं जानते, इसीलिए अंधों की तरह दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। कौन उनका इस्तेमाल करते हैं, अभी इस प्रश्न को छोड़ दें।
शियाओं का सामूहिक, नियमित संहार उन्हें समूल मिटाने के उद्देश्य से हो रहा है। सुन्नी प्रवक्ता यह छिपाते भी नहीं। सीरिया में चल रहे घटनाक्रम में भी इसकी झलक है। सुन्नी आगमन के समाचार से शिया गांव भय से खाली हो जाते हैं। इस्लामी स्टेट से पहले अलकायदा ने भी पूरी दुनिया में शियाओं को खत्म करने का बाकायदा ऐलान कर रखा था।
इसीलिए किसी सच्चे मानवतावादी को अचरज हो सकता है कि जहां अमरीकी या भारतीय सैनिकों द्वारा गलती से या आत्मरक्षा में भी, एक भी मुसलमान के मरने पर जो बावेला मचाया जाता है, वहां जहां-तहां 10 या 86 या 679 शियाओं के आएदिन सामूहिक संहारों पर रहस्यमय ढंग से मौन क्यों रहता है?
निस्संदेह, यह सोचा-समझा मौन है। तब मानना होगा कि कभी-कभार, किसी भारतीय पुलिसकर्मी या भीड़ के हाथों मरने वाले किसी भी मुस्लिम की मौत पर होने वाला हंगामा राजनीति-प्रेरित होता है। अन्यथा, सुन्नियों के हाथों सालाना, सामूहिक मरने वाले शियाओं के लिए भी कुछ होता। चुप्पी इसलिए भी है कि अन्यथा उस कृत्रिम प्रचार का मुलम्मा उतरेगा जिसमें इस्लाम को 'भाईचारे और समानता' का मजहब बताया जाता है। चुप्पी टूटी तो असहिष्णुता और वैश्विक प्रभुत्व की राजनीतिक विचारधारा को छिपाना कठिन हो जाएगा। फिर चुप्पी इसलिए भी रहती है, क्योंकि इसमें अमरीका, इस्रायल या संघ-भाजपा को दोषी बताने की गुंजाइश           नहीं मिलती।
अत: लब्बो-लुआव यह कि विशुद्ध इस्लामी-सुन्नी विचारधारा ईसाइयों, हिन्दुओं, बौद्धों तो क्या, भिन्न मतावलंबी मुसलमानों तक को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं। यह किसी प्रतिद्वंद्विता का मामला नहीं, क्योंकि शिया प्रतिद्वंद्विता की स्थिति में हैं ही नहीं। विश्व मुस्लिम जनसंख्या में वे महज 12-13 प्रतिशत हैं। उनका सुन्नियों से बराबरी का राजनीतिक अधिकार मांगना भी कई मुस्लिम देशों में अकल्पनीय है। स्वयं सऊदी अरब में कानूनी तौर पर शिया हीन दर्जे के नागरिक हैं।  
यानी, शियाओं के प्रति यह नीति केवल इस्लामी स्टेट जैसे आतंकी सुन्नियों की नहीं। सामान्य उलेमा भी शियाओं के विरुद्ध वही घृणा रखते हैं। जब सऊदी अरब के प्रमुख विश्वविद्यालय (जहां सरकारी मौलवियों का प्रशिक्षण होता है) के प्रोफेसर अब्दुल रहमान अल-बराक से पूछा गया कि क्या सुन्नियों द्वारा शियाओं के विरुद्ध जिहाद जायज है? उनका उत्तर था-यदि किसी सुन्नी बहुल देश में शिया अपने विश्वासों का खुले रूप से पालन करने की जिद करें तो सुन्नी राज्य के पास इस के सिवाय कोई चारा नहीं कि वह शियाओं के विरुद्ध युद्ध छेड़ दे। इस सहज इस्लामी विचार का निहितार्थ सभी गैर-मुस्लिमों को ठंडे दिमाग से समझने की कोशिश करनी चाहिए। 

शंकर शरण

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