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कुछ वर्ष पहले यूरोप के आणविक शोध संस्थान में किए गए कथित 'गॉड पार्टिकल' के महाप्रयोग की सफलता सुर्खियां बनी थी। वैज्ञानिकों और आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने-अपने विचार भी रखे थे। ईश्वरीय भाव और विज्ञानधारा कितनी एक है, आज के विज्ञान में इस पर गाहे-बगाहे बात होनी शुरू हो चुकी है। बेशक रिचर्ड डॉकिन्स जैसे कुछ वैज्ञानिक आज भी ईश्वर के अनस्तित्व या ईश्वर के अवसान के दावे ठोकते फिर रहे हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य को हमेशा से एक आदिशक्ति की तलाश रही है, जिसे वह सृष्टि निर्माता की संज्ञा दे सके। इसका कारण मात्र यह है कि मनुष्य अपनी सोच के स्तर पर विशालकाय होने के बावजूद इतना छोटा है कि वह उस निराकार सृष्टि निर्माता को साकार रूप में ही सोचना चाहता है।
प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं कुछ विचारों धर्म, दर्शन और विज्ञान जैसे विषयों के माध्यम से परखने का प्रयास किया गया है। लेखक ने आधारभूत तौर पर भगवान बुद्ध और उनके शांति संदेशों से बात शुरू की है। वह कहते हैं कि आज समय आ पहुंचा है जबकि बुद्ध के संदेश जनमानस की जरूरतों पर खरे उतरने शुरू हो गए हैं और उनके जरिए सामाजिक सौहार्द की धाराएं समाज में बहनी शुरू होंगी। इस संदर्भ में लेखक बुद्ध के जीवन-दर्शन और कुछ चिरस्थायी प्रश्नों पर बुद्ध के विचारों को भी परखते हैं। औपनिषदिक विचार भूमि से प्रेरणा लेकर बुद्ध ने अपने विचारों से उस चिंतन धारा को और समृद्ध किया जिसे 'भारतीय मनीषा' कहा गया है। लेखक के अनुसार बुद्ध अपनी सीमाओं को जानते थे और कई बार अत्यंत जटिल प्रश्नों का उत्तर देने के स्थान पर अपने अनुयायियों और आमजन को सीधे-सीधे ध्यान लगाने को कहते थे।
पुस्तक में गौतम बुद्ध के शांति संदेशों के बरक्स कुछ विदेशी विचारधाराओं को भी रखा गया है, जिनकी आहट पुस्तक को सभ्यता विमर्श का प्रारूप प्रदान करती है। यहां विदेशी विचारभूमियों से मतलब इब्राहीमी मतों (यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम) से है, जहां बात उनके उत्थान से लेकर शुरू होती है। लेखक इन मतों की चिंतनधाराओं के बीहड़ से गुजरता है। इस मार्ग में सभ्यता के उत्थान-पतन की कहानी भी चलती है और विज्ञान भी अपने आदिकालीन और आधुनिक रूप में प्रकट होता है। इन प्रयासों से लेखक की एक ऐसी छटपटाहट नजर आती है, जिसमें वह समूची मानव जाति की खूबियों-खामियों और ज्ञान-विज्ञान में उसके प्रयासों को एक ही मंच से कह डालने का प्रयास करता नजर आता है। बेशक, यह प्रयास बेमानी नहीं, क्योंकि इस दायरे में लेखक जिन संदर्भों का हवाला दे रहा है वहां वैज्ञानिक तर्क और आध्यात्मिक अनुभूतियों के अद्भुत संगम नजर आते हैं। एक स्थान पर लेखक कहता है कि विज्ञान के कई महानुभाव प्राचीन मिथकों के प्रति बहुत ग्रहणशील रहे हैं। फिर भी विज्ञान की सीमित पहुंच और अनंत जगत को पाटने वाली आध्यात्मिक अनुभूतियों के बीच के सेतु को समझते हुए भी न समझने की धृष्टता यदि मानवीय है तो उसे पूर्णतया आत्मसात करना भी मानवीय सीमा को ही दर्शाता है। देकार्त का कथन है,'उस विराट ज्ञानवृक्ष की जड़ आधिभौतिक अध्यात्म है, भौतिक विज्ञान उसका धड़ तथा अन्य सभी विषय उसके डाल-पात हैं।' तो कहना न होगा कि विज्ञान के आदि रूप के बारे में सोचने पर एक अलौकिक दृष्टिकोण भी उभरता है। हालांकि इसे बिना हिचक अपना लेना किसी भी विज्ञानी मस्तिष्क के लिए कड़ी चुनौती होती है, लेकिन पौराणिक संदर्भों की नए सिरे से हो रही विवेचना से एक ओर जहां कई मिथक टूटते हैं तो कुछ नए मिथक अस्तित्व में भी आते हैं। उदाहरणार्थ एक नवीन क्रांतिकारी विचार जिसे जीव विज्ञानी रॉबर्ट लैंजा द्वारा प्रस्तावित किया गया है कि अब ब्रह्मांडीय संरचना को समझने के लिए आधारभूत विषय भौतिकी से बदलकर जीव विज्ञान को बनाना चाहिए क्योंकि ब्रह्मांड अपने आप में एक 'चैतन्य स्थिति' है।
लेखक पुस्तक में भौतिक विज्ञान के सबसे बड़े नामों के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि ब्रह्मांडीय संरचना और उसकी परिणति पर जितनी गहराई से वैज्ञानिक मानस ने विचारा है, उतनी ही गहन सोच उस विषय पर हमारे आध्यात्मिक गुरुओं की भी रही है। कई स्थानों पर इन दो धुर विपरीत चिंतन धाराओं को एकमेव करने का प्रयास करने वाले भी सामने आए। फ्रित्जाफ कैपरा की पुस्तक 'द ताओ ऑफ फिजिक्स' में पूरब की आध्यात्मिक संेवेदना और पश्चिम के तर्क प्रधान दृष्टिकोण के बीच की समान धाराओं की अनोखी पड़ताल थी, जिसके दृष्टांत भी यहां प्राप्त किए जा सकते हैं। दरअसल, देेवतुल्य नास्तिक का निचोड़ इन कुछ शब्दों में भी निहित दिखता है- आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म वही है जो आत्मोपलब्धि में सहायक बने। इसी विचार को केंद्र में रखते हुए लेखक समकालीन समाज की उठापटक का भी आकलन करता है।
पुस्तक का एक बड़ा पक्ष इब्राहीमी मतों की आपसी खींचतान पर भी केंद्रित है। आज का इस्लाम क्यों ईसाइयत और यहूदी समाज के खिलाफ है, सूफियाना सोच को दरकिनार कर वह क्यों कट्टर रास्ता अख्तियार किए है? इसके बरक्स, ईसाई और यहूदी समाजों की मध्यकाल से चलती आ रही हठधर्मिता के कैसे-कैसे रूप रहे हैं? इन तीनों मतों का उत्स कितना समानरूपी रहा है, और आज वह क्योंकर आपस में तलेवारें खींचे खड़े हैं? ऐसे अनेकानेक सवालों पर विमर्श करते हुए लेखक आज के वैश्विक संदर्भों तक पहुंचता है जहां तटस्थ भावभूमि बनाए रखते हुए कई कारणों की तह में जाकर कुछ स्पष्ट और चौंकाऊ निष्कर्ष सामने आते हैं। पुस्तक का यही राजनीतिक स्वरूप उसे एक वृहद् आयाम भी देता है। पुस्तक का वैचारिक निचोड़ है कि आज के वैश्विक संदर्भ में भारत की प्राचीन सनातनी सोच शांति की निर्झरणी के तौर पर दिखती है, जिस पर स्वयं भारतीयों की दृष्टि भी यदा-कदा जाती है, तो इस सत्य को न मानने का कोई कारण नहीं रह जाता कि यही सनातनी विचारधारा आज की जरूरत है, जिसे गौतम बुद्ध ने अपने शब्दों में व्याख्यायित किया था। पुस्तक के अंतिम अध्याय इसी निर्मल धारा की विराट सत्ता को कुछ शब्दों में समेटने का प्रयास भर है। ल्ल संदीप जोशी
देवतुल्य नास्तिक
धर्म, दर्शन और विज्ञान के सहसंबंध
लेखक
अरुण भोले
प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन
दरियागंज,
नयी दिल्ली-2
मूल्य -350/- रु.
पृष्ठ – 192
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