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नौ दिन शक्ति की उपासना, रामलीलाओं का मंचन और दसवें दिन शस्त्रपूजन संग दशहरा महोत्सव…ठंड की शुरुआत से पहले ये कुछ ऐसे दिन होते हैं जो इस उत्सवधर्मी देश के लोगों को खास उत्साह से भर देते हैं। इस विजयादशमी जोश का यह रंग नागपुर में हर बार के मुकाबले कहीं ज्यादा गहरा था। अवसर था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के नब्बे वर्ष पूरे होने का। संतरों के शहर में मीडिया के डेरे थे और पूरे देश का ध्यान सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के विजयादशमी उद्बोधन पर था।
हालांकि इस वार्षिक आयोजन का संज्ञान हर वर्ष भारत सहित विश्व मीडिया द्वारा लिया जाता है लेकिन इस बात पर दो राय नहीं कि संघ और इसके कामकाज के प्रति लोगों की जिज्ञासा लगातार बढ़ रही है। इस उत्कंठा के अपने कारण और पक्ष हैं।
संघ के स्वाभाविक विस्तार में जिज्ञासा की लहर का एक पक्ष समाहित है। पहला हिस्सा ऐसे लोगों का है जो देश के लिए इस समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं और अपने मन में उठे इसी भाव के चलते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर आकृष्ट हुए हैं। ऐसे लोगों को नि:स्वार्थ, सेवाभावी लोगों का अखिल भारतीय ताना-बाना आकर्षित करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं, विविध क्षेत्रों में सेवा-समर्पण से किए जा रहे काम और उदाहरण उन्हें प्रेरित करते हैं। वे संघ से जुड़ना चाहते हैं, जुड़ते हैं।
जिज्ञासा का दूसरा सिरा थामे कुछ और लोग भी हैं। यदि समग्र रूप में संबोधित किया जाए तो यह समूह वह है जो अभी संघ को, इसके काम-काज को समझने की 'प्रक्रिया' में है। यहां संघ के बारे में जानने की इच्छा, नि:स्वार्थ सेवाभाव में डूबकर इससे जुड़ जाने के स्तर पर नहीं पहुंची है। यहां समाज के प्रति विचार भी संघ के दृष्टिकोण से अलग है। समाज को एक और राष्ट्र की आधारभूत इकाई मानने की बजाय इसे अलग-अलग टुकड़ों में बांटकर देखने, इसमें भी किसी एक टुकड़े के हित की ज्यादा चिंता करने और सहिष्णुता की अपेक्षा संपूर्ण समाज की बजाय सिर्फ एक वर्ग से करने का विचार यहां हावी है। जाहिर है इन गड्डमड्ड आधारों ने सोच को गड़बड़ाया है। यहां जिज्ञासाओं की जड़ें 'राष्ट्रहित' की बजाय 'राजनीति' में धंसी हैं इसलिए यहां संघ के बारे में समझने की इच्छा भी अभी तक संशय से घिरी है।
देखने लायक यह है कि संघ को अपने तरीके से परिभाषित करने की जिद, समाज को एक नजर से न देखने का हठ, राष्ट्रहित पर सियासी नफे की अपनी नापतौल में कहीं ऐसे लोग और समूह अप्रासंगिक तो नहीं होते जा रहे?
संघ के प्रति संशय पालने वाले भले ही उपरोक्त बातों को नकारें, अनभिज्ञता जाहिर करें, लेकिन समाज देख रहा है। देश का हित सोचने वालों का काम और तुष्टीकरण की बंधक सेकुलर धूर्तता सहित कोई पक्ष समाज से छिपा नहीं है। प्रशांत पुजारी के हत्यारों पर चुप लेकिन अखलाक का जिक्र बार-बार करने वालों पर सवाल उठ रहे हैं। प. बंगाल से जो 90 बुद्धिजीवी दादरी मुद्दे की गुहार लगाने महामहिम तक दौड़े उन्हें अपने ही राज्य में धार्मिक जुलूस निकालने पर उन्मादी मुसलमानों द्वारा मारे गए पांच अनुसूचित जाति के लोगों की हत्या दिखाई नहीं दी? यह सवाल संघ नहीं सोशल मीडिया के मंचों पर पूछा जा रहा है। ममता सरकार द्वारा दुर्गा मूर्ति विसर्जन को प्रतिबंधित कर इसे मोहर्रम से जोड़ने-टकराने की राजनीतिक कुचालों पर खुलकर सवाल पूछे जा रहे हैं। खासबात यह कि आज सेकुलर कुतकार्ें को मानने के लिए समाज तैयार नहीं है। दुनिया से बुहारा जा चुका वामपंथी घूरा ही इसके लिए बचा है। समाज को वर्ग-विभाजन और विद्वेष की बेल अब अपने आंगन में नहीं चाहिए, यह बात खुलकर अभिव्यक्त होने लगी है। जिन्हें सिर्फ राजनीति समझ आती है उन्हें इस देश की जनता द्वारा राजनीतिक तौर पर डेढ़ वर्ष पहले समझाया भी जा चुका है।
सो, सरसंघचालक का विजयादशमी उद्बोधन जहां इस संगठन का राष्ट्रीय आयाम देखने वालों के लिए सरस और प्रेरक है वहीं संघ के काम में राजनीतिक आयाम तलाशने वालों के लिए इसके मायने अलग हैं। इसमें सरकार के सकारात्मक कायोंर् की सराहना है, देश के रूप में हम सब के लिए बढ़ती चुनौतियों के प्रति चिन्ता है। राष्ट्रीय एकता के सूत्र हैं और राजनीतिक रस्साकशी का जिक्र तक नहीं है। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामाजिक व्याप को देखकर भी अनदेखा करने वाला जो समूह सियासत के चश्मे से इसे देखना और परिभाषित करना चाहता है वह क्या करे? यह समय उनके लिए सोचने का है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी इस नब्बे वर्ष की यात्रा में काफी आगे निकल आया है और इसके शंकालु आलोचक आज भी अपनी घिसी-पिटी अवधारणाओं से बंधे बैठे हैं?
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