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वर्ष: 12 अंक: 31 9 फरवरी 1959
सीतापुर, 31 जनवरी। सिविल व सेशन जज श्री आफताब अहमद की अदालत में 'बड़ागांव हत्याकांड' का निर्णय सुना दिया गया। निर्णय के अनुसार सात अभियुक्तों को फांसी की सजा दी गई एवं 19 लोगों को आजन्म कारावास का दण्ड सुना दिया गया है। शेष 4 अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया।
'पाञ्चजन्य' के पाठकों को 'बड़ागांव हत्याकांड' का विस्तृत परिचय देने की आवश्यकता नहीं है कि किस प्रकार 27 अप्रैल 1958 को इस क्षेत्र के प्रमुख जनसंघ कार्यकर्ता श्री रामेश्वरदयाल, जो महोली शुगर मिल में सहायक लेबर ऑफिसर थे व बड़ागांव ग्रामसभा के प्रधान, गन्ना यूनियन के संचालक व डिस्ट्रिक कोऑपरेटिव सोसायटी के सदस्य होने के नाते इस क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय एवं प्रभावशाली थे, की दिनदहाड़े दोपहर को 11 बजे इस क्षेत्र के प्रमुख कांग्रेसी नेता श्री रामप्रसाद (ढकिया) ने सैकड़ों लोगों की सहायता से पुलिस की आंखों के सामने निर्मम हत्या कर डाली थी एवं उनके दो पुत्र सर्वश्री कमलेश्वर दयाल व राजेश्वर दयाल को भारी चोट पहुंचायी थी।
116 पृष्ठ के फैसले में माननीय जज ने सिद्ध किया है कि 26 अभियुक्तों पर जुर्म पूर्णतया सिद्ध हो गया है। फांसी की सजा पाने वालों में मुख्य अभियुक्त रामप्रसाद (ढकिया), उनके भाई रामअवतार और पुत्तुलाल भी सम्मिलित हैं। इस मुकद्मे में सबूत पक्ष की ओर से पं. श्यामनारायण मिश्र एडवोकेट, सहायक सरकारी वकील श्री श्यामसुन्दर मशालदार व पं. श्यामबिहारी तिवारी थे। अभियुक्त पक्ष की ओर से पं. रामआसरे मिश्र एडवोकेट एवं श्री गंगानारायण सहगल के नेतृत्व में कई वकीलों का जत्था था।
मौलाना आजाद की जीवनी कहती है
भारत-विभाजन के लिए पं. नेहरू उत्तरदायी
स्व. मौलाना आजाद ने अपनी आत्मकथा 'भारत ने स्वतंत्रता जीती' (इण्डिया विन्स फ्रीडम) के प्रथम भाग में बड़े ही दु:ख के साथ यह विचार व्यक्त किया है कि यदि श्री नेहरू जो 'मेरे सबसे प्रिय मित्रों में से एक हैं' दो गलतियां न की होतीं तो विभाजन का दु:खद कांड संभवत: टल गया होता।
पं. नेहरू को अव्यावहारिक और कल्पनावादी बताते हुए मौलाना आजाद ने लिखा है, 'अव्यावहारिक सिद्धान्त में पं. नेहरू की आस्था ने ' 1937 में मुस्लिम लीग को नया जीवन प्राप्त करने में सहायता दी और फिर 1946 में श्री नेहरू के कारण श्री जिन्ना केबिनेट मिशन योजना से, जिसे दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया था, फिर गए और एक नया अभियान छेड़ दिया जिससे अन्त में पाकिस्तान बना।
जनता विभाजन के पक्ष में नहीं
उन्होंने स्वीकार किया है, 'विभाजन को भारत की जनता ने स्वीकार नहीं किया था और वह उस हालत में टल सकता था यदि श्री एटली (और बाद में लॉर्ड माउन्टबेटन) ने लॉर्ड वेबल की 1946 में यह अपील मान ली होती कि भारतीय समस्या का हल एक या दो साल के लिए टाल दिया जाए ताकि देश की अखण्डता सुरक्षित रखी जा सके।'
पुस्तक का इतिहास
'भारत ने आजादी ली' पुस्तक ओरियंट लांगमेन्स ने प्रकाशित की है। इसमें भारत विभाजन की रोचक भीतरी कहानी है। यह अंग्रेजी में श्री हुमायूं कबीर ने मौ. आजाद से हुयी बातचीत के आधार पर तैयार की है। श्री कबीर ने पुस्तक की भूमिका मेंे लिखा है कि पुस्तक की सब बातों पर मो. आजाद ने अपनी स्वीकृति दे दी थी।
इस कहानी के तीस पृष्ठ इस समय एक मुहरबन्द लिफाफे में राष्ट्रीय पुस्तकालय में रखे हैं, जिनसे और सनसनीखेज बातों का पता लगने की संभावना है। इस पृष्ठों को मौलाना की अन्तिम इच्छानुसार उनकी मृत्यु से 30 वर्ष प्रकाशित किया जाएगा, क्योंकि इनमें कुछ ऐसी घटनाए हैं, जो कतिपय बड़े नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र पर प्रकाश डालती हैं।
दिल्ली में सनसनी
मौलाना आजाद की आत्मकथा के प्रकाशन से दिल्ली के उच्चराजकीय क्षेत्रों, विशेषकर कांग्रेस नेताओं में खलबली मच गयी है। पुस्तक का प्रकाशन ऐसी परिस्थितियों में, जबकि प्रधानमंत्री पहले ही दिन अर्थात 30 जनवरी को शहीद दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित आमसभा में अपने से मत भिन्नता रखने वाले सहयोगियों के विरुद्ध खुले संघर्ष की घोषणा कर चुके थे, और भी अधिक महत्व प्राप्त कर गया है। यह संकेत भी प्रकाश में आया है कि सरदार पटेल के उत्तराधिकारियों के पास ऐसे अनेक पत्र हैं, जिन्हें अब तक केवल इसलिए प्रकाशित नहीं किया गया था ताकि प्रधानमंत्री की स्थिति खराब न हो और उनके राष्ट्र निर्माण के प्रयत्नों में बाधा न पड़े। यह भी चर्चा है कि संभवत: इन्हीं कारणों से पं. नेहरू के समर्थक इस विकट अवसर पर इस पुस्तक के प्रकाशन को बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण मान रहे हैं। यह आम चर्चा है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से कांग्रेसी नेतृत्व की उन करतूतों पर से पर्दा हटने का क्रम प्रारम्भ हो गया है, जिन्हें वे भारतीय जनता से छिपाना चाहते थे।
हिन्दुत्ववाद अवश्य चाहिए
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों पर आधारित हिन्दू जीवनदर्शन ही हमें वर्तमान संकट से उबार सकता है। विश्व की समस्याओं का समाधान समाजवाद नहीं, हिन्दुत्ववाद है। हिन्दुत्व एक ऐसा जीवनदर्शन है जो जीवन का विचार सांचे में बंद ढंग से नहीं करता। इस जीवनदर्शन को पुराने निष्प्राण कर्मकाण्ड के साथ जोड़कर हिन्दुत्व के बारे में संभ्रम नहीं करना चाहिए। हिन्दुत्व को वैज्ञानिक प्र्रगति के विरुद्ध मानना भी गलत है। विज्ञान तथा तंत्रविज्ञान (टेक्नोलॉजी) का उपयोग हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के अनुरूप रीति से करना चाहिए। हमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सैद्धांतिक अग्रपंक्ति पर यंत्रवाद का सामना करना पड़ेगा। इसलिए धर्मराज्य, प्रजातंत्र, सामाजिक समानता एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण हमारे ध्येय होने चाहिए। जो इन सबका समावेश करे, ऐसा 'वाद' हमें चाहिए। फिर उसे आप जो चाहे नाम दीजिए हिन्दुत्ववाद या मानवतावाद।
—पं.दीनदयाल उपाध्याय: विचार दर्शन खण्ड-3,
राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ संख्या 58
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