साधना और विजय का प्रतीक विजयादशमी
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साधना और विजय का प्रतीक विजयादशमी

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Oct 20, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 20 Oct 2015 10:53:59

विजयादशमी विजय का उत्सव मनाने का पर्व है। यह असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की, दुराचार पर सदाचार की, तमोगुण पर दैवीगुण की, दुष्टता पर सुष्टता की,भोग पर योग की, असुरत्व पर देवत्व की विजय का उत्सव है।
भारतीय संस्कृति में त्योहारों की रंगीन श्रृंखला गुंथी हुई है। प्रत्येक त्यौहार किसी न किसी रूप में कोई संदेश लेकर आता है। लोग त्योहार तो हषार्ेल्लास सहित उत्साहपूर्वक मनाते हैं किंतु उसमें निहित संदेश के प्रति उदासीन रहते हैं। विजयादशमी उत्सव यानी कि दशहरा आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को भगवान श्रीराम के द्वारा दैत्यराज रावण का अंत किये जाने की प्रसन्नता व्यक्त करने के रूप में और मां दुर्गा द्वारा आतंकी महिषासुर का मर्दन करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसके साथ इस पर्व का सन्देश क्या है इसके विषय में भी विचार करने की आज आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति हमेशा से ही वीरता की पूजक एवं शक्ति की उपासक रही है। शक्ति के बिना विजय संभव नहीं है। इसीलिए हिन्दुओं के सभी देवता कोई न कोई शस्त्र धारण किये हुए दिखाई देते हैं। इस शक्ति का उपयोग आवश्यकता पड़ने पर ही, आसुरी शक्ति या दुष्टता का विनाश कर धर्म की स्थापना के लिए किया गया है। इसलिए सुशील शक्ति की उपासना सतत् करते रहने की आवश्यकता है। यह सन्देश देने के लिए स्थान-स्थान पर शक्ति के प्रतीक के  रूप में विजयादशमी के निमित्त शस्त्र पूजन करने की परंपरा भारत में है।   
एक पुरुष कितना उत्तम हो सकता है, इसका आदर्श उदाहरण 'राम' हैं। वे सत्य, मर्यादा, विवेक, प्रेम व त्याग की पराकाष्ठा हंै। मानव से महामानव तक की संपूर्ण यात्रा हैं। इन गुणों के कारण ही भारतीय जनमानस आज सदियों के पश्चात् भी उनके आगे नतमस्तक है, उनके गुणगान सतत् कर रहा है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दूसरी ओर रावण प्रतीक है अहंकार का, दुष्टता का, आत्मकेंद्रितता का, अभद्र सम्पन्नता का, उद्दंड भौतिकता का व अत्याचार का।
हमारे सभी के अन्दर राम और रावण दोनों विद्यमान होते हैं। उनका आपस में सतत् संघर्ष चलता रहता है। विजयादशमी के पर्व पर हमें संकल्प लेने चाहिए एवं प्रयास करना चाहिए कि हमारे अन्दर का राम शक्तिशाली हो, उस उद्दंड रावण को परास्त कर विवेकी राम की विजय हो।
हमारे राष्ट्र जीवन में भी राम एवं रावण दोनों विद्यमान हैं। कभी वह मारीच के समान सुवर्णमृग का लुभावना रूप लेकर आता है, या शूर्पनखा के रूप में झूठा आकर्षण लेकर आता है, या कभी खर दूषण के रूप में आतंकवादी बनकर अपनी प्राचीन संस्कृति पर खुला आक्रमण करता दिखता है, या अपने सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण का निमित्त बन रहा है या संस्कृति के प्रतीक एवं रक्षक ऐसे लोगों पर आक्रमण करते दिख रहा है। भगवान राम ने ऐसी राक्षसी राष्ट्र घातक वृत्ति एवं शक्ति को परास्त करने के लिए सभी राष्ट्रवादी, धर्मप्रेमी संस्कृति रक्षकों को एकत्र कर संगठित किया था और इस संगठित शक्ति के आधार पर रावण को तथा उसकी आसुरी शक्ति को परास्त किया था। श्रीराम की विजय में संगठित राष्ट्रीय शक्ति का जितना महत्व था उतना ही या उससे भी अधिक महत्व श्रीराम के शुद्घ आचरण एवं विशुद्घ चरित्र का था। इसलिए हिन्दू जीवन मूल्यों के प्रकाश में चरित्रवान लोगों के आचरण के द्वारा निर्माण होने वाली विजयशालिनी संगठित शक्ति के द्वारा ही समाज के रावण और आसुरी शक्ति को हम परास्त करने में सफल होंगे। ये रावण और उसके अनुचर सुदूर किसी एक विशिष्ट प्रदेश में नहीं हैं बल्कि समाजजीवन में जगह-जगह अपने उन्मादी अत्याचार एवं हिंसा करते दिखते हंै। इसलिए सारे देश में जागृत जनता के संगठित केंद्र जगह-जगह खड़े करने होंगे। ग्राम-ग्राम  तक ऐसी रामसेना खड़ी करने का उद्यम करना पड़ेगा। यह ग्राम-ग्राम की रामसेना अपनी संगठित शक्ति से तथा अपने विशुद्घ राष्ट्रीय आचरण द्वारा धमंर् एवं अपनी सनातन संस्कृति का रक्षण करने के राष्ट्रीय कार्य में सक्रिय हो। यही इस विजय पर्व का सन्देश है।
अलग-अलग युगों में रावण के भिन्न भिन्न चेहरे रहे हैं। आधुनिक परिवेश में विश्व के प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष आतंकवाद का असुर सुरसा की भांति मुंह बाये खड़ा है। इसके साथ-साथ मंहगाई, बेरोजगारी, सामाजिक विषमता, जातिवाद, मजहबी अलगाववाद जैसी अनेकानेक समस्याएं आज हमारे अपने राष्ट्र के लिए चुनौती बनी हुई हैं। इनका समाधान करने के लिए निश्चित रूप से लोकनायक राम की भांति सीमित साधनों का विवेकपूर्ण रीति से उपयोग करके, शक्ति का उपयोग करना होगा। आज के संदर्भ में सभी समस्याओं का समाधान करने के लिए किसी का वध करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि रावण होने का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से नहीं है बल्कि उसकी सोच रावण है, उसके दृष्टिकोण में रावण है, उसकी मानसिकता में रावण है जो किसी दूसरे की प्रसन्नता और उन्नति देख द्वेष से भर उठती है। उनकी भावनाओं में रावण है जो अपने राष्ट्र एवं समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को विस्मृत कर देते हैं। उनके ज्ञान में रावण है जो मात्र धन के लिए अपने पद प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करते हैं। हर व्यक्ति के अन्दर किसी न किसी रूप में एक रावण छिपा है। किंतु किसी व्यक्ति को मारने से रावण नहीं मरेगा अपितु उसके बुरे विचारों,  संकीर्ण मानसिकता, दृष्टिकोण आदि का सही ढंग से उपचार करना होगा। यह कार्य कठिन है किंतु असंभव नहीं। विजयादशमी का दिन ही विजय का है। यह विश्वास पुरातनकाल से चला आ रहा है। कहते हैं कि इस दिन ग्रह नक्षत्रों की स्थिति भी ऐसी होती है जिससे किए हुए कार्य में विजय निश्चित होती है। मां भगवती को इस दिन विजया के रूप में पूजा जाता है। विजयादशमी संकल्प लेने का, संकल्पित हो देश सेवा का व्रत लेने का पर्व है। अपने अंदर चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण का व्रत लेने का पर्व है। लाखों संकट क्यों न आ जायें धैर्य नहीं खोना है। राम की भांति अटल रहेंगे तो विजय अवश्य ही होगी। समस्याओं का हल साधनों में नहीं साधना में निहित है। समाज परिवर्तन का संकल्प लेना होगा। मात्र अंधकार को कोसने से अंधकार नहीं मिटेगा। दीया जलाकर प्रकाश फैलाना होगा। चरैवेति-चरैवेति के अनुसार अपने कार्य में लगे रहकर लक्ष्य प्राप्ति तक,  विजय प्राप्ति तक पीछे मुड़कर नहीं देखना है।
इसी संकल्प को मन में सुदृढ़ता से धारण कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक परम पूज्य डा. हेडगेवार जी ने भारतमाता को परम् वैभव के स्थान पर प्रतिष्ठित करने के लिए सन् 1925 में विजयादशमी के दिन ही इस संगठन की स्थापना की थी जो कि आज एक सुदृढ़ वट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है और अपनी जड़ें चारों दिशाओं में जमाये विश्व का सबसे बड़ा और मजबूत स्वयंसेवी संगठन है जोकि इस वर्ष विजयादशमी के दिन गौरवमयी 90 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। कितने विघ्न आये, बाधाएं आयीं किन्तु सभी स्वयंसेवक संगठित हैं, अटल हैं, ध्येय मार्ग पर अनवरत बढ़ते जा रहे हैं। हर हाल में राष्ट्र की रक्षा एवं उन्नति के लिए कृतसंकल्प हैं और निरंतर कार्यरत हैं और विजय की आशा में कर्तव्य पथ पर अग्रसर हैं । तो आइये, हम सब राष्ट्रभक्त इस विजय उत्सव पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी के जीवन से सात्विकता, आत्मीयता, निर्भीकता एवं राष्ट्र रक्षा की प्रेरणा लें तथा राष्ट्र विरोधी प्रच्छन्न तत्वों से संघर्ष करने के साहस का परिचय दें तो भारतवर्ष की एकता, अखंडता, नैतिकता तथा चारित्रिक सौम्यता के निर्माण के क्षेत्र में अद्भुत सराहनीय प्रयास होगा। यही हमारी विजय होगी, यही राष्ट्र के प्रति हमारी सवार्ेत्तम भेंट होगी।  – डॉ़ मनमोहन वैद्य
                         लेखक- रा.स्व.संघ के अ़ भा़ प्रचार प्रमुख  हैं   

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